तत्वार्थसूत्रजी (अध्याय ८) भाग १
#1

उमास्वामी आचार्यश्री, इस अध्याय में २६ सूत्रों के माध्यम से चौथे 'बंध' तत्व के कारण सूत्र ,लक्षण सूत्र , और भेद सूत्र -,प्रकृतिबंध सूत्र -१३,स्थितिबंध सूत्र १४-२०,अनुभागबंध सूत्र २१-२३,प्रदेश बंध सूत्र २४ ,पूण्य प्रकृतियों सूत्र २५ और पाप प्रकृतियों का सूत्र २६ में उपदेश दे रहे है!अपने कर्मों का भार कम करने के लिए बंध के कारणों और लक्षणों को जानकार इनसे सावधान रहना उपदेशित है !
कर्मों के बंध का कारण
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबंधहेतव:! !
संधिविच्छेद-मिथ्यादर्शन+अविरति+प्रमाद+कषाय+योगा+बंध+हेतव:
शब्दार्थ-मिथ्यादर्शन-मिथ्यादर्शन,अविरति १२ प्रकार की अविरती,प्रमाद-धार्मिक क्रियाओं अरुचि होना, कषाय-आत्मा को कषने वाला,और योगा -योग;मन वचन काय ,बंध कर्मबंध,हेतव:- के कारण है 


अर्थ-मिथ्यादर्शन,अविरति,प्रमाद,कषाय,और योग (मन वचन काय ) कर्म बंध के कारण है !
भावार्थ-मिथ्यादर्शन:मिथ्यात्व कर्मोदय से सात तत्वों, नौ पदार्थों में अश्रद्धान होना अथवा अतत्वों में श्रद्धान होना मिथ्यादर्शन है! मिथ्यादर्शन के दो भेद:--गृहित और - अगृहित है!
-गृहित मिथ्यादर्शन-परोपपदेश द्वारा अतत्वों में श्रद्धान होना गृहितमिथ्यादर्शन है -
अगृहित मिथ्यादर्शन- परोपपदेश के अभाव में मिथ्यात्व कर्मोदय से,अगृहित मिथ्यादर्शन होता है!
मिथ्यदर्शन के पांच भेद है--एकांतमिथ्यादर्शन-वस्तु का स्वरुप अनेकांतमय है-किसी एक अपेक्षा से वस्तु नित्य है और दूसरी अपेक्षा से अनित्य है,किसी अपेक्षा से हेय है तथा किसी अन्य अपेक्षा से उपादेय है,किसी अपेक्षा से भिन्न है और किसी अन्य अपेक्षा से अभिन्न है! उसका स्वरुप अनेकांतमय नहीं मानकर,एकांतमय ही मानना जैसे,वस्तु नित्य ही है अथवा अनित्य ही है अथवा उपादेय ही है हेय नहीं है,वह भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही है, इस प्रकार दोनों विपरीत गुणों में से एक ही मानना,एकांत मिथ्यादर्शन है
-विपरीत मिथ्यादर्शन-वस्तु के स्वरुप को आगम के विरुद्ध मानना जैसे केवली कवालाहार करते है,परिगृह सहित भी गुरु होते है ,स्त्री को भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है,मात्र सम्यक् चारित्र से मोक्ष हो सकता है, सम्यग्दर्शन सम्यगज्ञान की मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यकता नहीं है, इत्यादि मान्यताएं विपरीत मिथ्यादर्शन है!
-संशय मिथ्यादर्शन-भगवान् के उपदेशित वचनों में संशय करना, जैसे भगवान् ने लोक में नरक और १६ स्वर्गों का उपदेश दिया ,अथवा रत्नत्रय मोक्षमार्ग है;मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समूह है,जिनेन्द्र देव के वचनों मे संशय करना कि, ऐसा है भी या नहीं है,संशय मिथ्यादर्शन है !
-विनय मिथ्यादर्शन- अन्य मतियों के सभी देवी-देवताओं को जैनागम में प्रणीत देवों के सामान मानकर , सच्चे -झूठे का भेद जाने बिना,विनय,आदर श्रद्धान करना,विनय मिथ्यात्व है !
-अज्ञान मिथ्यादर्शन-अपने हेतु कल्याणकारी अथवा अकल्याणकारी ज्ञान को प्राप्त करने में उदासीन रहना !जैसे कही सच्चे धर्म पर प्रवचन चलरहा हो वहाँ कहना कि धर्म में क्या रखा है,धर्म कुछ नहीं होता ,बस परोपकार रूप कार्य करना ही धर्म है!यह अज्ञान मिथ्यादर्शन है!
अविरति- संयम का अभाव अविरति है इसके १२ भेद है !
संयम-- प्राणी संयम- षटकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम, है इन की रक्षा नहीं करना प्राणी अविरति है और -इन्द्रिय संयम-पञ्च इन्द्रियों और एक मन को संयमित करना इन्द्रिय संयम है!इनको संयमित नहीं करना इन्द्रिय अविरति है!अर्थ पंच इन्द्रिय और मन के विषयों में रोकना !

