तत्वार्थ सुत्र अध्धाय-३ १से६तक
#1
Heart 

अध्याय ३
अधो लोक -




सात पृथिवियाँ (सात नरक)
रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयोघनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाःसप्तोऽधोऽधः ॥१॥
संधि-विच्छेद :

रत्न+शर्करा+बालुका+पङ्क+धूम+तमो+महातमः+प्रभा+भूमय:+घन+अम्बु+वात+आकाश+प्रतिष्ठाः+सप्त+ऽधोऽधः
शब्दार्थ-रत्न-रत्नो,शर्करा-शर्करा,बालुका-बालुका,धूम-धूम,पङ्क-कीचड़,तमअन्धकार,महातम-घोरअन्धकार की प्रभा-कांति के समान सात पृथिवीयाँ है,घनाम्बुवाता-घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुवातवलय, आकाश-आकाश के, प्रतिष्ठा:-आधार से है !
भावार्थ-अधोलोक में रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा,पङ्कप्रभा,धूमप्रभा,तमप्रभा और  महात्मप्रभा क्रम से एक के  नीचे दूसरी ,दूसरी के नीचे तीसरी ;इस प्रकार सात पृथिवियाँ मे क्रमश: धम्मा ,वंशा ,मेधा, अंजना, अरिष्टा,मधवा और माधवी सात नरक,नारकियों के निवास स्थान ८४लाख बिल है !सभी पृथिवियाँ घनोदधि वातवलय के आधार है,घनोदधि ,घनवातवलय के आधार और घनवातवलय  तनुवातवलय के आधार है,तनुवातवलय का आधार आकाश है!आकश सबसे बड़ा और अनन्त है इसलिए 
स्वयं का  आधार है इसका अन्य कोई आधार नहीं   है !
सात पृथिवियोँ  में नरको(बिलों) की संख्या -
तासुत्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्राणिपञ्चचैवयथाक्रममम् ॥२॥
संधि विच्छेद -

