प्रवचनसारः गाथा -1, 2
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार

गाथा -1

एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं /
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं // 1 //


श्रीकुंदकुंदाचार्य प्रथम ही ग्रन्थके आरंभमें मंगलाचरणके लिये नमस्कार करते हैं

[एष अहं वर्धमानं प्रणमामि ] यह जो मैं "अपने अनुभवके गोचर ज्ञानदर्शनस्वरूप" कुंदकुंदाचार्य हूँ, सो वर्धमान जो देवाधिदेव परमेश्वर परमपूज्य अंतिमतीर्थकर उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? श्रीवर्धमानतीर्थकर [सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं] विमानवासी देवोंके, पातालमें रहनेवाले देवोके और मनुष्योंके स्वामियोंकर नमस्कार किये गये हैं, इस कारण तीन लोककर पूज्य हैं / फिर कैसे हैं ? [धौतघातिकर्ममलं ] धोये हैं चार घातियाकर्मरूप मैल जिन्होंने इसलिये अनंतचतुष्टय [ अनंतज्ञान 1, अनंतदर्शन 2, अनंतवीर्य 3, अनंतसुख 4 ] सहित हैं / फिर कैसे हैं ? [तीर्थ] तारनेमें समर्थ हैं, अर्थात् भव्यजीवोंको संसार-समुद्रसे पार करनेवाले हैं। फिर कैसे हैं ? [धर्मस्य कर्तारं ] शुद्ध आत्मीक जो धर्म उसके कर्ता अर्थात् उपदेश देनेवाले हैं 

गाथा -2

सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसम्भावे /
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे // 2 //


[ पुनः अहं ] फिर मैं कुंदकुंदाचार्य [शेषान् तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् प्रणमामि ] शेष जो बचे, तेईस तीर्थकर समस्त अतीतकालके सिद्धों सहित हैं, उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? तीर्थकर और सिद्ध [विशुद्धसद्धा वान् ] निर्मल हैं, ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव जिनके / जैसे अन्तिम अग्निकर तपाया हुआ सोना अत्यन्त शुद्ध होजाता है, उसी तरह निर्मल स्वभाव सहित हैं। [च श्रमणान् ] फिर आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और वीर्य ये हैं आचरण जिनके, अर्थात् ज्ञानादिमें सदैव लीन रहते हैं, इस कारण उत्कृष्ट शुद्धोपयोगकी भूमिको प्राप्त हुए हैं / इस गाथामें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया है 

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मुनि श्री प्रणम्य सागर जी


Manish Jain Luhadia 
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#2

I make obeisance to Śrī Vardhamāna Svāmi, the Ford-maker (Tīrthańkara) and the expounder of the own-nature (svabhāva) or ‘dharma’, who is worshipped by the lords of the heavenly devas (kalpavāsī devas), other devas (bhavanavāsī, vyantara and jyotiÈka devas) and humans, and has washed off the dirt of inimical (ghātī) karmas. 

Also, I make obeisance to the remaining (twenty-three) Tīrthańkara (the Arhat), all the Liberated Souls (the Siddha) who are established in their utterly pure nature, and the Saints
(śramaõa) – the Chief Preceptor (ācārya), the Preceptor (upādhyāya), the Ascetic (sādhu) – who practise five-fold observances in regard to faith (darśanācāra), knowledge
(jñānācāra), power (vīryācāra), conduct (cāritrācāra) and austerities (tapācāra).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश 

गाथा -1,2
तर सुर असुर आदि से पूजित घातिघात कर्त्ता भगवान् । 
वर्द्धमान् तीर्थङ्कर हैं उनको मेरा हो नमन महान् ॥ 
ऐसे ही जो और तीर्थंकर होवेंगे होगये च हैं । 
केवलि सिद्ध साधु उनके चरणों में भी करबद्ध रहें ॥ १ ॥

गाथा -1,2,3,4 

सारांशः—यहाँ प्रथम वृत्तमें स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य देवने भगवान् वर्द्धमान् तीर्थङ्करको नमस्कार किया है। सो इसमें विचारकी बात यह है कि- कुन्दकुन्दाचार्य के समयमें तो श्री वर्द्धमान स्वामी आठों कर्मोंसे रहित हो चुके थे, फिर भी यहाँ पर उनके लिये घातिघातकर्ता ही क्यों कहा गया है? 
तो इसका उत्तर यह हैं कि- आत्माके द्वारा जीतने योग्य यद्यपि आठ कर्म हैं परन्तु उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इसप्रकार इन घातिया कहलानेवाले चार कर्मों पर तो प्रयत्नपूर्वक विजय प्राप्त करनी पड़ती है, बाकींके अघातिया कहलानेवाले चार कर्म तो उन पूर्वोक्त पातियाकर्मीको दूर हटा देने पर फिर समयानुसार अनायास ही इस आत्मासे दूर हो जाया करते हैं एवं धर्मतीर्थ प्रवर्तक तथा सकलज्ञ भी घातिकर्मोके नाश होते ही हो जाते हैं। इसी बातको ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री ने ऐसा लिखा है।
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