प्रमाद -मोक्षमार्ग के कार्यों में /आत्मकल्याण कार्यों में अनादर होना,रूचि/उत्साह नहीं होना प्रमाद है!प्रमाद के १५ भेद है!
विकाथाओं-स्त्री कथा,राजकथा ,भोगकथा और,चोरकथ

कषायों-सामान्य से कषाय क्रोध मान,माया ,लोभ ,
इन्द्रियां-स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और कर्ण तथा ,स्नेह और निंद्रा १५ भेद प्रमाद के है
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#2

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

मिथ्यादर्शनाविरतिपमादकषाययोगा बंधहेतव: ।। 8-1 ।।

(215) कर्मबंध के कारणों का निर्देश―मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के कारणभूत हैं । इन सब भावों का वर्णन यद्यपि पहले कहा जा चुका, पर उन विस्तारों का संक्षेप करके गुणस्थान परिपाटी के अनुसार संक्षिप्तरूप में इस सूत्र में कहा गया है । ये सब परिणाम पहले किस प्रसंग में कहे गए थे सो सुनो―मिथ्यादर्शन तो 25 क्रियावों में जो मिथ्यादर्शन आया है मिथ्यात्व क्रिया, इसी प्रकार और भी अन्य क्रियायें हैं उनमें मिथ्यादर्शन का अंतर्भाव होता है, अविरति है विरति का प्रतिपक्षी । विरति न हो तो अविरति है । सो विरति का वर्णन किया गया और विरति का प्रतिपक्षी भाव अविरति का भी वर्णन किया । सांपरायिक आस्रव का इंद्रियकषाया: आदिक सूत्र में वर्णन किया गया है । प्रमाद का वर्णन कहां हुआ? तो उन 25 क्रियावों में आज्ञाव्यापादन क्रिया, अनाकांक्ष क्रिया इसमें प्रमाद का अंतर्भाव हो जाता है । प्रमाद का अर्थ यह है कि मोक्षमार्ग में आदर न होना और मन का समाधानरूप न होना ऐसा यह प्रमाद उन अनेक क्रियावों में शामिल है जिन क्रियावों में आस्रव बताया गया है । कषाय तो क्रोधादिक हैं ही, जिनका वर्णन अनेक जगह हुआ है । ये क्रोधादिक कहीं अनंतानुबंधी पाये जाते हैं, कहीं अप्रत्याख्यानावरण हैं, कहीं प्रत्याख्यानावरण हैं, कहीं संज्वलनरूप हैं । इन कषायों का भी वर्णन इंद्रिय कषायादिक सूत्र में कहा गया है । योग का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में किया गया है । काय, वचन, मन की क्रिया को योग कहते हैं । तो इन सबका वर्णन पहले विस्तार से आया है । उन्हीं को ही संक्षिप्त प्रकारों में जो कि गुणस्थान के अनुसार घटित किया जा सकता, यहाँ वर्णन किया गया है ।

(216) नैसर्गिक व परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शन का विवरण―मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है―[1] नैसर्गिक, [2] परोपदेशनिमित्तक । जहाँ दूसरे के उपदेश के बिना मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो यथार्थ तत्त्वों का श्रद्धा न होना ऐसा मिथ्या अभिप्राय बनता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है । यह प्राय: सभी संसारी जीवों में पाया जाता है । जो संज्ञी पंचेंद्रिय जीव हैं और उनमें भी जो कोई धर्म की धुन वाले हैं पर स्याद्वाद का शासन न मिलने से उनका प्रयोग और प्रकार हुआ है । सो वह परोपदेश निमित्तक है । नैसर्गिक मिथ्यादृष्टि एक इंद्रिय से लेकर चौइंद्रिय तक तो वह ही है, पर पंचेंद्रिय में भी अनेक नैसर्गिक मिथ्यादृष्टि हैं । दूसरे के उपदेश का निमित्त पाकर जो मिथ्यात्व जगता है वह चार प्रकार का समझिये । कोई क्रियावादी―जो क्रियाकांड में ही मोक्ष का मार्ग मानते हैं कोई अक्रियावादी, कोई आज्ञानिक और कोई वैनयिक हैं । ये सब परोपदेश निमित्तक मिथ्यात्व कहलाते है । इनमें क्रियावादी तो 84 हैं । 84 तरह के नेतावों ने यह सिद्धांत निकाला है । इन क्रियावादियों में मुख्य नायक प्रसिद्ध प्रणेतावों के नाम ये हैं―कौकल, कांठेविद्धि, कौशिक हरि, श्मश्रुमान, कपिल, रोमश, हारित, अश्वमुंड हैं । अक्रियावादियों के 180 प्रकार हैं, जिनका सिद्धांत है कि कुछ भी न करना, मौज से रहना, कोई क्रियाकांड न रहना, यही मार्ग व मुक्ति कहलायेगी, ऐसे अक्रियावादियों के प्रणेता मुख्य संन्यासियों के कुछ नाम इस प्रकार हैं―मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वक्ति, माठर आदि अज्ञानवादी 67 प्रकार के होते हैं, जिनका मुख्य सिद्धांत है कि ज्ञान करना, ज्ञान का बढ़ना, यह संसार में फंसने का ही कारण होता है । इस कारण ज्ञान के लिए प्रयत्न कुछ नहीं करना, ऐसे ही रहना, यह ही मोक्ष का कारण बनेगा । इसके प्रणेता मुख्य हैं―पैप्पलाद, वादरायण, वसु जैमिनीय आदि । वैनयिकवाद 32 प्रकार के हैं, जिनका सिद्धांत है कि प्रत्येक देवताओं का विनय करने से मोक्ष होता है । इसके मुख्य प्रणेता वशिष्ट पाराशर जतुकर्ण आदि हैं । ये सब परोपदेश के निमित्त से बने हुए मिथ्यादृष्टि 363 प्रकार के हैं ।

