तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र १० से १५ तक
#1

भवनवासिनोऽसुरनाग-विद्यत् सुपर्णाग्नि वात  स्तनितोदधि  द्वीप दिक्कुमारा: !!१०!!

सन्धि विच्छेद -
भवनवासिन:+असुर+नाग+विद्यत्+सुपर्ण+अग्नि+वात+स्तनित+उदधि+ द्वीप+ दिक्कुमारा: 
शब्दार्थ- 
भवनवासिन:-भवनवासी देवों के,सुर,नाग,विद्यत्,सुपर्ण,अग्नि,वात,स्तनित,उदधि, द्वीप और दिक्कुमारा: 
अर्थ:-भवनवासी देवों के,सुरकुमार ,नागकुमार,विद्यत्कुमार,सुपर्णकुमार,अग्निकुमार,वातकुमार,स्तनितकुमार,उदधि, उदधिकुमार ,द्वीप कुमार और दिक्कुमारा ,दस भेद है!
विशेष :-
१-इनकी वेश भूषा,शस्त्र,यान,वाहन,क्रीड़ादि कुमारों की भांति होती है तथा आयु पर्यन्त  स्वभाव से  अवस्थित है इसलिए सभी भवनवासी  को कुमार कहते है !
२-ये देव,अधोलोक में रत्नमणियों से मंडित ७ करोड़ ७२ लाख भवनो में  उत्पन्न होकर रहते है,इसलिए इन्हे भवनवासी  देव कहते है!प्रत्येक भवन में एक-एक अकृत्रिम जिनचैत्यालय है,अधोलोक में कुल ७ करोड़ ७२ लाख जिनचैत्यालय है,प्रत्येक में १०८ रत्नों से जड़ित भव्य,अति सुंदर,मनोहर अकृत्रिम जिन बिम्ब विराज मान है !
३-रत्न प्रभा पृथ्वी के प्रथम खर भाग में ऊपर और नीचे के १००० योजन मोटे भाग छोड़कर;शेष १४००० योजन में असुर कुमार के अतिरिक्त;नौ प्रकार के भवनवासियों के भवन में जन्म होता है ! और व्यंतर देव  ऊपर और नीचे  के १०००-१००० योजन के भाग में ऊपर  नीचे के १००-१०० योजन छोड़कर अर्थात ८०० योजन भाग में राक्षस के अतिरिक्त शेष ७ व्यंतरदेव जन्म लेकर वहां के भवनो में रहते है!
असुर कुमार -भवनवासी  और राक्षस जाति - के व्यंतर देव  ८४००० योजन मोटे पंकभाग में स्थित भवनों में जन्म लेकर वही रहते है!असुर कुमार प्रथम से तीसरे नरकों तक जाकर वहां के नारकियों  को लड़वाकर आनंदित होते है!
इसके अतिरिक्त व्यंतर देवों के निवास मध्यलोक में ,पहाड़ों,नदियों,तालाबों आदि विविध स्थानों पर  भी है! इनके भवनो को जमीन के अंदर भवन ,उसके ऊपर भवनपुर,और पहाड़ो के ऊपर आवास कहते है !
४--भवनवासी देवों;सुरकुमार,नागकुमार,विद्यत्कुमार,सुपर्णकुमार,अग्निकुमार,वातकुमार,स्तनितकुमार,
उदधिकुमार,द्वीपकुमार और दिक्कुमार के मुकट पर क्रमश:चूड़ामणि,सर्प,गरुड़,हाथी,मगर,घड़ा,वज्र,सिह, कलश,अश्व के चिन्ह होते है !
५-असुरकुमार देव की २५ धनुष और शेष  भवनवासी और व्यंतर देवों की उचाई१० धनुष होती है !
व्यंतर देवों के भेद -
व्यन्तरा:किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचा: !!११!!