तासु+त्रिंशत्+पंचविंशति+पंचदश+दश+त्रि+पंचोनैक+नरक+शत+सहस्राणि+पञ्च+च+एव्+यथाक्रममम्
शब्दार्थ-
तासु-उन-पृथिवियों के नरको में, त्रिंशत्-३x१०=तीस ,पंचविंशति-पच्चीस ,पंचदश-पद्रह,दश-दस,त्रि-तीन,पंचोनैक-पांच कम एक लाख,नरक-बिल,शत(सौ),सहस्राणि-(हज़ार)अर्थातलाख पञ्च-पांच,एव +यथाक्रममम् -क्रमश :!
भावार्थ-अधोलोक में उन पृथिवियों;रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा,पङ्कप्रभा,धूमप्रभा,तमप्रभा और  महातम प्रभा में क्रमश ;३०लाख,२५लाख,१५लाख,१०लाख,३ लाख और एक लाख में ५ कम अर्थात ९५००० तथा ५  बिल है !
विशेष -
१-इस अध्याय में अधोलोक/मध्य लोक का वर्णन आचार्य उमा स्वामी जी ने किया है!आकाश और  लोकाकाश दो आकाश है!जहाँ तक आकाश द्रव्य में छ द्रव्य व्याप्त है वह लोकाकाश है,वही ३४३ घन रज्जु का हमारा अकृत्रिम,अनादि निधन,स्वभाव से निर्मित लोक है!लोकाकाश,आकाश के बीचोबीच अवस्थित है!इस लोक के तीन अधो,मध्य और उर्ध्व भाग है!अधोलोक में नारकी ,भवनवासी और व्यंतर देवों ,मध्य लोक में व्यंतर,ज्योतिष्क देवों,तिर्यंच और मनुष्य तथा उर्ध्व लोक में वैमानिक देवों का वास है!!मन्दरांचल के नीचे क्षेत्र ,अधो लोक है इसमें सात पृथिवियाँ में सात नरक है!
२- रत्नप्रभा पृथिवि १,८०,००० योजन मोटी है,ये तीन खर,पंक और अब्बहुल भागों में विभक्त है जिनकी मोटाई क्रमश:१६०००,८४००० और १००००० योजन है !खरभाग के प्रथम और अंतिम १००० योजन छोड़कर १४००० योजन में  राक्षसों के अतिरिक्त शेष ९ प्रकार के भवनवासी देव और ७ प्रकार के व्यंतर देव रहते है पंक भाग में असुरकुमार और राक्षस रहते है!अब्बहुल भाग में प्रथम धम्मा नरक है,जिसमे ३०००० बिलों,१३ पटल  में १०००० वर्ष  की जघन्य आयु और १ सागर उत्कृष्ट आयु के बंध के साथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल लम्बे नारकी रहते है !इस पृथ्वी में जीव लगातार ८ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है ,असंज्ञी जीव १ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
-शर्करा प्रभा पृथिवि मे ,वंशा नरक है, मोटाई ३२००० योजन है,इसके २५ लाख  बिलों,११ पटल   में ३ सागर उत्कृष्ट और १ सागर+१ समय  जघन्य  आयु के बंध के साथ  ५ धनुष २ हाथ और १२ अंगुल लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार ७  बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है ,सरी सृप जीव २  कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
४ -बालुकाप्रभा पृथिवि में मेधा नरक है,जिस की मोटाई २८००० योजन है,इसके १५ लाख  बिलों,९ पटल में ७ सागर उत्कृष्ट और ३  सागर+१ समय  जघन्य  आयु के बंध के साथ  ३१  धनुष १ हाथ  लम्बे नारकी रहते है जीव लगातार ६  बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है,पक्षी  ३  कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
५-पङ्कप्रभा पृथिवि में  अंजना नरक है, जिस की मोटाई २४००० योजन है,इसके १०  लाख  बिलों  ७ पटल में १० सागर उत्कृष्ट और ७  सागर+१ समय  जघन्य  आयु के बंध के साथ ६२ धनुष २ हाथ  लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार ५ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मोक्षगामी हो सकते है ,भुजङ्गादि  जीव १ योजन  उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
६-धूमप्रभा पृथिवि में अरिष्टा  नरक है जिसकी मोटाई २०००० योजन है,इसके ३ लाख  बिलों ५ पटल  में १७ सागर उत्कृष्ट और १०सागर+१ समय  जघन्य आयु के बंध के साथ १२५ धनुष लम्बे नारकी रहते है! जीव लगातार ४ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मुनि/सकलसंयमी हो सकते है,सिंह  जीव २ योजन  उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
७-तमप्रभा पृथिवि  में मधवा नरक है जिसकी मोटाई १६००० योजन है,इसके ५ कम १  लाख  बिलों ३  पटल में २२  सागर उत्कृष्ट और १७ सागर+१ समय  जघन्य  आयु के बंध के साथ २५० धनुष लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार ३ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर देशविरति हो सकते है,स्त्री जीव ३  योजन  उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
८-महातमप्रभा पृथिवी में माधवी नरक है जिसकी मोटाई ८००० योजन है,इसके ५  बिलों, १ पटल में ३३  सागर उत्कृष्ट और २२ सागर+१ समय  जघन्य आयु बंध के साथ ५००  धनुष लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार २  बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मिथ्यादृष्टिं तिर्यंच  हो सकते है, मत्सय एवं पुरुष   जीव १००  योजन  उपपाद व्यास तक उत्पन्न  हो सकते है !
९-तीनो  वातवलय- घनोदधि ,घनवातवलय और घनवातवलय तनुवातवलय लोक के आधार दक्षिण में २००००-२००००  योजन मोटाई है तीनों की मोटाई कुल ६०००० योजन है !सातवे नरक को दोनों तरफ पार्श्व भाग  ऊपर मध्य लोक तक ७,५. और ४ योजन क्रम  से है अर्थात घनोदधि ७ योजन मोटा,घन ५  और तनु ४ योजन मोटा है !आगे मध्य लोक में दोनों  पार्श्व  क्रम  से ५,४  योजन मोटाई के तीन वातवलय है ,आगे ५ वे  ब्रह्म स्वर्ग के दोनों पार्श्व में तीनो क्रमश:७,५,योजन मोटे है!ब्रह्म स्वर्ग से ऊपर जाते हुए लोक अंतिम भाग में दोनों पार्श्व भाग में तीनो वातवलय की क्रमश :५,४ और ३ योजन कुल १२ योजन मोटाई है !लोक के ऊपर शिखर पर चक्र के आकार घनोदधि वातवलय की मोटाई २ कोस =४००० महा धनुष,घन वातवलय १ कोस =२००० महा धनुष   वातवलय १५७५ महा धनुष मोटा है !घनोदधि वातवलय गौ मूत्र के रंग समान वर्ण का है!घनवातवलय मूंग के समान रंग और तनुवातवलय अनेक प्रकार के रंगों वाला है !
१० -मध्य लोक से दुसरे नरक की पृथिवीं का अंतराल,दूसरी से तीसरी ,तीसरी से चौथी , पांचवी से छठी ,छठी से सातवी ,प्रत्येक का अंतराल १ राजू से कुछ कम है !सातवी पृथिवि मध्यलोक से ६  राजू के अंतराल पर है!सातवी पृथिवि के नीचे १ राजू प्रमाण कलकल पृथिवि है जिसमे निगोदिया जीव रहते है !लोक में सारे में निगोदिया जीव ठसा ठस भरे है !
११ - नारकी के निवास स्थान को बिल कहते है !ये तीन प्रकार के होते है !
१-इन्द्रकबिल-सभी बिलो के मध्यस्थ  के बिल को इन्द्रक बिल कहते है!ये कुल ४९ है!प्रथम नरक का प्रथम  इन्द्रक बिल का विस्तार ४५ लाख योजन ढाई द्वीप के समान है और ठीक उसके नीचे है ! क्रम से घटते घटते सातवे नरक का इन्द्रक बिल जम्बूद्वीप के ठीक नीचे १००००० योजन विस्तार का है !
२-श्रेणीबद्धबिल आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार,दिशा और विदिशाओं में स्थित बिल को श्रेणीबद्ध बिल कहते है ये २६०४ है !
३-प्रकीर्णकबिल -पुष्पों के समान बिखरे बिलो को प्रकीर्णक कहते है !८४ लाख में  शेष  ८३९७३४७ है !
१२ -नरक में नारकी जीवों की विक्रिया -
६ठे  नरक तक के नारकियों  के त्रिशूल ,तलवार,परशु,आदि अनेक आयुध रूप एकत्व विक्रिया होती है !सातवे नरक में गाय बराबर कीड़े ,चींटी आदि रूप से एकत्व क्रिया होती है !
१३ -नारकियों की लेश्य -रत्नप्रभा में जघन्यकापोत,शर्करा में मध्यमकापोत बालुका में उत्कृष्टकापोत  और जघन्यनील,पङ्कप्रभा में माध्यमनील,धूमप्रभा में उत्कृष्यनील और जघन्यकृष्ण,तमप्रभा में मध्यमकृष्ण ,महातमप्रभा में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है