(217) प्राणिवध को धर्महेतु बताने वाले वचनों की अप्रमाणता―यहाँ एक शंका होती है कि जैसे वेद में प्रसिद्ध वादरायण वसु जैमिनी आदिक ऋषि जो कि वेद में बतायी हुई क्रियावों के अनुसार ही अपना अनुष्ठान करते हैं वे कैसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि कहे जा सकते? उत्तर―चूँकि उनका प्राणियों के वध करने में धर्म मानने का अभिप्राय है और प्राणियों का वध नियम से पाप का ही कारण है, उसे धर्म का साधन बताते हैं तो वे कैसे अज्ञानवादियों में गर्भित न होंगे? शंकाकार कहता है कि यह तो आगम में लिखा है कि यज्ञ आदिक में प्राणियों का वध करना पुण्य का कारण है, धर्मरूप है, मोक्ष का मार्ग है । वेद आगम तो अपौरुषेय हैं । उसका कोई कर्ता हो तो आगम में दोष होता । यहाँ कर्तापन का दोष नहीं । किसी शास्त्र को कोई बनाये तो उसमें यह संभव है कि वह कर्ता रागद्वेषवश गलत भी लिख सकता है पर वेद तो किसी पुरुष ने बनाया नहीं है, उसमें प्रमाणता का संदेह ही नहीं हो सकता और उस वेदागम में प्राणियों के वध को धर्म माना है । इसलिए उनके रचयिता प्रणेता संन्यासी अज्ञानवादी में कैसे गर्भित होंगे? उत्तर―वह प्राणिवध बताने वाला आगम-आगम ही नहीं है । आगम तो वह होता है जो सर्वप्राणियों का हित करें । जो प्राणियों के हित में प्रवृत्त नहीं है, हिंसा का विधान करने वाला है वह वचन आगम कैसे हो सकता है? दूसरी बात यह है कि अपौरुषेय माने गये आगम में कहीं कुछ कहीं कुछ, ऐसी परस्पर विरोध की बातें भी आती हैं । जैसे कभी कहते हैं कि पुष्य प्रथम हैं कहीं कहते कि पुनर्वसु प्रथम हैं, कहीं कहेंगे कि तीन वर्ष के रखे हुए धान्य के बीज से यज्ञ करना चाहिए । तो उन वचनों में स्थिरता नहीं आयी, फिर प्राणिवध को कैसे धर्म का हेतु कहा जा सकता है? प्राणिवध का निषेध स्याद्वाद शासन में भलीभाँति किया गया है । सभी जगह हिंसा से विरक्त रहना ही श्रेयस्कर है ।