संधि विच्छेद-
व्यन्तरा:+किन्नर+किम्पुरुष +महोरग +गन्धर्व+ यक्ष+राक्षस+भूत+पिशाचा:
शब्दार्थ -
व्यन्तरा:-व्यन्तर  देवों के,किन्नर,किम्पुरुष,महोरग,गन्धर्व,यक्ष,राक्षस,भूत और पिशाच,आठ भेद है
अर्थ:-व्यन्तर  देवों के,किन्नर,किम्पुरुष,महोरग,गन्धर्व,यक्ष,राक्षस,भूत और  पिशाच,आठ भेद है !
विशेष -
१-जो देव निरंतर भ्रमण करते हुए यत्र तत्र विचरण में लीन रहते है उन्हें व्यंतर देव कहते है !ये पवित्र वैक्रयिक  शरीर के धारक होते है कभी भी औदारिक शरीर वाले मनुष्यो न का ग्रहण नही करते !कभी मांसाहार नही करते !मानस आहार करते है !
2 -व्यंतर देवों के असंख्यात भवन है,प्रत्येक भवन में अकृत्रिम जिन चैत्यालय है,अत: व्यंतर देवों के असंख्यात अकृत्रिम जिनचैत्यालय है,प्रत्येक जिन चैत्यालय में १०८ जिन  विराजमान है !
४-भूत-पिशाच आदि देव पूर्वभव के बैर के वशीभूत किसी मनुष्यों को परेशान करने में सामर्थ्यवान होते है !तदानुसार वे उन्हें अपने अच्छे बुरे प्रभाव से प्रभावित कर सकते है,वातावरण को प्रभावित कर सकते है!किन्तु वर्तमान में जो धारणा है की किसी को ऊपरा हो गया,यह वास्तव में मानसिक तनाव के कारण कुछ लोग पागल से हो जाते है!व्यंतरदेव अपनी इच्छानुसार चमत्कार दिखा सकते है,किन्तु ये सभी पूर्व कर्म जनित है अन्यथा किसी को वे क्यों परेशान करेंगे?
 ज्योतिष्क देव के भेद -
ज्योतिष्का:सूर्या चद्रमसौ ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारकाश्च: !!१२!!
संधिविच्छेद :-ज्योतिष्का:+सूर्या +चद्रमसौ ग्रह +नक्षत्र +प्रकीर्णक +तारका:+च 
शब्दार्थ -ज्योतिष्का:-ज्योतिष्क देव सूर्या,चद्रमा,ग्रह,नक्षत्र,प्रकीर्णक -फैले हुए,तारका:-तारे +च -और 
अर्थ -पांच ज्योतिष्क देव सूर्य,चन्द्रमा,गृह,नक्षत्र और फैले हुए तारे है !
विशेषार्थ-
१-पांचों ज्योतिष्क देव ज्योति स्वभाव अर्थात प्रकाशमान  है इसीलिए इन्हे  ज्योतिष्क कहा है !
२-सूत्र में,सूर्य-प्रतीन्द्र और चद्रमा-इन्द्र का ,गृह नक्षत्र और तारों से अधिक प्रभावशाली दर्शाने के  उद्देश्य से एक  साथ रखाहै!इन पांचो ज्योतिष्क देवों के प्रकाशवान चमकते सूर्यों,चंद्रमाओं,ग्रहों ,नक्षत्रों  और  तारो के  ज्योतिमान   असंख्यातविमान है !
३-सभी ज्योतिष्क देव के विमान मध्य लोक मेंचित्रा पृथिवी की सतह से ७९० महायोजन से ९०० महायोजन की  ऊंचाई  के मध्यस्थ  है; ७९० महायोजन ऊंचाई -तारे,८००महायोजन ऊंचाई-सूर्य,८८० महायोजन ऊंचाई-चन्द्रमा,८८४ महायोजन-नक्षत्र,८८८ महायोजनऊंचाई-बुध,८९१महायोजन ऊंचाई-शुक्र,८९४महायोजन ऊंचाई-गुरु,८९७महायोजन ऊंचाई- मंगल और ९०० महायोजन ऊंचाई-शनि केविमान है !अर्थात ११० महा योजन मोटे  आकाश क्षेत्र  में है इन ज्योतिष्क देवों के विमान सुदर्शन समेरू पर्वत की ११२१ योजन दूर रहते हुए निरंतर अपनी अपनी गति से परिक्रमा करते है!ये ज्योतिष्क देव लोकांत तक असंख्यात द्वीप समुद्र तक है!ढाई द्वीप से आगे स्वयंभूरमण  समुद्र तक के देव अवस्थित है अर्थात गमन  नहीं करते है  
४-प्रत्येक विमान में संख्यात ज्योतिष्क देव रहते है ,प्रत्येक  विमान में एक एक अकृत्रिम जिनालय है इस अपेक्षा से  मध्यलोक में असंख्यात अकृत्रिम  जिंनालय है !