नारकीयों की लेश्यादि दुःख:-
 नारकानित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया:-!!३!!
सन्धिविच्छेद-
नारका+नित्य+अशुभतर+लेश्या+परिणाम+देह+वेदना+विक्रिया:
शब्दार्थ-
नारका-नरक में नारकीयों की,नित्य-सदैव अशुभतरलेश्या-अशुभतरलेश्या,परिणाम-अशुभतरपरिणाम, देह-अशुभतरदेह,वेदना-अशुभतरवेदन,विक्रिया:-अशुभतरविक्रिया होती है !
भावार्थ-
नारकी जीवों की नरक में हमेशा अशुभतरलेश्या,अशुभतरपरिणाम,अशुभतरदेह,अशुभतरवेदना,अशुभतर विक्रिया के धारक होते है !
अशुभतर से अभिप्राय पहले नरक से सातवे नरक तक जीवों की लेश्याए,परिणाम-पुद्गल  का स्पर्श, रस, गंध,रूपऔर शब्द रूप परिणाम से  है!देह ,वेदना और विक्रिया उत्तरोत्तर अशुभ  होती जाती है !
अशुभतर लेश्या-यहाँ कषाय अनुरंजीत योग प्रवृति को लेश्या कहा है!अत: कषाय और योग के बदलने से वह मर्यादा के अंतर्गत बदल जाती है!प्रथम  नरक से सातवे तक लेश्याये अशुतर होती जाती है !
त्नप्रभा में जघन्यकापोत,शर्कराप्रभा में मध्यमकापोत, बालुकाप्रभा में उत्कृष्टकापोत और जघन्य नील,पङ्कप्रभा में माध्यमनील,धूमप्रभा में उत्कृष्यनील और जघन्यकृष्ण,तमप्रभा में मध्यमकृष्ण , महातमप्रभा में उत्कृष्ट कृष्णलेश्या है!रत्नप्रभा में कपोतलेश्या का जघन्य अंश नहीं बदलता क्योकि मध्यम और उत्कृष्ट अंश वहा नहीं रहता!इसी प्रकार महातमप्रभा  पृथिवीं  में  कृष्णलेश्या का उत्कृष्ट अंश नहीं बदलता !भावलेश्या में परिवर्तन नहीं होता मात्र कषाय  और योग के अनुसार तारतम्य भाव होता  रहता है क्योकि प्रत्येक नारकी के समान कषाय  और योग रहे ऐसा नियम नहीं है!साधारणतया नारकी में तिर्यंच और मनुष्य ही मरकर जन्म लेते है !देव और नारकी उनमे जन्म नहीं लेते !
अशुभतरपरिणाम- सातो नरकों में नारकियों के  ये पुद्गल रूप परिणाम उत्तरोत्तर अशुभ होते जाते है !जो की उत्तरोत्तर बढ़ते दुखों के कारण है!
प्रथम नरक से सातवे नरक तक मिटी की दुर्गन्ध क्रमश: १,१.५ ,२,२,५,३,३.५ और ४ कोस तक के जीवों को मारने में सक्षम है !परस्पर में वे लड़ते है !एक दुसरे को मारते काटते है !
अशुभतरदेह-नरको में नारकियों  के शरीर अशुभनामकर्मोदय से उत्तरोत्तर अशुभ,देखने में भयकर होते है !
अशुभतरवेदना-असातावेदनीय कर्मोदय से,जन्म लेते समय जीवों के ऊपर उछाल कर गिरने की क्षमता क्रमश:७योजन 3. २५ कोस,१५योजन २,५कोस,३१योजन १कोस,६२योजन २कोस,१२५योजन ,२५०योजन, और ५०० योजन है!रत्नप्रभा पृथ्वी से धूमप्रभा  पाचवी पृथ्वी  तक ८२२५००० बिल उष्ण भयकर गर्मी के कारण और  १२५००० बिल शीत  भयकर ठण्ड के कारण वेदना उतपन्न करते  है!प्रथम से चौथी पृथ्वी तक समस्त बिल उष्णहै ,पांचवी पृथ्वी के २२५००० बिल उष्ण तथा ७५००० बिल ठन्डे है ,छट्टे और सातवी पृथिवि के समस्त बिल ठन्डे है !इनमे गर्मी और ठण्ड इतनी अधिक होती है की मेरु के प्रमाण का लोहे का गोल पिंड भी उससे क्षण में  पिघल जाता है,वह अंतिम नरक तक नहीं पहुँच पाता !नारकी जीव कड़वी मिटटी का आहार लेते है,उससे नीचे के नारकी जीव सड़ा हुआ अशुभ दुर्गन्ध युक्त आहर लेते है !नरको में नारकियों को इतनी भूख की वेदना सताती है की समस्त लोक में उतपन्न अन्न भी खा ले तब भी उनकी भूख शांत नहीं होती!,किन्तु उन्हें एक भी अन्न का दाना उपलब्ध नहीं होता है!प्यास  इतनी लगती है की लोक के समस्त सागर का जल भी पी ले तो उनकी प्यास नहीं बुझती,किन्तु जल उपलब्द्ध नहीं होता है !नारकी जीव उप्पाद  स्थान से छत्तीस प्रकार के शस्त्रों पर गिरते है,और गिरते ही उछल कर पुन :उसी के ऊपर गिरते है जससे उनकी देह छिन्न भिन्न हो जाती है पारे  के समान और पुन: जुड़ जाती है  
अशुभतर विक्रिया-नारकियों की विक्रिया बहुत शुभ चाहने पर भी उत्तरोत्तर अशुभ होती है !वे अच्छा कार्य करने की सोचते भी है किन्तु  कर नहीं पाते है !
विशेष- १ धनुष ४ हाथ प्रमाण और १ हाथ २४ उंगल प्रमाण होता है,६ अंगुल=१ पाद,२ पाद =१वितस्ति,२ वितस्ति=१हाथ ,२हाथ =१रिंकू,,२ रिंकू=१ धनुष/दंड  
नरको में परस्पर उदित दुःख -