(218) स्याद्वाद शासन की प्रामाणिकता व स्याद्वादशासन में हेय उपादेय सभी सिद्धांतों का प्रतिपादन―यहां कोई शंका करता है कि अरहंत देव का जो शासन है प्रवचन है वह प्रमाणभूत नहीं हो सकता, क्योंकि वह पुरुष का किया हुआ है? तो यह शंका करना ठीक नहीं है । कारण कि ये अरहंतदेव अतिशय ज्ञान के धारी हैं । ज्ञानावरण का विनाश होने पर जो आत्मा स्वच्छ सर्वज्ञ होता है उसके वचन प्रमाणभूत होते हैं । तो यह जीवादिक पदार्थों के स्वरूप का निरूपण चल रहा है । नय प्रमाण आदिक की जानकारी के उपायों से खूब कसकर निर्णीत किया गया है वह अतिशय ज्ञानधारी का कहा हुआ ही तो है, जिसमें कहीं भी किसी प्राणी का अहित नहीं बताया गया और वस्तु का जैसा स्वरूप है उसी प्रकार स्वरूप का वर्णन किया गया है । एक विशेष बात यह जाननी चाहिए कि जगत में जितने भी सिद्धांत फैले हैं वे सब अरहंतदेव के द्वारा बताये गए हैं । जैसे पाप का स्वरूप भी भगवान ने बताया, पुण्य का स्वरूप भी भगवान ने बताया, ऐसे ही वस्तु का स्वरूप किन दृष्टियों से ठीक है, वह भी बताया और उनका एकांत होने पर एक सिद्धांत बनता है यह भी बताया है । तो जितने भी सिद्धांत आज प्रसिद्ध हैं वे सब अरहंत भगवान के प्रवचन से निकले हुए हैं । कोई यहाँ यह शंका न रखे कि यह श्रद्धावश ही कहा जा रहा है । युक्ति से विचारें तो सही न बैठेगा । यह शंका यों न करना कि जब यह इसमें ज्ञानावरणादिक कर्मों से ग्रस्त है और यह कुछ ज्ञान नहीं कर पा रहा है तो जब वह आवरण सर्व दूर हो जाता है तो ज्ञानस्वभाव रखने वाले आत्मा का ज्ञान निर्दोष पूर्ण प्रकट हो जाता है । ऐसे ज्ञानी की दिव्यध्वनि से निकले हुए सर्व वचन प्रमाणरूप हैं । कहीं यह न समझना कि और जगह भी रत्न पाये जाते हैं तो रत्नाकर भूमि को ही क्यों कहा जाता? इसी प्रकार जब और जगह भी सिद्धांत पाये जाते हैं तो सर्व सिद्धांतों की खान अरहंत के प्रवचन को ही क्यों कहा जा रहा है? यह शंका यों न करना कि भले ही वे रत्न सर्वत्र भरे हुए हैं, मगर कहीं खान से निकले ही तो हैं, ऐसे ही ये सिद्धांत आज बहुत फैले हुए हैं पर इनका निर्देश स्याद्वाद शासन में किया गया है । तो कोई यह भी कह सकता है कि जब सभी दृष्टियों का कथन स्याद्वाद शासन से निकला है, ये सब सिद्धांत प्रमाणभूत हो जायेंगे तो यह बात यों युक्त नहीं है कि जैसे भूमि से रत्न निकलते हैं और भूमि से ही काँच आदिक निकलते हैं मगर कोई निःसार है, कोई सारभूत है तो ऐसे ही पाप पुण्य सबके व्याख्यान होते हैं मगर कोई सारभूत हैं, कोई साररहित हैं । जो अहिंसा से मेल खाते हैं वे सारभूत हैं और जो हिंसा से मेल कराते हैं वे साररहित हैं । तो परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन याने अनेक सिद्धांत जो प्रचलित हैं वे बंध के हेतुभूत हैं । इस तरह मिथ्यादर्शन को दो रूपों में जानना, कोई स्वयं होता है कोई दूसरे के उपदेश के कारण से होता है ।

(219) प्राणिवध की सर्वत्र हेयता―यहाँ शंकाकार कहता है कि यज्ञ कर्म के अलावा अन्य अवसरों में प्राणियों का वध करना पाप के लिए होता है । यज्ञ के लिए प्राणिवध पाप के लिए नहीं होता । इसके उत्तर में कहते हैं कि देखिये―चाहे यज्ञ का भाव रखकर प्राणिवध हो, चाहे अन्य समय हो, प्राणी को कष्ट होता ही है और जहाँ कष्ट है वहाँ हिंसा है और जब दुःख हो रहा है उस प्राणी को और यह मारने वाला उसके कष्ट को देखते हुए भी खुश हो रहा है तो यह पाप करता है और फल भी हिंसा का ही पाता है । चाहे किसी पशु का वध यज्ञ की वेदी पर हो या उस वेदी से दूर पर हो, दोनों में ही दुःख है और दुःख का हेतु होने से कोई यज्ञ विधि भी दुःख फल देने वाली है और बाहर की हुई हिंसा भी दुःख देने वाली है । शंकाकार कहता है कि मनुस्मृति में तो यह बतलाया है कि यज्ञ के लिए ही पशु रचे गए हैं, इस कारण जब पशु की रचना यज्ञ के लिए है तो पशुवध करने वालों को पाप न लगे । इसका उत्तर कहते हैं कि यह बात कहना बिल्कुल ही अयुक्त है । इसके उत्तर में कहते हैं कि यदि ऐसी हठ हो कि पशु यज्ञ के लिए ही रचे गए हैं तब फिर पशुवों का दूसरा उपयोग क्यों किया जा रहा है? पशुवों को घर में रखना, खरीदना, बेचना, उनसे काम लेना आदिक जो अन्य प्रकार का उपयोग किया जाता है फिर उसमें दोष मानना चाहिए । सो विवेकी जन यह विचार करें कि पशुवों को घर में रखने या व्यवहार करने में पाप है या यज्ञ के लिए उन्हें प्राणघात करने में पाप है ?

