आत्म कीर्तन
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• आत्म कीर्तन

हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम,
ज्ञाता-दृष्टा आतमराम
मैं वह हूँ जो हैं भगवान,
जो मैं हूँ वह हैं भगवान
अन्तर यही ऊपरी जान,
वे विराग यहाँ राग वितान.
हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम,
ज्ञाता-दृष्टा आतमराम

यह आत्म कीर्तन जैन समाज में बहुत प्रचलित है और लगभग सभी शास्त्र सभाओं में इसे गाया जाता है तथा मुझे भी बहुत पसंद है.
इसमें मेरे अपने खुद के चैतन्यदेव के बारे में समझाया गया है.
मेरा चैतन्यदेव तो सदाकाल स्वाधीन और स्वतंत्र है,
मेरा चैतन्यदेव तो अपनी अनंत समाधि में लीन रहता हुआ निश्छल, निष्काम और ज्ञाता-द्रष्टा ही है.
अनादिकाल से आज तक जितने भी भगवान हुए हैं और होंगे,
उन सब के समान ही मैं भी भगवान ही हूँ
मेरे देह-देवालय में विराजमान निज परमात्मा के समान ही वे सभी वर्तमान में साक्षात् परमात्मा भी मेरे जैसे ही चैतन्यदेव ही हैं.
पर्यायनय से आप चाहे तो एक ऊपरी अंतर मान सकते हैं कि वे वीतरागी हैं और अभी मेरा चैतन्यदेव आपको रागी प्रतीत हो रहा है.
लेकिन सच्चाई यह है कि मेरा चैतन्यदेव भी सभी सिद्ध भगवन्तो के सामान ही शुद्ध और अपरणामी ही है.

मम स्वरूप है सिद्ध समान,
अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान
किन्तु आश वश खोया ज्ञान,
बना भिखारी निपट अजान
हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम,
ज्ञाता-दृष्टा आतमराम

मेरा चैतन्यदेव तो सदाकाल स्वाधीन और स्वतंत्र है,
मेरा स्वरुप तो उन अनंतानंत सिद्ध भगवन्तो के समान है, जो अपार, असीम और अमित शक्ति, सुख और ज्ञान के भण्डार हैं.
लेकिन अभी वर्तमान में मैंने आशा और मोह के वशीभूत होकर अपने खुद के चैतन्यदेव होने का ज्ञान खो दिया है और इसी कारण मैं त्रिलोकपति होते हुए भी भिखारी के सामान इस संसार में भटक रहा हूँ और सब से सुख, शांति और सम्रद्धि की भींख मांग रहा हूँ.
फिर भी नहीं मानते हुए भी मेरा चैतन्यदेव तो अपनी अनंत समाधि में लीन रहता हुआ निश्छल, निष्काम और ज्ञाता-द्रष्टा ही है.

सुख-दुःख दाता कोई न आन,
मोह-राग-रुष दुःख की खान
निज को निज, पर को पर जान,
फिर दुःख का नहीं लेश निदान
हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम,
ज्ञाता-दृष्टा आतमराम

मेरा चैतन्यदेव तो सदाकाल स्वाधीन और स्वतंत्र है,
मेरा स्वरुप तो उन अनंतानंत सिद्ध भगवन्तो के समान है, जो अपार, असीम और अमित शक्ति, सुख और ज्ञान के भण्डार हैं.
इस तीन लोक में भूत, भविष्य और वर्तमान में मुझे सुख प्रदान करने में कोई भी वस्तु या पदार्थ समर्थ नहीं है.
लेकिन मुझे अभी हो रहे मोह तथा राग-द्वेष ही वास्तव में मेरी दुखों की खान हैं.
अनंत सिद्ध भगवंतों द्वारा बताये निज चैतन्य स्वरुप को मैं अगर अपना निज स्वभाव मान लेती हूँ, तो फिर मुझे कभी भी लेश मात्र भी दुःख नहीं होगा.
अतः आज नहीं मानते हुए भी मेरा चैतन्यदेव तो अपनी अनंत समाधि में लीन रहता हुआ निश्छल, निष्काम और ज्ञाता-द्रष्टा ही है.

जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम,
विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम
राग त्याग पहुँचूँ निजधाम,
आकुलता का फिर क्या काम
हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम,
ज्ञाता-दृष्टा आतमराम

मेरा चैतन्यदेव तो सदाकाल स्वाधीन और स्वतंत्र है,
मेरा चैतन्यदेव तो अपनी अनंत समाधि में लीन रहता हुआ निश्छल, निष्काम और ज्ञाता-द्रष्टा ही है.
श्रीजिनदेव, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु बुद्ध, हरि आदि जितने भी भगवान के नाम हैं, उन सभी भगवन्तो के समान
इस संसार में मेरे हो रहे राग और द्वेष को त्याग कर
मैं भी उनके समान ही अब अपने मोक्षमहल के निज घर में पहुँच जाऊँगा.
फिर अब मुझे किसी भी तरह की आकुलता से क्या काम हो सकता है?
अतः मैं भी उन सब के समान ही भगवान ही हूँ
तथा मेरा चैतन्यदेव भी सभी सिद्ध भगवन्तो के सामान ही शुद्ध और अपरिणामी ही है.

होता स्वयं जगत परिणाम,
मैं जग का करता क्या काम
दूर हटो परकृत परिणाम,
सहजानंद रहूँ अभिराम
हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम,
ज्ञाता-दृष्टा आतमराम

मेरा चैतन्यदेव तो सदाकाल स्वाधीन और स्वतंत्र है,
मेरा चैतन्यदेव तो अपनी अनंत समाधि में लीन रहता हुआ निश्छल, निष्काम और ज्ञाता-द्रष्टा ही है.
इस संसार में हो रहे सभी कार्य और परिणाम तो सहज और अपने समय पर ही हो रहे हैं
तथा मेरा उसमे कोई भी कर्तत्व नहीं है.
इस तरह परद्रव्यों द्वारा किये जा रहे सभी परकृत परिणामों का मैं अब त्याग करता हूँ और अपने निज सहजानंदी परम चैतन्य में हमेशा के लिए लीन रहता हूँ.
अब मैं भी उन अनंतानंत सिद्ध भगवंतों के समान ही अब इस संसार में मेरे हो रहे राग और द्वेष को त्याग कर
अपने मोक्षमहल के निज घर में पहुँच जाऊँगी.
क्योकि मैं भी उन सब के समान ही भगवान ही हूँ
तथा मेरा चैतन्यदेव भी सभी सिद्ध भगवन्तो के सामान ही शुद्ध और अपरिणामी ही है.
अतः अब मैं भी जान गयी हूँ कि मेरा चैतन्यदेव तो सदाकाल स्वाधीन और स्वतंत्र है,
मेरा चैतन्यदेव तो अपनी अनंत समाधि में लीन रहता हुआ निश्छल, निष्काम और ज्ञाता-द्रष्टा ही है.
ॐ शांति
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