प्रवचनसारः गाथा -8, 9
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः

गाथा -8


परिणमदि जेण दव्वं तकालं तम्मय ति पण्णत्तं /
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेद्ववो // 8 //


आगे चारित्र और आत्माकी एकता दिखाते हैं

[येन द्रव्यं परिणमति ] जिस समय जिस स्वभावसे द्रव्य परणमन करता हैं, [तत्कालं तन्मयं] उस समय उसी स्वभावमय द्रव्य हो जाता है, [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। जैसे लोहेका गोला जब आगमें डाला जाता है, तब उष्णरूप होकर परिणमता है, अर्थात् उष्णपनेसे तन्मय हो जाता है, इसी तरह यह आत्मा जब शुभ, अशुभ, शुद्ध भावोंमेंसे जिस भावरूप परिणमता है, तब उस भावसे उसी स्वरूप होता है। [तस्माद्धर्मपरिणतः आत्मा] इस कारण वीतरागचारित्र (समताभाव ) रूप धर्मसे परिणमता यह आत्मा [धर्मों मन्तव्यः] धर्म जानना / भावार्थजब जिस तरहके भावोंसे यह आत्मा परिणमन करता है, तव उन्हीं स्वरूप ही है, इस न्यायसे वीतरागचारित्ररूप धर्मसे परिणमन करता हुआ वीतरागचारित्र धर्म ही हो जाता है / इसलिये आत्मा और  चारित्रके एकपना है / आत्माको चारित्र भी कहते हैं 

गाथा -9
जीबो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावो // 9 //


आगे आत्माके शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावोंका निर्णय करते हैं

[यदा जीवः] जब यह जीव [शुभेन अशुभेन वा परिणमति] शुभ अथवा अशुभ परिणामोंकर परिणमता है, [तदा शुभ अशुभो भवति] तब यह शुभ वा अशुभ होता है। अर्थात् जब यह दान, पूजा, व्रतादिरूप शुभपरिणामोंसे परिणमता है, तब उन भावोंके साथ तन्मय होता हुँमा शुभ होता है, और जब विषय, कषाय, अवतादिरूप अशुभभावोंकर परिणत होता है, तब उन माफोके साथ उन्हीं स्वरूप हो जाता है / जैसे स्फटिकमणि काले फूलका संयोग मिलनेपर काला ही हो माता है। क्योंकि स्फटिकका ऐसा ही परिणमन-स्वभाव है / उसी प्रकार जीवका भी समझना / [शुद्धेन तदा शुद्धो भवति] जब यह जीव आत्मीक वीतराग शुद्धभावस्वरूप परिणमता है, तब शुद्ध होता है / जैसे स्फटिकमणि जब पुष्पके संबंधसे रहित होता है, तब अपने शुद्ध (निर्मल) भावरूप परिणमन करता है / ठीक उसी प्रकार आत्मा भी विकार रहित हुआ शुद्ध होता है। इस प्रकार आत्मा के तीन भाव जानना |


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी


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#2

Gatha-8 
Lord Jina has expounded that the particular state or modification of the substance is its nature (dharma) at that time. 
Therefore, the soul that is in the state of conduct-without attachment (vītarāga cāritra) or equanimity (sāmya) is to be known as its nature (svabhāva or dharma).

Explanatory Note: 
When an iron ball is heated, it becomes one with heat. Similarly, when the soul entertains auspicious (śubha), inauspicious (aśubha) or pure (śuddha) dispositions, it becomes one with these dispositions. The soul (ātmā) is one with conduct (cāritra). 
The soul (ātmā) is conduct (cāritra). 

Gatha-9 
When the soul entertains auspicious (śubha) or inauspicious (aśubha) dispositions, it becomes auspicious (śubha) or inauspicious (aśubha). When the soul entertains pure (śuddha) disposition – conduct-without-attachment (vītarāga cāritra) – it turns into the pure (śuddha) soul. Thus, the soul, by nature (svabhāva), undergoes three kinds of modifications (parināma). 