(220) मांसभक्षण की लोलुपता में मंत्र यज्ञविधान का जाल―शंकाकार कहता है कि मंत्र की प्रधानता होने से हिंसा का दोष न लगेगा । जैसे मंत्रपूर्वक विषभक्षण करने से मरण नहीं होता, इसी प्रकार मंत्र के संस्कारपूर्वक पशुवध किया जाने से पाप नहीं होता । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह अभिप्राय तो बहुत खोटे परिणाम को सिद्ध करता है, इसमें तो प्रत्यक्ष विरोध है । जैसे मंत्र से संस्कार किया गया विष गौरवहीन प्रत्यक्ष से ही देखा जाता है अथवा रस्सी साँकल आदिक के बंधन बिना किसी जीव या मनुष्यादिक को स्तंभन कर दिया जाता है, वहाँ स्थित कर देना यह प्रत्यक्ष से देखा जाता है, तो केवल मंत्रबल से यह सब नजर आता है । इसी प्रकार यदि केवल मंत्रों से यज्ञकर्म में पशुवों को डाला जाने वाला देखें तो मंत्र बल की श्रद्धा करना चाहिए अर्थात् जैसे मंत्रबल से उस वस्तु को छुवे बिना ही स्तंभन आदिक बन जाते हैं ऐसे केवल मंत्र से ही वे पशु यज्ञ में पहुंच जाये तब तो कुछ इस पर विचार करने लगें, पशु को जबरदस्ती ही ढकेल कर जलती हुई अग्नि में लोग पटकते हैं तो मंत्रबल कहाँ रहा? मंत्रबल तो तब कहलाता कि यहाँ मंत्र पढ़ रहे और वहाँ पशु अपने आप अग्नि में गिर रहा हो । नहीं तो केवल तुम्हारा कपट है । मांस खाने के लोलुपी व्यवहार में भी अच्छे माने जाये और माँस भी खाने को मिले, केवल इस लालसा और कपट से यह पशुबलि का ढोंग रचा गया है । जैसे शस्त्रादिक से प्राणियों को मारने वाले खोटे भाव होने से पाप से बंधे जाते हैं, ऐसे ही मंत्रों के द्वारा भी पशुओं को मारने वाले लोग खोटे कर्मों का बंध करते, हिंसा का दोष टाल नहीं सकते । पुण्य और पाप के बंध के जो कारण हों वे पुण्य पाप कर्म का बंध करते ही हैं । शुभभाव होने से पुण्य कर्म का बंध होता है और अशुभ भाव होने से पापकर्म का बंध होता है । सो इस बात को कोई मना नहीं कर सकता । यदि पुण्य पाप बंध के नियत कारणों में फेर कोई कर दे तब तो दंध और मोक्ष की प्रक्रिया ही खतम हो जायेगी ।

(221) एकांतदर्शन में यज्ञकर्तृत्व की अनुपपत्ति―अच्छा ये यज्ञ में पशुवध करने को पुण्य मानने वाले यह बताये कि अग्नि हवन आदिक क्रियावों का करने वाला कौन है अथवा कोई भौतिक वस्तु है या पुरुष है? यदि भौतिक पिंड देह अग्नि हवन का कर्ता है तो ये देहादिक तो अचेतन हैं घट आदिक की तरह सो इस शरीर में, इस भौतिक पिंड में पुण्य पापरूप क्रिया का अनुभव नहीं होता इसलिए यह तो कर्ता हो ही नहीं सकता । अब रहा पुरुष याने जीव, सो वह अनित्य है या क्षणिक है यह बताओ? याने अग्नि हवन आदिक क्रियावों का करने वाला यदि जीव है तो वह नित्य है या अनित्य? यदि कहा जाये कि वह अनित्य है, क्षणिक है तो क्षण । भर को आत्मा हुआ, फिर न रहा, मंत्र कौन बोलेगा? उसके अर्थ का कौन स्मरण करेगा? उसका प्रयोग कौन करेगा? वह तो एक क्षण को ही हुआ और नष्ट हो गया, तो ये सारे कार्य हो ही नहीं सकते । मनन बन सकेगी, न क्रिया हो सकेगी । इस यज्ञ कर्ता जीव को क्षणिक मानने पर कर्तापन नहीं बनता । यदि कहा जाये कि उस यज्ञ हवन आदिक का कर्ता पुरुष नित्य है तो नित्य के तो मायने यह हैं कि हमेशा एकसा ही रहे । उसमें कुछ भी बदल न हो । तो पहले और बाद में समय में जब वह एक समान ही रहा तो उसमें कोई क्रिया हो ही नहीं सकती । तो कर्तृत्व तो दूर से ही हट गया । तो जब कर्तापन बन नहीं सकता तो क्रिया का फल कैसे प्राप्त होगा? और फिर जो यह कहा है पुरुष के बारे में कि दुनिया में जो कुछ दिख रहा है या सत् है, हुआ था, होगा, वह सब यह पुरुष ही है । तो जब एक पुरुष का एकांत मान लिया गया तो फिर वहाँ यह बध्य है, यह मारने वाला है, यह कोई विवेक ही न बन सकेगा कि कौन क्या कर रहा है? कुछ भी नहीं, क्रिया भी न बन सकेगी ।