परस्परोदीरित दुखा:-४ 
संधि विच्छेद -परस्पर+ उदीरित +दुखा:
शब्दार्थ-परस्पर-आपस में, उदीरित-उत्पन्न कर  देते है , दुखा:-दुःख 
अर्थ-नारकी आपस में एक दुसरे को दुःख देते है !
विशेष-नरको में नारकी एक दुसरे को मारते काटते है फिर भी वे  आयु पूर्ण करने से पूर्व मरते नही क्यो कि  उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती है !अम्बाब्रीष देव तीसरे नरक तक के जीवों को दुखी करते है !
नरको में असुर कुमार देवों  कृत दुःख-
संक्लिष्टा सुरोदीरित दुखाश्च प्राक् चतुर्थ्या:-५
संधि विच्छेद-संक्लिष्टा+सुर+उदीरित+दुखा:+च+प्राक्+चतुर्थ्या:-
शब्दार्थ संक्लिष्टा-संक्लिष्ट परिणाम वाले, सुर-असुर कुमार देव द्वारा ,उदीरित-उत्पन्न किये हुए , दुख:-दुःख ,च-और , प्राक् -पाहिले,चतुर्थ्या:-चौथी पृथ्वी से 
अर्थ-और अम्ब्रीश जाति के असुरकुमार देव चौथी पृथिवी से पूर्व अर्थात तीसरी पृथिवी तक नारकियों  को उनके पूर्व भव के बैर का जातिस्मरण द्वारा याद कराकर,उन्हें लड़वाकर, उनमे परस्पर  दुःख उत्प्न्न  करवाते है  तथा स्वयं  आनंदित होते है !इनके इसी प्रकार की कषाय उत्पन्न होती है !

