प्रवचनसारः गाथा -37 पर्याय का अर्थ
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः 
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार


गाथा -37 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -38 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


तकालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि /
वटते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं / / 37 //


अन्वयार्थ- तेसिं दव्वजादीणं) उन द्रव्य जातियों की ते सव्वे) समस्त सदसल्भूदा हि) वामान और अविद्यमान (पज्जया) पर्यायें (तक्कालिकेव) तात्कालिक पर्यायों की भाँति (विसेसदी) विशिष्टता पूर्वक (णाणे वट्टते) ज्ञान में वर्तती हैं।

आगे कहते हैं, कि अतीत कालमें हुए द्रव्योंके पर्याय और अनागत (भविष्यत्) कालमें होनेवाले पर्याय, ज्ञानमें वर्तमान सरीखे प्रतिभासते (मालूम पड़ते ) हैं-[तासां द्रव्यजातीनां उन प्रसिद्ध जीवादिक द्रव्य जातियोंके [ते सर्वे] वे समस्त [सदसद्भूताः] विद्यमान तथा अविद्यमान [पर्यायाः] पर्याय [हि] निश्चयसे [ज्ञाने] ज्ञानमें [विशेषतः] भिन्न भिन्न भेद लिये [तात्कालिका इव] वर्तमानकाल संबंधी पर्यायोंकी तरह [वर्तन्ते] प्रवर्तते हैं। भावार्थ-जैसे किसी चित्रकारने (चितेरेने) चित्रपटमें बाहुबली-भरतादि अतीतपुरुषोंका चित्र बनाया, और भावीकाल सम्बन्धी श्रेणिकादि तीर्थंकरका चित्र बनाया, सो वे चित्र उस चित्रपटमें वर्तमानकालमें देखे जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञान चित्रपटमें जो पर्याय होचुके, तथा जो आगे होनेवाले हैं, उनका वर्तमान प्रतिबिम्ब भासता है। यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि " वर्तमानकालके ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें प्रतिबिम्बित हो सकते हैं, परंतु जो हो चुके हैं, तथा जो होनेवाले हैं, उनका प्रतिभास होना असंभव मालूम होता है / " उसका समाधान यह है कि जब छद्मस्थ ज्ञानी (अल्पज्ञानी) तपस्वी भी योगबलसे वा तपस्याके प्रभावसे ज्ञानमें कुछ निर्मलता होनेसे अतीत अनागत वस्तुका विचार करलेते हैं, तब उनका ज्ञान अतीत अनागत वस्तुके आकार होजाता है, वहाँपर वस्तु वर्तमान नहीं है। तैसे निरावरणज्ञानमें (जिसमें किसी तरहका आच्छादन न हो, बिलकुल निर्मल हो ऐसे ज्ञानमें ) अतीत अनागत वस्तु प्रतिभासे, तो असंभव नहीं है। ज्ञानका स्वभाव ही ऐसा है / स्वभावमें तर्क नहीं चल सकता |


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 37

पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या 37 की वाचना से आप जानेंगे कि
* जीव द्रव्य में घटित होने वाली अनेक परिणितियों का नाम ही पर्याय है।
* द्रव्य की पर्याय निरंतर उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं।
* केवलज्ञानि के ज्ञान मेन वह पर्यायों का समूह (भूत,भविष्य,वर्तमान) स्पष्ट दिखता है।
* पर्याय से जुड़ाव रख कर हमें बहुत दुःख पहुँचता है। इसलिए हमेशा द्रव्य दृष्टि रखनी चाहिए।
* पर्याय को केवल पर्याय की दृष्टि से देखेंगे तो दुःख से दूर रह पाएँगे।

Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 37 
Certainly, all modes – present and not-present – of those types of substances (dravya) subsist in the (infinite) knowledge (kevalajñāna), as if in the present.