(222) निज-निज स्वरूपास्तित्वमय जीवों का अपनी-अपनी योग्यता से विविध विपरिणमन―पुरुष को अपरिणामी चेतनाशक्ति मात्र मानती है तो फिर दिखने वाला यह नानारूप जो जगत है यह फिर न ठहरेगा, इस कारण पुरुष को सर्वथा एक मानना, नित्य मानना यह वस्तुस्वरूप के विरुद्ध है । अथवा जब एक ही रहा और चेतना शक्तिमात्र रहा तो न कुछ प्रमाण कहलायेगा और न कुछ प्रमाणाभास कहलायेगा, क्योंकि प्रमाण व प्रमाणाभास का भेद बाह्यपदार्थ की प्राप्ति अप्राप्ति पर निर्भर है सो मानते नही । तो ऐसे निर्विकल्प जीव तत्त्व की, पुरुषतत्त्व की कल्पना करने पर जब वह निर्विकल्प है ऐसा विकल्प होता तो निर्विकल्पैकांत कहां रहा? यदि निर्विकल्प का विकल्प नहीं तो निर्विकल्प कहां रहा, ऐसे ही संकरदोष होना, वचनविरोध होना ये अनेक दोष वहाँ आते हैं । इस कारण जो विषयतृष्णा से व्याकुल पुरुष हैं उनके द्वारा माने गए हिंसादिपोषक वचन प्रमाणभूत नहीं हैं । इस तरह परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शन के भेद अनेकों, हजारों, लाखों प्रकार के समझना चाहिए । आत्मा की दृष्टि से तो मिथ्यादर्शन के विकल्प अनगिनते हैं । अनुभाग की दृष्टि से याने फल शक्ति की दृष्टि से वे अनंत हैं । तो जो दूसरा नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है सो भी अनेक प्रकार का है । स्वामी के भेद से एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चौइंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञी तिर्यंच म्लेच्छ पुरुष आदिक के भेद से उनके अभिप्रायों के फर्क से अनेक प्रकार के हैं ।

(223) मिथ्यात्व की पंचविधता―यह प्रकरण बंध के हेतु का चल रहा है । कर्मबंध के कारण क्या-क्या भाव हैं उनमें सूत्रोक्त प्रथम मिथ्यादर्शन का विवरण चल रहा है । यह मिथ्यादर्शन 5 प्रकार से भी देखा जाता है―(1) एकांत, (2) विपरीत, (3) संशय, (4) वैनयिक और (5) अज्ञान । एकांत मिथ्यात्व किसे कहते हैं? किसी भी धर्म या धर्मी का एकांत विकल्प करना, यह ऐसा ही है और उसके प्रतिपक्षभूत अन्य धर्मों को मना करना यह एकांतमिथ्यात्व है । जैसे यह सारा जगत एक पुरुष ही है ऐसा एकांत करना और सर्व सतों का लोप करना यह एकांतमिथ्यात्व है अथवा जीव को सर्वथा नित्य ही मानना या सर्वथा अनित्य ही मानना आदिक अनेक एकांत मिथ्यादर्शन होते हैं । विपरीत मिथ्यात्व क्या है? जैसे कोई साधु परिग्रह रखता हो और उसे निर्ग्रंथ बताना, प्रभु केवलज्ञानी अरहंत को कवलाहार करने वाला बताना, स्त्री की मुक्ति बताना आदिक जो विपरीत कथन हैं, अभिप्राय है वह विपरीत मिथ्यादर्शन है । संशयमिथ्यात्व―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है या नहीं, ऐसी बुद्धि की द्विविधा करना, ऐसा ही अन्य तत्त्व के बारे में यह ऐसा है या नहीं, इस प्रकार की द्विविधा बुद्धि में रखना संशयमिथ्यात्व है । वैनयिकमिथ्यात्व―सभी देवताओं का, सभी धर्मों का एक समान विनय करना, उन सबको सही समझना यह वैनयिक मिथ्यात्व है । अज्ञानमिथ्यात्व―वह हितरूप है, यह अहितरूप है इस प्रकार की परीक्षा करने की क्षमता ही न हो, अज्ञान बसा हो यह अज्ञानमिथ्यात्व कहलाता है । इस प्रकार बंध के कारणों में मिथ्यादर्शन के संबंध में कुछ वर्णन किया ।