 नारकीयों की उत्कृष्ट आयु -
तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमासत्तवानांपरा स्थितिः-॥६॥
 संधि विच्छेद- 
 तेषु+एक+त्रि+सप्त+दश+सप्तदश+द्वाविंशति+त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा+सत्तवानां+परा+स्थितिः
शब्दार्थ -
तेषु-उन,एक-एक,त्रि-तीन,सप्त-सात,दश-देश,सप्तदश-सत्रह,द्वाविंशति, बाईस, त्रयस्त्रिंशत--तैतीस, सागरोपमा-सागर,सत्तवानां-नारकीजीवों की ,परा-उत्कृष्ट ,स्थितिः-स्थिति अर्थात आयु !
अर्थ -
उन नरकि जीवों  की रत्नप्रभा पृथिवी में १ सागर,शर्करा प्रभा में ३ सागर,बालुकाप्रभा में ७  सागर,पंकप्रभा में १० सागर,धूमप्रभा में १७ सागर,तमप्रभा में २२ सागर और महातमप्रभा में ३३ सागर उत्कृष्ट स्थिति/ आयु है!
विशेष-नारकी जीवों को  ही दुःख है ,उन्हें सुख की अनुभूति क्षण भर के लिए मात्र   मध्यलोक में तीर्थंकर के जन्म के अवसर पर होती है अथवा कोई तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर जो  नरक में जन्म लेते है तो वहाँ की आयु पूर्ण करने से छः माह पूर्व परस्पर लड़ना बंद कर देते है ! 
अधोलोक /नरक में नारकियों का जीवन -
उपसंहार-त्रिलोक के अधोलोक में,सात पृथिवियां रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा,धूमप्रभा, तम प्रभा और महातमप्रभा क्रमश:१८००००योजन,३२००० योजन,२८००० योजन,२४००० योजन,२०००० योजन ,१६०००० योजन ८००० योजन मोटी एक दुसरे से असंख्यात योजन  अंतराल पर है!पृथ्वियों में नारकियों  के वास क्रमश:३०,२५,१५,१०,३,लाख ,९५००० तथा ५ बिल ४९ पटलों में है।कुल ८४०००० बिल है!ये तीन वातवलय से वेष्ठित है!सातवी पृथिवी से नीचे एक राजू मोटाई में कलकल पृथ्वी में निगोदिया जीवों का वास है!इसके अतिरिक्त निगोदिया जीव सारे लोक में ठसाठस भरे हुए है !
   नरक में जीवों के वैक्रयिक शरीर,भव प्रत्यय अवधिज्ञान होने के बावजूद भी उनका जीवन अत्यंत दुखमय एवं कष्टों से परिपूर्ण है इसलिए कोई भी जीव चारों गतियों में  मात्र नरकगति  को छोड़ना चाहता है इसलिए नरकगति को अशुभ नाम कर्म की प्रकृति में लिया है !
नारकियों को नरक में चार प्रकार  के दुःख होते है-
१-क्षेत्रजनित,शारीरिक दुःख,३-मानसिकदुःख,४-असुरकृतदुःख!
 जीव अपने पूर्व जन्म के अत्यंत संकलेषित परिणामों,बहु आरंभी व बहु परिग्रही,तीव्र कषायी परिणामों के   कारण कृष्णादि अशुभ लेश्यों के माध्यम से नरकगति/नरकायु  का बंध करता है !जो की एक बार बंधने पर उसे भोगना ही होता  है ,किन्तु विशुद्ध परिणामों से उसकी स्थिति का अपकर्षण एवं संक्लेषित परिणामों की वृद्धि से उउत्कर्षण किया जा सकता है ! ये जीव अपने आयु कर्मबंध के आठ अपकर्षकाल में अपने परिणामों के अनुसार जितनी आयुबंध करते है तदानुसार उनका ,प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के धम्मा नरक, जहाँ जघन्य १०००० वर्ष,उत्कृष्ट आयु १ सागर से सातवे  महातमप्रभा पृथ्वी के माधवी  नरक में ३३ सागर की आयु  तक  बंध कर उपपाद शय्या से उपपाद  जन्म होता है! इसके बीच की पृथिवीयों शर्कराप्रभा पृथ्वी का वंशा नरक, बालुकाप्रभा पृथ्वी के मेधानरक ,पंकप्रभा पृथिवी के अंजनानरक ,धूमप्रभा पृथिवी के अरिष्टनरक,तमप्रभा पृथिवी के माधवनरक और महातमप्रभा पृथिवी के माधवीनरक में नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयु क्रमश:३,७,१०,१७,२२ सागर है तथा जघन्य आयु पिछले नरक की आयु से १ समय अधिक है!इनकी पहले से ७वे नरक में लम्बाई क्रमश:७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल से दुगनी दुगनी प्रयेक नरक में होती हुई सातवे नरक में ५०० धनुष होती है ,
उक्त नरको में,पहले से सातवे तक क्रमश १३,११,९,७,५,३,१ कुल ४९ पटल है जिनमे नारकियों  के निवास स्थानबिल क्रमश३०,२५,१५,१०,३लाख,९५०००,५ कुल ८४लाखबिल है! ये तीन प्रकार के इन्द्रक ,श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल होते  है जो की क्रमश ४९,२६०४ और ८२९७३४७ है !