Explanatory Note: 
When the soul entertains auspicious (śubha) dispositions like charity, adoration of the Supreme Beings, and observance of vows, it becomes auspicious (śubha). When the soul entertains inauspicious (aśubha) dispositions like sense, indulgence, passions, and non-observance of vows, it becomes inauspicious (aśubha). A coulourless crystal acquires black tinge when placed in contact with black flower; such is the nature of the
crystal. It regains its colourless nature when separated from the black flower. The soul too gets to its pure (śuddha) nature when separated from the auspicious (śubha) or inauspicious (aśubha) dispositions.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -7,8
जो शमभावरूप होता है वहीं धर्म है कहलाता ।
मोहसोभविहीन आत्मपरिणाम जैनमत याँ  गाता  ॥
धर्मरूप परिणत आत्मा भी धर्म कहा जा सकता है।
क्योंकि भावसे भाववान तन्मयता तत्क्षण रखता है ॥ ४ ॥

गाथा -9,10
यहाँ शुभाशुभशुद्धरूपसे तीन तरह परिणमन करे
है परिणमन स्वभाव चेतन जो कि तदा तत्राम धरे ॥
वस्तु बिना परिणाम और परिणाम विना न वस्तु कोई
क्योंकि द्रव्य गुण पर्ययवाली वस्तु वही जो हो सोई ॥ ५ ॥

गाथा -7,8,9,10

सारांश:- ज्ञानके द्वारा जाननेमें आवे उसे वस्तु या अर्थ कहते हैं, वह द्रव्य गुण और पर्यायात्मक सत्ताको स्वीकार किये हुए सद्रूप होता है। जो अपने आपको स्वीकार करते हुए भी औरसे और रूपमें होता रहे उसे द्रव्य कहते हैं। उस द्रव्यको स्थित रखनेवाली शक्तिको गुण और उसके परिवर्तनको पर्याय कहते हैं। ये तीनों बातें जहाँ पर हों वह वस्तु ज्ञानका विषय हुआ करती है। अब यहाँ पर एक बात विचारणीय है, वह यह है कि
गुण और पर्याय ये दोनों बातें जिसमें हों वह द्रव्य होता है। उसी को वस्तु कहते हैं और वहीं ज्ञानका विषय होता है, ऐसा हरएक विद्वान् मानता है परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों बातें जिसमें हों वह वस्तु ज्ञानका विषय होती है। मानलो हमारे सम्मुख एक चीज आई जो हमारे अनुभवमें इसप्रकार आती हैं कि
यह एक खट्टे रसवाला आम है। इसमें आम तो विकारी द्रव्य है। जिसका रस गुण है और खट्टापन उस रस गुणकी पर्याय है। सो वहाँ पर वह उस आमका रसगुण खट्टेपन मात्र ही नहीं, किन्तु उससे अधिक दायरेवाला है। वहाँ खट्टापन मिटकर मोठापन आनेवाला है। इसीप्रकार आम भी रसगुण मात्र ही न होकर वह उससे भिन्न कहलानेवाले रूप, स्पर्श, गन्धादि अनेक गुणोंका पुञ्ज है। जिससे रसगुण कथञ्चित् भिन्न है, जो कि रसना इन्द्रियके द्वारा पहिचाना जाता है एवं द्रव्य, गुण पर्याय ये तोनों हमारी दृष्टिमें भिन्न भिन्न होकर भी ऐसे भिन्न नहीं है कि उनको हम देशापेक्षया भी भिन्न कर सकें जिस प्रदेश अर्थात् वस्तुमें खट्टेपनको लिए हुए हमें रसका अनुभव होता है, वहीं पर उसके साथ साथ इतर स्पर्शादि गुणोंके पुञ्जात्मक आमका भी अनुभव हो रहा है। वस्तु परिणमनशील होती है। जो अपने परिणमन के साथमें तादात्म्य, अभिन्न भावको लिए हुए हुआ करती है। वस्तुमें हरसमय कोई न कोई परिणमन अवश्य होता ही है। वस्तुको छोड़कर परिणमन नहीं होता है। इसीप्रकार परिणमनके बिना वस्तु भी स्थित नहीं रह सकती है।

आत्मा भी वस्तु है अतः परिणमनशील है। जिसका परिणमन शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन तरहका होता है और जब जैसा परिणमन होता है उस समय वह आत्मा ही स्वयं वैसा बन जाता है। शुभ परिणमनके समय शुभ तथा अशुभके समय अशुभ और शुद्धके समय यह आत्मा हो शुद्ध हो जाता है।
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