५-गृह /नक्षत्र चमकते हुए ज्योतिष्क देवों के विमान के नाम है,इसलिए यह हमे सुखी/ दुखी  कर प्रभावित करने में सक्षम नही है!सुख दुःख जीव को अपने कर्मानुसार सातावेदनीय / असाता वेदनीय कर्म के उदय से मिलते है!ज्योतिष्क विद्या में प्रवीण ज्योतिष इन ज्योतिष्क विमान के गमन के आधार पर जीवों के   भविष्य की सही भविष्यवाणी  कर  सकते है किन्तु उनका यह कहना की गृह/नक्षत्र हमारे सुख /दुःख के कारण है सर्वथा गलत है !
 ६-आजकल मंदिरों में अनेक स्थानो पर शनिवार को मुनिसुव्रत भगवान की पूजा -शनिग्रह के प्रकोप के  निवारण  लिए,पार्श्वनाथ भगवान की पूजा संकटों के निवारण के लिए,शांतिनाथ भगवान की पूजा शांति प्रदान करने के लिए करी जाने लगी है;जो कि सर्वथा मिथ्यात्व के बंध का कारण है क्योकि आगमानुसार सिद्धालय में विराजमान सभी सिद्ध आत्माए,शक्ति की अपेक्षा समान है,जो कार्य मुनिसुव्रत भगवान/शांतिनाथभगवान/पार्श्वनाथ भगवान कर सकते है,वह अन्यसिद्ध भगवान भी कर सकते है !दूसरी बात सिद्ध भगवान/आत्माए वीतरागी,सिद्धालय में अनंतकाल के लिए अनंतचतुष्क सहित स्व आत्मा में \लीन है,वे किसी भी प्राणी के  सुख /दुःख में कुछ नही कर सकते है और नहीं करते है!इतना अवश्य होता है कि किसी भी  भगवान की पूजादि करने से जीव के अशुभकर्मों का आस्रव बंध कम और शुभ आस्रव/बंध  अधिक होता है और असातावेदनीय कर्म का संक्रमण भी सातावेदनीय कर्म में होता है ,इस कारण सांसारिक सुखो की अनुभूति पूजादि धार्मिक अनुष्ठानो  से स्वत:जीव के पुण्य का अनुभाग बढ़ने  से  होती है!   
६-भवनत्रिक देवों  में सबसे कम भवनवासी देव है,उनसे अधिक व्यन्तर और सर्वाधिक ज्योतिष्क देव है !
७-जम्बूद्वीपमें २ सूर्य २ चन्द्रमा,लवण समुद्र में ४ सूर्य ४ चन्द्रमा,धातकीखंड में १२ सूर्य १२ चन्द्रमा,कालोदधि समुद्र में ४२  सूर्य  ४२ चन्द्र,पुष्करार्ध द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्रमा है! इस प्रकार ढाई द्वीप में १३२ सूर्य  और १३२चन्द्रमा है!बाह्य पुष्करार्ध द्वीप में इतने ही ज्योतिष्क देव है!पुष्करवर  समुद्र मेंइससे चौगनी संख्या है!उसे आगे प्रत्येक द्वीप समुद्र में लोकांत तक क्रमश: दुगने दुगने सूर्य और चन्द्रमा इनके परिवार सहित  है ! 