नारकीजीव उपपाद जन्म स्थान से ३६ प्रकार के शास्त्रों पर गिरते है,फिर गेंद की भांति सात नरकों में क्रमश:७ योजन 3.२५ कोस, १५ योजन २.५  कोस,३१ योजन १ कोस,६२ योजन २ कोस,१२५ योजन ,२५० योजन ५०० योजन ऊँचे उछल कर पुन: उसी स्थान पर गिरने से उनका वैक्रयिक शरीर छिन्न भिन्न हो जाता है किन्तु मृत्यु को प्राप्त नहीं होता क्योकि नारकियों की अकालमृत्यु नहीं होती,वह पारे के समान दुबारा जुड़ जाता है !
नरकों में नारकियों का जन्म अंतर-हिले से सात नरको में क्रमश: २४ मूर्हत,७ दिन,एक पक्ष,१ माह ,२माह,४ माह और ६ माह है !अंतर से अभिप्राय है की अधिकतम कितने समय तक उस नरक में कोई दूसरा नारकी जन्म नहीं लेगा !
नारकियों को ज्ञान- नारकियों को मति,श्रुत,अवधि ज्ञान तथा कुमति,कुश्रुत,कुअवधि ;विभंग ज्ञान होते है !अवधि ज्ञान के माध्यम से नारकी प्रथम से सातवे नरक तक क्रमश:४,३,५,३,२.५ .२ ,१.५ और १ कोस तक  का ज्ञान प्राप्त कर सकते है !
नारकियोंकेगुणस्थान-नारकीजीव चार गुणस्थानवर्ती;मिथ्यादृष्टि, सासदनसम्यकदृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अविरतिसम्यग्दृष्टि होते है!अविरतसम्यग्दृष्टि के क्षायिक सम्यक्त्व,वेदकसम्यक्त्व और उपशम सम्यक्तव हो सकते  है!ससादन गुणस्थानवर्ती मरकर नरक में नहीं उत्पन्न होते क्योकि उनके नरक  आयु का बंध ही नहीं होता !अविरत्सम्यग्दृष्टि प्रथम नरक तक जन्म ले सकते है बशर्ते उन्होंने  सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु का बंध कर लिया हो  जैसे राजाश्रेणिक के  जीव ने ३३ सागर  की सातवे नरकायु का बंध किया था  यशोधर मुनिराज के गले में मरा सर्प डालकर किन्तु बाद  में सम्यक्त्व होने के कारण वह बंध प्रथम नरक का ८४००० वर्ष का रह गया ! अन्यथा सम्यग्दृष्टि जीव नरक में जन्म नहीं लेते !
नारकी जीवों के देशविरत -पंचम गुण स्थान इसलिए नहीं होता क्योकि उनके अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से हिंसा आनंदित होते है,और नाना प्रकार दुखों के  देने में लिप्त ,इसलिए उनके परिणाम पंचम गुणस्थान के योग्य विशुद्धि को कदाचित  प्राप्त नहीं करते है ! 
नरक  में संहनन की अपेक्षा जीव का जन्म -वज्रऋषभ नाराच संहनन वाले जीव सातवे नरक तक,वज्रनाराच संहनन,नाराच संहनन और अर्द्धनाराच संहनन वाले छठे नरक तक ,कीलित संहनन वाले पांचवे नरक तक, सृपटिकासंहनन वाले चौथे  नरक तक उत्पन्न हो  सकते है !
वर्तमानकाल में जीव  नरको में जन्म- पंचम काल में  जीव पांचवे  नरको तक जन्म ले सकते है किन्तु बाहुलयता से तीसरे नरक तक ले  सकते है ,स्त्रीया मरकर अधिकतम छटे नरक तक,पुरुष /मत्स्य  सातवे नरक तक जन्म ले सकते है !
सिंह पांचवे नरक तक,सर्प चौथे नरक  तक,पक्षी तीसरे नरक तक,सरीसृप दुसरे नरक तक  और असंज्ञी प्रथम नरक तक जासकते है !
मरण के बाद दूसरे पर्याय में जन्म लेने के बाद लगातार नरक गति में जन्म लेने की जीव की सम्भावनाये -
कोई भी जीव पहले से सातवे नरक में दूसरी पर्याय में जन्म लेने के बाद क्रमश: ८,७,६,५,४,३,२,और १बार जन्म ले सकता है !
 नारकी,देवों लभद्र,चक्रवर्ती,तीर्थंकर,प्रतिनारायण,कामदेव के दाढी मूछें नहीं होती !
देव ,नारकी और भगभूमिज  मनुष्य उसी  पर्याय में जन्म नहीं लेते!
अधोलोक में ७ करोड़ ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय,व्यंतर देवों के असंख्यात चैत्यालयों के  अतिरिक्त है !२ 
यहां तक अधोलोक के स्वरुप का  संक्षिप्त विवरण पूर्ण हुआ !
तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैनागम के अनुसार लोक के स्वरुप का वैज्ञानिक द्वारा पुष्टि का प्रमाण-
अन्य धर्मावलम्बियों और कुछ अपने ही जैन धर्मावलम्बियों को संशय रहता है कि तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित लोक का स्वरुप  तदानुसार है या नही!इसमें लेश मात्र संशय नही होना चाहिए! महान वैज्ञानिक, सापेक्षिकसिद्धांत(जैन दर्शनानुसार स्याद्वादसिद्धांत ) के सूत्रधार,प्रोफेसर अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा वैज्ञानिक शोध द्वारा उपलब्ध लोक के आयतन (वॉल्यूम) की तुलना जैन दर्शन में उल्लेखित  लोक के आयतन ३४३ राजू से तुलना कर ,लोक की त्रिज्या (रेडियस) की १ राजू से तुलना कर निम्न वैज्ञानिक गणनाओं द्वारा उसका अस्तित्व  प्रमाणित किया  है !

