प्रवचनसारः गाथा -38 पर्याय एवं द्रव्य
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -38 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -39 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
 
जेणेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया।
ते होंति असन्भूदा पजाया णाणपञ्चक्खा // 38 //

अन्वयार्थ-(जे पज्जाया) जो पर्यायें (हि) वास्तव में (णेव संजादा) उत्पन्न नहीं हुई हैं. तथा (जे) जो पर्यायें (खलु) वास्तव में (भवीय णट्ठा) उत्पन्न होकर नष्ट हो गई है (ते) वे (असब्भूदा पज्जाया) अविद्यमान पर्यायें (णाणपच्चक्खा होंति) ज्ञान प्रत्यक्ष है।

आगे जो पर्याय वर्तमान पर्याय नहीं हैं, उनको किसी एक प्रकार वर्तमान दिखलाते हैं-[हि निश्चय करके [ये पर्यायाः] जो पर्याय [नैव संजाताः] उत्पन्न ही नहीं हुए हैं, तथा [ये] जो [खलु] निश्चयसे [भूत्वा] उत्पन्न होकर [नष्टाः ] नष्ट होगये हैं, [ते] वे सब अतीत अनागत [पर्यायाः] पर्याय [अस द्भूताः] वर्तमानकालके गोचर नहीं [भवन्ति] होते हैं, तो भी [ज्ञानप्रत्यक्षाः] केवलज्ञानमें प्रत्यक्ष हैं / भावार्थ-जो उत्पन्न नहीं हुए, ऐसे अनागत अर्थात् भविष्यत्कालके और जो उत्पन्न होकर नष्ट होगये, ऐसे अतीतकालके पर्यायोंकों असद्भूत कहते हैं, क्योंकि वे वर्तमान नहीं हैं। परंतु ज्ञानकी अपेक्षा ये ही दोनों पर्याय सद्भूत भी हैं, क्योंकि केवलज्ञानमें प्रतिबिम्बित हैं। और जैसे भूत-भविष्यतकालके चौबीस तीर्थंकरोंके आकार पाषाण (पत्थर ) के स्तंभ (खंभा ) में चित्रित रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानमें अतीत अनागत ज्ञेयोंके आकार प्रतिबिम्बित होकर वर्तमान होते हैं |


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 38

पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या 38 की वाचना से आप जानेंगे कि
* पर्याय कितने प्रकार की होती हैं ?
* क्या पर्याय शरीर आश्रित है ?
* वे पर्याय का गहराई से अर्थ समझाते हुए बताते हैं कि द्रव्य(substance) के modes को हम उसकी पर्याय कहते हैं । द्रव्य की पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती है।
* द्रव्य का स्वभाव पर्याय नहि है, परंतु अनेक पर्यायों को उत्पन्न करना है।
* अनेक द्रव्यों की अनेक पर्याएँ उन केवलज्ञानि सर्वज्ञ (omniscient) भगवान के ज्ञान में सहजता से झलकती रहती हैं।
* मन को द्रव्य मेन लगाने से चित्त शांत होता है क्यूँकि सिर्फ़ द्रव्य स्व का है, पर्याय नहि।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Certainly, omniscience (kevalajñāna) sees directly those notpresent modes (paryāya), which are yet to originate, and which had originated in the past but destroyed, i.e., all modes of the future and the past, not existing in the present, of a substance (dravya).

Explanatory Note: 
The not-present modes of a substance are future modes that are yet to originate and past modes that exist no more. However, such modes are present in the knowledge of the Omniscient. As the figures of the past and the future Tīrthańkara inscribed in the stela remain present, the past and the future modes of a substance remain present in the knowledge of the Omniscient.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -37,38
तात्कालिक पर्याय की तरह भूत भावि पर्याय भी
झलका करती है सुबोध द्रव्यों की सारी के भी
जो न अभी हो पाई हो या होकर नष्ट हो चुकी हों।
असद्भूत वे पर्यायें भी गोचर स्फुट ज्ञानकी हों ॥ 19॥


गाथा -37,38,39,40
सारांश:- मान लो एक घास की टाल लगी हुई थी। उसमें बिजली का करेण्ट लगकर आग हो गई। अब देखने वाला देखता है कि वह कुछ देर पहिले यहाँ घास थी, अब आग बन गई और थोड़ी देर में वह भस्म हो जायेगी। इस प्रकार सर्व साधारण जब भूत भविष्यत और वर्तमान पदार्थ को पर्यायों को जानता है तब केवली का तो कहना ही क्या?

शङ्काः -पदार्थ की वर्तमान दशा की तरह अतीत अनागत अवस्था का ज्ञान होता है इस बात का कौन निषेध करता है किन्तु वर्तमान का तो प्रत्यक्ष और भूत भविष्यत पर्याय का स्मरण वगैरह हो सकता है जैसा कि ऊपर वाले उदाहरण से भी स्पष्ट है। प्रश्न तो केवल इतना ही है कि जो अभी है ही नहीं, उसका भी प्रत्यक्ष हो जावे, यह कैसे हो सकता है?
उत्तरः- प्रत्यक्ष ज्ञान कई प्रकार का होता है। इन्द्रियों के  द्वारा पदार्थ का सत्रिकर्ष होकर जो ज्ञान होता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं जैसे कि हम जीभ से चखकर आम के खट्टेमीठेपन को जान जाते हैं यह ज्ञान तो वर्तमान वस्तु का ही होता है, सो सही बात है। दूसरा मानसिक प्रत्यक्ष होता है। जब किसी मनुष्य का मन किसी चीज पर दृढता से लगा हुआ होता है तब वह वस्तु दूर रह करके भी उसके सम्मुख नाचती हुई सी प्रतीत होती है, इसको स्वसंवेदन ज्ञान भी कहते हैं।

तीसरा ज्ञान योगी प्रत्यक्ष होता है जो योगियों को अपने योग बल के द्वारा लोगों के जन्म जन्मान्तर की और सुदूर देशान्तर की बात को भी स्पष्ट रूप से दिखलाया करता है। स्थूल से स्थूल और निकट से निकट रहने वाली चीज को तेज से तेज आँखों वाला मनुष्य भी इतना स्पष्ट नहीं देख सकता है जितना स्पष्ट एक महर्षि अपने अनिन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूर से दूर रहने वाली चीज को भी देख लेता है।

यह ज्ञान इन्द्रियादि बाह्य कारणों की अपेक्षा न रखकर पूर्णरूप से आत्माधीन होता है, इसलिये वास्तविक प्रत्यक्ष यही होता है क्योंकि अक्ष नाम भी आत्मा का है, ऐसा संस्कृत के कोशकारोंने  बताया है। एवं अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति नियत होता है वह प्रत्यक्ष है ऐसा अर्थ ठीक हो जाता है। इसी को पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान परमार्थ के ज्ञाता ऋषियों के ही होता है।

यदि अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय माना जावे तो फिर यह उपर्युक्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं ठहरता है क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता है। इन्द्रियाधीन परतंत्र ज्ञान को प्रत्यक्ष कहना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है। अतः आत्म तंत्र ज्ञान ही उसके अधिक सन्निकट एवं सहज तथा सरल होता है। वह ज्ञान चराचर सब जीवों को स्पष्ट जानता है, यही बताते हैं
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