८-चन्द्रमा के  परिवार में १ प्रतीन्द्र सूर्य ८८ गृह २८ नक्षत्र ,६६९७५ कोडकोडी तारे है!
chhandr -indr , jyotishk dev key vimaan ttp://www.jaingranths.com/Books/TILOYPANNATTI-3/00325.jpg       

[Image: 00325.jpg]चन्द्र विमान,चित्र पृथ्वी के तल से ८८० योजन ऊपरआकाश में , ऊर्ध्वमुख रूप से अवस्थित अर्द्ध गोलक सदृश है !उनकी अलग अलग १२००० किरणे अतिशय शीतल एवं मंद है !सभी ज्योतिष्क देवों के विमान का स्वरुप यही है !चन्द्र विमानों में विध्यमान पृथ्वीकायिक जीव उद्योत नाम कर्म के उदय से संयुक्त है अत: वे प्रकाशमान अतिशय शीतल और मंद किरणों से संयुक्त है ! चद्र विमान के उपरिम तल का विस्तार ५६/६१ और बाहुल्य (मोटाई ) २८/६१ योजन (१ योजन =४००० मील) ,परिधि २ योजन ३ कोस कुछ कम १२२५ धनुष है !प्रत्येक विमान की तट वेदी चार गोपुरों से संयुक्त होती है,उसके बीच में उत्तम वेदी सहित राजाङ्गण होता है ! राजाङ्गण के ठीक बीचो बीच उत्तम रत्नमय दिव्य कूट और उन कूटों के ऊपर वेदी और चार तोरणों से संयुक्त जिन मंदिर अवस्थित है !सभी मंदिर मोती और स्वर्ण की मालाओं से रमणीक और उत्तम वज्रमय किवाड़ों से संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोवों से सुशोभित रहते है !वे जिन भवन देदीप्यमान रत्नदीपकों और अष्ट महामंगल  द्रव्यों से परिपूर्ण , वन्दन माला,चंवर तथा कष्द्र घंटिकाओं के समूह से शोभायमान होते हैं !इन जिन भवनों में स्थान स्थान पर विचित्र रत्नों से निर्मित नाट्यसभा ,अभिषेक सभा और विचित्र क्रीड़ाशालाये सुशोभित होती है !वे जिन भवन समुद्र सदृश गंभीर शब्द नित्य मृदंग, मर्दल आदि विविध वादित्रों से नित्य शब्दायमान होता रहता है !उन जिन भवनों में ३ छत्र,सिंहासन ,भामंडल और चमरों से संयुक्त रत्नमयी जिन प्रतिमाये विराजमान है !जिन बिम्ब के पार्श्व में श्री देवी ,श्रुत देवी सर्वाण्हयक्ष और सनत्कुमार यक्ष की मनोहर मूर्तियां शोभायमान होती है !सभी चन्द्र देव गाढ़ भक्ति से उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की जल ,चंदन,तंदुल,फूल ,उत्तम नैवैद्य ,डीप,धुप औरर फलों से पूजा करते है !चन्द्र ज्योतिष्क देव के विमान /प्रसाद -
जिन मंदिरों के कूटों के चारों ओर से समचतुष्कोण लम्बे और अनेक प्रकार के विन्यासों से रमणीय,मरक्तवर्ण,स्वर्ण वर्ण,मूंगे सदृश वर्ण वाले,कन्दपुष्प चन्द्र ,हार,एवं बर्फ जैसे वर्ण सदृश चंद्रों के प्रसाद होते है !इन भवनों ,में उप्पाद मंदिर,अभिषेकपुर,भूषण गृह ,मैथुनशाला,क्रीड़ाशाला,मंत्रशाला,और सभा शालाएं होती है ! सभी प्रसाद उत्तम कोटों ,तथा विचित्र गोपुरों से संयुक्त मणिमय तोरणों से रमणीय,दीवारों पर नाना प्रकार के चित्रों से सुशोभित,विचित्र रूपवाली उपवन वापिकाओं से सुशोभित और स्वर्णमय खम्बों से युक्त है तथा श्यानासनों आदि से परिपूर्ण है !