 रज्जु की परिभाषा-द्रुतगति (२,०५७,१५२ महा योजन प्रतिक्षण ) से ६ माह में एक देव द्वारा तय करी गई दूरी एक रज्जु  है!
समय, ६ माह =६x३० (दिन)x २४(घंटे)x ६०(मिनट)x ५४०००० प्रतिविपलंश 
           गति  =२,०५७,१५२ महा योजन =२०५७१५२ x ४००० मील प्रतिविपलंश      
( ६० प्रतिविपलंश =१ प्रतिविपल ,६० प्रतिविपाल=१ विपल ,६० विपल =१ पल,६०पल =१घडी,१ घडी =२४ मिनट , 
अत:१ मिनट=६० x ६० x ६० x ६० /२४= ५,४०,००० प्रतिविपलांश देव द्वारा तय करी दूरी =समय x गति=६x३०x २४x ६०x ५४०००० x २०५७१५२ x ४०००  
१ रज्जु                      =१. १५ x १० की घात २१ मील 

जैन दर्शन अनुसार लोक का आयतन  ३४३ घन रज्जु है !
वैज्ञानिक आइंस्टीन द्वारा लोक का आयतन =४/३ x पाई (२२/७) x त्रिज्या की घात ३ 
लोक की त्रिज्या = १०६८ मिलियन प्रकाश वर्ष ;(१ प्रकाश वर्ष =प्रकाश द्वारा एक वर्ष में तय करी गई दूरी 
                          =५.८८ x १० की घात १२ मील 
लोक का आयतन=४/३ x २२/७ x{ १०६८x १० की घात ६ x ५.८८x १० की घात १२}की घात ३ घन मील 
                        =१०३७ x १० की घात ६३ 
३४३ रज्जु की घात ३ =१०३७ x १० की घात ६३ 
 रज्जु की घात ३ =१०३७ x १० की घात ६३ /३४३ =३.०२३३२३६x१० की घात ६३ =१,४४६x                         १.४४६x१.४४६ x  १० की घात ६३
रज्जु =१,४४६ x १० की घात २१ मील
उक्त गणना में जैन दर्शनानुसार रज्जु का मान १.१५ x १० की घात २१ मील और वैज्ञानिकों द्वारा लोक की त्रिज्या=रज्जु  १. ४ ४ ६ x १० की घात २१  आती है जो की परस्पर काफी निकट है !
उक्त गणना से ही प्रमाणित होता है कि किसी लोक का अस्तित्व है ,किसी वस्तु की त्रिज्या निकट केवल तभी निकल सकती है  अस्तित्वमें हो !
रज्जु के जैनागम और वैज्ञानिको द्वारा प्राप्त मान में  मेरे विचार से जो अंतर आ रहा है उसका कारण प्रोफेसर आइंस्टीन ने लोक का स्वरुप गेंद रूप लिया है जबकि तीर्थंकरों ज्ञान में त्रिलोक के जाने चित्रानुसार है !दूसरा कारण योजन के मान को सम्भवत हम सम्पूर्ण आगाम के अभाव में ,समझने में कोई त्रुटि कर रहे है !