(224) बंधहेतुभूत अविरति कषाय योग व प्रमादों का निर्देश―अब अविरति आदिक के संबंध में कुछ वर्णन करते हैं । अविरति 12 प्रकार की होती है―6 विषय अविरति और 6 काय अविरति । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण तथा मन―इन 6 के विषयभूत पदार्थों में आसक्त रहना, इनसे विरक्त न हो सकना सो अविरति कहलाता है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय, इनकी हिंसा से विरक्त न होना यह हिंसा अविरति कहलाती है । इस प्रकार अविरति भावना 12 प्रकार की होती है । यह कर्मबंध के हेतुभूत है । कषाय 25 होती हैं, उनमें 16 तो कषाय हैं और 9 ईसत कषाय हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें होती हैं और ये प्रत्येक मिथ्यात्व का पोषण करने वाली, संयमासंयम को न होने देने वाली, संयम का घात करने वाली और आत्मा के यथार्थस्वरूप को प्रकट न होने देने वाली ऐसी चार-चार प्रकार की कषायें होती हैं । यों कषाय के 16 भेद हैं―नोकषाय―हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, ये 9 भाव होते हैं, योग 15 होते हैं―4 मनोयोग―(1) सत्यमनोयोग, (2) असत्यमनोयोग, (3) उभयमनोयोग, (4) अनुभय मनोयोग, ऐसे 4 प्रकार के मन का आलंबन कर जो परिस्पंद होता है, आत्मचंचलता होती है वह मनोयोग है । चार वचनयोग―(1) सत्यवचनयोग, (2) असत्यवचनयोग, (3) उभयवचनयोग, (4) अनुभयवचनयोग और 7 काययोग―(1) औदारिक काययोग, (2) औदारिक मिश्र काययोग, ये मनुष्य और तिर्यंचों के शरीर परिस्पंदविषयक योग हैं, (3) वैक्रियक काययोग, (4) वैक्रियक मिश्रकाययोग, ये देव और नारकियों के शरीरविषयक योग हैं । (5) एक कार्माण काययोग है । विग्रहगति के जीव के कर्मनिमित्तक योग होता है, (6) एक होता है आहारक काययोग, (7) एक होता है आहारक मिश्र काययोग, जो प्रमत्तविरत मुनि के संभव है । ये सब योग कर्मबंध के कारणभूत होते हैं । प्रमाद अनेक प्रकार का होता है । जैसे आठ प्रकार की शुद्धियों में उत्साह न होना, अनादर होना प्रमाद है―भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि अर्थात् देख-भालकर चलना भैक्ष्यशुद्धि, शयनासनशुद्धि, प्रतिप्ठापनशुद्धि शुद्धि, याने किसी भी वस्तु को हिंसारहित जगह पर देखभाल कर धरना और वाक्यशुद्धि, इन आठ प्रकार की शुद्धियों में प्रमाद करना और क्षमा, मार्दव आर्जव, शौच, सत्य संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य―इन दसलक्षण धर्मों में उत्साह न होना, अनादर होना, यह प्रमाद कहलाता है । प्रमाद के अनेक भेद होते है, फिर भी इनका संक्षेपरूप किया जाये तो प्रमाद 15 प्रकार के होते हैं । 5 इंद्रिय के विषयों की रुचि होना, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के वश रहना, स्त्रीकथा, राजकथा, देशकथा और भोजनकथा इन चार प्रकार की विकथाओं में उल्झे रहना, निद्रा एवं स्नेह ऐसे प्रमाद के 15 भेद होते हैं । इन 15 भेदों में एक के साथ एक रखकर बदलकर इनके 80 भेद हो जाते हैं । तो ये प्रमाद के प्रकार कर्मबंध के हेतुभूत हैं ।

(225) गुणस्थानों के अनुसार बंधहेतुवों का घटन―जहाँ प्रमाद नहीं है और कषाय है वह कषाय इस सूत्र में विवक्षित है । कषाय तो मिथ्यादर्शन आदिक सबके साथ है पर ऐसी भी कषाय होती है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद ये तीनों नहीं हैं और कषाय चल रही है, तो अभी जो यह कहा गया है इसको गुणस्थान के अनुसार लगाया जाता है, इस विधि में सूत्रोक्त क्रम उचित विदित होता है । मिथ्यादृष्टि के ये पांचों ही बंधहेतु पाये जाते हैं । दूसरे गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक मिथ्यात्व के बिना शेष चार बंधहेतु हैं, 5 वें गुणस्थान में अविरति, प्रमाद कषाय और योग पाये जाते हैं, छठे गुणस्थान में प्रमाद, कषाय और योग हैं, 7 वें गुणस्थान से लेकर 10 वें तक कषाय और योग हैं, और 11 वें, 12 वें, 13 वें गुणस्थान में केवल योग ही है । 14 वें गुणस्थान में बंध होता नहीं है ।

