प्रवचनसारः गाथा -36 ज्ञान का स्वभाव
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -36 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -37 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं /
व्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं / / 36 //

अन्वयार्थ- तम्हा इसलिये जीवों णाणं) जीव ज्ञान है णेयं) और ज्ञेय (तिधा समक्खादं) तीन प्रकार वर्णित (त्रिकालस्पर्शी) (दवं) द्रव्य है (पुणो दवं ति द्रव्य अर्थात आदा) आत्मा (स्व आत्मा) (परं च) और पर (परिणामसंबद्धं) परिणाम वाले हैं।

आगे "ज्ञान क्या है, और ज्ञेय क्या है," इन दोनोंका भेद कहते हैं--[तस्मात् ] इसी कारणसे [जीवः] आत्मा [ज्ञानं] ज्ञानस्वरूप है, और [विधा समाख्यातं] अतीत, अनागत, वर्तमान पर्यायके भेदसे अथवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भेदसे अथवा द्रव्य, गुण, पर्यायसे तीन प्रकार कहलानेवाला [द्रव्यं] द्रव्य है, [ज्ञेयं] वह ज्ञेय है / [पुनः] फिर [आत्मा] जीव पदार्थ [च] और [परं] अन्य अचेतन पाँच पदार्थ [परिणामसंबद्धं] परिणमनसे बँधे हैं, इसलिये [द्रव्यमिति] द्रव्य ऐसे पदको धारण करते हैं / भावार्थपहलेकी गाथामें कहा है, कि यह आत्मा ज्ञानभावसे आप ही परिणमन करके परकी सहायता विना स्वाधीन जानता है, इसलिये आत्मा ही ज्ञान है / अन्य (दूसरा) द्रव्य ज्ञान भावपरिणमनके जाननेमें असमर्थ है / इसलिये अतीतादि भेदसे, उत्पादादिकसे, द्रव्यगुणपर्यायके भेदसे, तीन प्रकार हुआ द्रव्य ज्ञेय है, अर्थात् आत्माके जानने योग्य है / और आत्मा दीपककी तरह आप तथा पर दोनोंका प्रकाशक (ज्ञायक) होनेसे ज्ञेय भी है, ज्ञान भी है, अर्थात् दोनों स्वरूप है / इससे यह सारांश निकला, कि ज्ञेय पदार्थ स्वज्ञेय और परज्ञेय (दूसरेसे जानने योग्य) के भेदसे दो प्रकार हैं, उनमें पाँच द्रव्य ज्ञेय ही हैं, इस कारण परज्ञेय हैं, और आत्मद्रव्य ज्ञेय-ज्ञान दोनों रूप है, इस कारण स्वज्ञेय है / यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि आत्मा अपनेको जानता है, यह बात असंभव है। जैसे कि, नट-कलामें अत्यंत चतुर भी नट आप अपने ही कंधेपर नहीं चढ़ सकता, उसी प्रकार अन्य पदार्थोंके जाननेमें दक्ष आत्मा आपको नहीं जान सकता, तो इसका समाधान यह है कि पहले कहे हुए दीपकके दृष्टांतसे आत्मामें भी स्वपरप्रकाशक शक्ति है, इस कारण आत्मा अपनेको तथा परको जाननेवाला अवश्य हो सकता है। इससे असंभव दोष कभी भी नहीं लग सकता / अब यहाँपर फिर कोई प्रश्न करे, कि आत्माको द्रव्योंका ज्ञान किससे है ? और द्रव्योंको किस रीतिसे प्राप्त होता है ? तो उससे कहना चाहिये, कि ज्ञान, ज्ञेयरूप पदार्थ, परिणामोंसे बँध रहे हैं / आत्माके ज्ञानपरिणति ज्ञेय पदार्थकी सहायतासे है / यदि ज्ञेय न होवे, तो किसको जाने ? और ज्ञेय पदार्थ ज्ञानका अवलम्बन करके ज्ञेय अवस्थाको धारण करते हैं। जो ज्ञान न होवे, तो इन्हें कौन जाने ? इसलिये पदार्थोका ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध हमेशासे है, मिट नहीं सकता |


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 36
*ज्ञान का स्वभाव *

पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या  36 की वाचना से आप जानेंगे कि 
* ज्ञान का स्वभाव कैसा होता है ?
* ज्ञान ही जीव है इसलिए जीव ज्ञान और ज्ञेय दोनो है।
* 6 द्रव्यों में केवल जीव द्रव्य ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है । वह दूसरों को भी जानता है और ख़ुद को भी जानता है।
* ज्ञान का स्वभाव स्व पर प्रकाशी होता है।
* क्या ज्ञान का उपयोग केवल पर को जान ने के लिए करना चाहिए ?
* केवलग्यान सिर्फ़ स्व को जान ने से ही होता है।
* ज्ञान के माध्यम से ध्यान कैसे करें ?



Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
Reply
#2

Gatha-36
Thus, the soul (ātmā, jīva) is the knowledge (jñāna). The substance (dravya) is the object-of-knowledge (jñeya). The object-of-knowledge (jñeya) is expressed in any of these three ways – past, present and future modes (paryāya); origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya); substance (dravya), quality (guõa) and mode (paryāya). Further, since the substances – the soul (jīva) and the non-soul (ajīva) – undergo modification, the above modes of expression are used.

Explanatory Note:
The previous verse (gāthā) expounds that the soul (ātmā, jīva) is the knowledge (jñāna). And the soul itself, without outside help, knows the self as well as the other objects-of knowledge (jñeya) through its own modification of the knowledge. No other substance has this knowledge. The substance, which is expressed in three ways – past, present and future modes; origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya); and substance (dravya), quality (guõa) and mode (paryāya) – is worth knowing by the soul. The soul, like the lamp, illumines the self as well as the others and, therefore, is the objectof- knowledge (jñeya) as well as the knowledge (jñāna). The remaining five substances – the medium of motion (dharma), the medium of rest (adharma), the space (ākāśa), the matter (pudgala), and the time (kāla) – have no knowledge (jñāna) but are the objects-of-knowledge (jñeya). How can the soul know itself? It knows itself like the lamp, which illumines the self as well as the others. How does the soul know the objects-of-knowledge (jñeya)? The knowledge (jñāna) as well as the objects-of-knowledge (jñeya) undergo modification, and  the modification of the knowledge (jñāna) is with help of the  objects-of-knowledge (jñeya). With help of the objects-of knowledge (jñeya), the knowledge (jñāna) knows; if there were no objects-of-knowledge (jñeya), whom will the knowledge (jñāna) know? With help of the knowledge (jñāna), the objects-of knowledge (jñeya) are known; if there were no knowledge (jñāna), who will know the objects-of-knowledge (jñeya)? There is this eternal relationship between the objects-of-knowledge (jñeya) and the knowledge (jñāna).

Taken from . Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
Reply
#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -35,36
ज्ञान भिन्न है नहीं जीवसे इसीलिये जो जाने सो
ज्ञान और सब ज्ञेय ज्ञानगत होते हैं स्वभाव ऐसो
ज्ञान जीव ही ज्ञेय जीव भी और द्रव्य भी होता है।
जो कि सदा परिणमनरूपसे त्रिविधभावको ढोता है |18|


गाथा -35,36
सारांश:- व्याकरणके अनुसार 'जानातीति ज्ञानं' जो जानता है वह ज्ञान होता है इस प्रकार कर्तृ साधनसे तो ज्ञान आत्माका ही नाम ठहरता है क्योंकि जाननेवाला आत्मा ही 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं' जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान होता है। इस तरह से करण साधन करने पर आत्मा और ज्ञान भिन्न भिन्न ठहरते हैं। आत्मा तो जाननेवाला है और ज्ञान जाननेका साधन है। फिर भी यहाँ पर ऐसा भेद नहीं है जैसा कि कुठारके द्वारा लकड़ीको काटने वाले बढ़ई में पाया जाता है। बढ़ई और कुठार दोनों भिन्न भिन्न है।

ज्ञान आत्माका धर्म है और आत्मा उसका धर्मी है। जैसे कि अग्नि अपनी उष्णता से भिन्न न होकर उसीका गुण है या धर्म व परिणमन है। केवल इनमें परस्पर परिणाम, परिणामी भाव बतानेके लिए इन्हें भिन्न भिन्न कहा जाता है। वास्तवमें प्रदेशत्वेन इनमें भिन्नत्व नहीं है। यदि ज्ञप्तिक्रियाके प्रति आत्मा कर्त्ता और ज्ञान उसका करण होने मात्र उन्हें भिन्न  ही कहा जाये (जैसी कि कुछ लोगों की मान्यता है) तो फिर ज्ञानको लेकर आत्मा ज्ञानवान् ही बन सकता है। ज्ञ एवं ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है परन्तु आत्मा ज्ञाता है। ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानमय है। सब पदार्थ इसके ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं। आत्मा ज्ञान रूप भी है और ज्ञेयरूप भी है क्योंकि वह जिस प्रकार इतर पदार्थों को जानता है उसी प्रकार अपने आपको भी जानता है। जो अपने आपको नहीं जानता है वह दूसरे को भी नहीं जान सकता है और न देख ही सकता है।
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 2 Guest(s)