Explanatory Note: 
When an artist draws the figure of a past luminary, like Bāhubali or Bharata, or of a future luminary, like Tīrthańkara Padmanābha (future incarnation of King Śreõika), these are seen in the present. In the same way, the knowledge mirror reflects, in the present, the substances of the past and the future. How is it possible? An advanced ascetic who has attained, through austerity, the purity of his soul is able to know the past and future modes of a substance (an individual, for example); his knowledge at that time takes the form of that mode. If the Omniscient, who has attained infinite knowledge through ultimate purity of his soul, knows all modes of all substances, there is nothing ‘impossible’ in this. This is the nature of knowledge, and the nature of a substance is beyond logical argument.

Taken from . Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -37,38
तात्कालिक पर्याय की तरह भूत भावि पर्याय भी
झलका करती है सुबोध द्रव्यों की सारी के भी
जो न अभी हो पाई हो या होकर नष्ट हो चुकी हों।
असद्भूत वे पर्यायें भी गोचर स्फुट ज्ञानकी हों ॥ 19॥


गाथा -37,38,39,40
सारांश:- मान लो एक घास की टाल लगी हुई थी। उसमें बिजली का करेण्ट लगकर आग हो गई। अब देखने वाला देखता है कि वह कुछ देर पहिले यहाँ घास थी, अब आग बन गई और थोड़ी देर में वह भस्म हो जायेगी। इस प्रकार सर्व साधारण जब भूत भविष्यत और वर्तमान पदार्थ को पर्यायों को जानता है तब केवली का तो कहना ही क्या?

शङ्काः -पदार्थ की वर्तमान दशा की तरह अतीत अनागत अवस्था का ज्ञान होता है इस बात का कौन निषेध करता है किन्तु वर्तमान का तो प्रत्यक्ष और भूत भविष्यत पर्याय का स्मरण वगैरह हो सकता है जैसा कि ऊपर वाले उदाहरण से भी स्पष्ट है। प्रश्न तो केवल इतना ही है कि जो अभी है ही नहीं, उसका भी प्रत्यक्ष हो जावे, यह कैसे हो सकता है?
उत्तरः- प्रत्यक्ष ज्ञान कई प्रकार का होता है। इन्द्रियों के  द्वारा पदार्थ का सत्रिकर्ष होकर जो ज्ञान होता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं जैसे कि हम जीभ से चखकर आम के खट्टेमीठेपन को जान जाते हैं यह ज्ञान तो वर्तमान वस्तु का ही होता है, सो सही बात है। दूसरा मानसिक प्रत्यक्ष होता है। जब किसी मनुष्य का मन किसी चीज पर दृढता से लगा हुआ होता है तब वह वस्तु दूर रह करके भी उसके सम्मुख नाचती हुई सी प्रतीत होती है, इसको स्वसंवेदन ज्ञान भी कहते हैं।

तीसरा ज्ञान योगी प्रत्यक्ष होता है जो योगियों को अपने योग बल के द्वारा लोगों के जन्म जन्मान्तर की और सुदूर देशान्तर की बात को भी स्पष्ट रूप से दिखलाया करता है। स्थूल से स्थूल और निकट से निकट रहने वाली चीज को तेज से तेज आँखों वाला मनुष्य भी इतना स्पष्ट नहीं देख सकता है जितना स्पष्ट एक महर्षि अपने अनिन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूर से दूर रहने वाली चीज को भी देख लेता है।

यह ज्ञान इन्द्रियादि बाह्य कारणों की अपेक्षा न रखकर पूर्णरूप से आत्माधीन होता है, इसलिये वास्तविक प्रत्यक्ष यही होता है क्योंकि अक्ष नाम भी आत्मा का है, ऐसा संस्कृत के कोशकारोंने  बताया है। एवं अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति नियत होता है वह प्रत्यक्ष है ऐसा अर्थ ठीक हो जाता है। इसी को पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान परमार्थ के ज्ञाता ऋषियों के ही होता है।

यदि अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय माना जावे तो फिर यह उपर्युक्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं ठहरता है क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता है। इन्द्रियाधीन परतंत्र ज्ञान को प्रत्यक्ष कहना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है। अतः आत्म तंत्र ज्ञान ही उसके अधिक सन्निकट एवं सहज तथा सरल होता है। वह ज्ञान चराचर सब जीवों को स्पष्ट जानता है, यही बताते हैं
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