English version
Raju (chain-a linear astrophysical measurement) is the distance deva's fled in 6 months @2057152 mahayojan per instance of time/kshan
Period 6 months=6x30x24x540000 prtiviplansh
(1 minute=540000 prtiviplansh
Speed=2057152x4000=8228608000mile per prtiviplansh
1rajju=distance traversed by Dev in 6 months at above speed=periods speed
=6x30x24x60X540000x8228608000 mile=1.15x10 to the power 21 miles
This is value of Raju as per jaindarshan muni
Now we calculate Raju in accordance is scientist prod Einstein spherical model of universe equating it with universe volume 343 cubic Raju as per jainagam
Volume of universe spherical model As per

Einstein =4/3x22/7xr to power 3
=4/3x22/7X(1068 million light year) *To power 3
*1 light year is the distance travelled by light in 1 year=5.88x10 to the power 12
Volume of universe=
4/3x22/7x(1068x10 to power6x5.88x10 to power12) to power 3 cubic miles
=1037x10 to power63 cubic miles
Equating this volume to jain Datsun volume of universe
343 Raju to power 3=1037x10 to power63
Raju power 3=1037x10 to power63/343
Rajjuto power3=3.0233236x10 to power 63
Raju=1.446x10 to power 21
Thus we find that the value of Raju as calculated by jaindarshan is 1.15x10 to power 21 quite near to spherical model of universe radius i.e.1.446x 10 to power of 21
Hence we conclude the existence of universe proved by scientifically researches as in accordance of jain scriptures.
I feel the difference in value of Rajju is because of
1-Einstein has taken the universe as spherical where as jain scriptures define it in accordance of fig as shown in the beginning of this chapter
2-their might be some misunderstanding in evaluation of Yojana value 4000 miles
Note 1 minute=540000 prtiviplansh /kshan
 






  











































































 
 
 
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#2

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10
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