(226) प्रमाद और अविरति में भेद होने से सूत्र में दोनों के ग्रहण की सार्थकता―यहां एक शंकाकार पूछता है कि अविरत और प्रमाद में तो कोई भेद है ही नहीं, फिर अलग-अलग क्यों कहे गए हैं ? उत्तर―प्रमाद और अविरति इनमें भेद है । अविरति भाव तो किसी भी व्रत के न होने का है और प्रमाद अविरति अवस्था में भी हो सकता है और व्रत अवस्था में भी हो सकता है । जो विरत हैं, महाव्रती हैं उनके भी 15 प्रमाद संभव होते हैं । इस कारण अविरति में और प्रमाद में अंतर है । अविरतभाव तो प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक होता है । पंचम गुणस्थान में कुछ विरत भाव है, कुछ अविरत भाव है, जिसे संयमासंयम कहते हैं । और विरत याने महाव्रत सकलव्रत छठे गुणस्थान से लेकर 12 वें गुणस्थान तक है और प्रमाद अवस्था पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक होती है । तो छठे गुणस्थान में सकलव्रती मुनि हो गया है फिर भी उसके प्रमाद संभव है । प्रमाद 15 बताये गए हैं, 4 विकथा, 4 कषाय, 5 इंद्रियविषय, 1 निद्रा और 1 स्नेह । इस प्रकार प्रमाद और अविरति में भेद होने से दोनों को इस सूत्र में ग्रहण किया गया है ।

(127) कषाय और अविरति में भेद होने से सूत्र में दोनों के ग्रहण की सार्थकता―अब शंकाकार कहता है कि कषाय और अविरति में तो कोई भेद नजर नहीं आता, क्योंकि कषाय में भी हिंसा आदिक परिणाम रहते हैं और अविरति में भी हिंसा आदिक परिणाम रहते हैं । तो जब इन दोनों में कुछ अंतर नहीं है तब फिर दोनों को ग्रहण क्यों किया? एक को ग्रहण करते? उत्तर―कषाय और अविरति में भी किन्हीं दृष्टियों से भेद है । प्रथम तो कार्यकारण भेद पड़ा हुआ है । कषायें कारणभूत हैं और हिंसा आदिक अविरति कार्यभूत हैं । जैसे कि विदित होता है कि कषायों के करने के कारण अविरति भाव बनता है तो कषाय कारणरूप है और हिंसा आदिक अविरति 5 पाप कार्यरूप हैं, इस कारण इनमें अंतर है । फिर दूसरी बात यह है कि कषाय तो पहले गुणस्थान से लेकर 10 वें गुणस्थान तक होती है । कहीं अधिक, कहीं कम, कहीं और कम, किंतु अविरतिभाव प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक होता है । अविरतिभाव में विशेष अशुद्धता है? कषायभाव में विशेष अशुद्धता भी है, कम अशुद्धता भी है । इसके कितने ही दर्जे होते हैं । इस कारण कषाय और अविरति में अंतर है और इसी वजह से सूत्र में दोनों को ग्रहण किया गया है ।

(228) अनादिकर्मबंधनबद्ध जीव के कर्मबंध की उपपत्ति―अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि बंध के हेतुवों को बहुत विस्तारपूर्वक कहा गया है, पर यहाँ एक संदेह यह होता है कि आत्मा तो अमूर्त है, उसके हाथ पैर आदिक होते ही नहीं हैं । तो वे कर्म को ग्रहण करने की शक्ति कैसे रखते हैं? जैसे कोई पुरुष हाथ पैर वाला है तो कर्मों को ग्रहण करने की शक्ति रखता है, ग्रहण भी करता है पदार्थों को, परंतु आत्मा के तो अंग ही नहीं है फिर किसी वस्तु का ग्रहण करना ही नहीं बन सकता । फिर बंध कैसे हो जाता? समाधान―देखिये कर्म व आत्मा में यह पहले था, यह बाद में आया―यह अवधारण नहीं किया जा सकता, फिर इसमें ग्रहण का मतलब हाथ पैर से ग्रहण करने का सोचना ही नही है । ऐसा कोई नहीं कह सकता कि पहले आत्मा ही आत्मा था पीछे कर्म आया या पहले कर्म ही कर्म था पीछे आत्मा आया । तो जब आत्मा और कर्म के बंध के विषय में पहली बात कुछ नहीं है, अनादि से ही बंध संतति है । तो इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा को संसार अवस्था में एकांततया अमूर्त कहना गलत है । आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं है, तो संसारी आत्मा कर्मबद्ध पिंड में अवस्थित होने से कथंचित् मूर्त बन गया तो कर्मशरीर से संबंध रखने वाला यह जीव अब कर्मपुद्गल को ग्रहण कर लेता है । जैसे कि तपा हुआ लोहे का गोला चारों ओर से जल को ग्रहण कर लेता है, यही बात सूत्र में कहते हैं ।
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