धुप की सुगंध से व्याप्त ये दिव्य प्रसाद शब्द,रस ,गंध रूप उर स्पर्श से विविध अनुपम सुखदायक है !उन भवनों में कूटों से विभूषित और प्रकाशमान रत्न -किरण पंक्तियों से संयुक्त ७-८ आदि भूमियाँ शोभायमान है!इन मंदिरों के बीच में चन्द्र देव सिंहासन पर विराजमान रहते है !प्रत्येक चन्द्र !चन्द्राभा ,सुसीमा  प्रभङ्करा,और अर्चिमालिनी  ४ -४ पट(अग्र महिषियां) देवियाँ होती है,प्रत्येक अग्र देवी की ४००० परिवार देवियाँ होती हैं वे अपने अपने परिवार के साथ अर्थात ४०००-४००० रूपों  की विक्रियां धारण करती है !चन्द्र देवों के आठ;प्रतीन्द्र (सूर्य), सामानिक(संख्यात),तनुरक्ष,(संख्यात),तीनों पारिषद,प्रकीर्णक ,सात अनीक,अभियोग्य और किल्विषिक ,परिवार देव होते है !उत्तम रत्नों से विभूषित और प्रकाशमान तेज को धारक समस्त परिवार देवों  प्रासाद राजांङ्गण बाहर होते है ! प्रत्येक चन्द्र  के चारो दिशाओं में ४०००-४००० ,कुल १६००० अभियोग्य  जाति  के स्वर्णमयी वर्ण सदृश  देव;,नित्य सिंह,हाथी,बैल,जटा युक्त घोड़ों के  रूप  विक्रिया  करके  क्रमश पूर्व,दक्षिण , उत्तर दिशा में विराजमान हो कर चन्द्र  विमानों   वहन करते है -उनके र गमन  में निमित्त होते है!प्रत्येक चन्द्र इंद्र  के; एक-एक प्रतीन्द्र सूर्य होते है ! सदर्भ त्रियोपण्णत्ती  गाथा  ३६ -६४     
सूर्य(मंडलकी प्रारूपण)  ज्योतिष्क देव के विमान-  [Image: 00328.jpg]
त्रियोपण्णत्ती  गाथा ६५- ८१ 
चित्र पृथ्वी के उपरिमतल से  ८०० योजन ऊपर आकाश में नित्य (शाश्वत) नगर तल स्थित है! सूर्य के मणि मय विमान,उर्ध्व अवस्थित,अर्द्ध -गोलक सदृश है,उनकी अलग अलग १२०० किरणे प्रकाशमान उष्णतर  होती है क्योकि सूर्य विमानों मे स्थित पृथ्वीकायिक जीव ,आतप नामकर्म के उदय से संयुक्त होते है! उन सूर्य विमानों से प्रत्येक,अनदिनिधन अकृत्रिम  सूर्य बिम्ब के उपरिम तल का विस्तार ४८/ ६१योजन  ,बाहुल्य २४/६१ योजन  और इनकी अलग अलग  परिधियां  २ योजन १ कोस कुछ कम १९०७ धनुष है !प्रत्येक सूर्य विमान की    तट वेदी ,चार गोपुर द्वारों से सुंदर होती है !उसके मध्य, उत्तम वेदी से संयुक्त राजांङ्गण  होता है,जिसके मध्य में उत्तम कूट होते है ,उनमे सूर्यकांत मणिमय जिन-भवन स्थित हैं ! ये जिन मंदिर एवं उनमे विराजमान जिन प्रतिमाये तथा उनकरे देवोब द्वारा अष्ट द्रव्यों द्वारा पूजा की विधि,  चन्द्र पुरों के कूटों पर स्थित जिनभवनो एवं प्रतिमाओं सदृश्य ही है!इन कूटों के चारो ओर जो सूर्य प्रसाद है वे भी चन्द्र प्रासादों सदृश  है! उन भवनों के मध्य में उत्तम  छत्र -चँवरों से युक्त और अतिशय दिव्य तेज को धारण धारण करने वाले सूर्य देव दिव्य सिंहासन पर स्थित होते है !प्रत्येक सूर्य की ध्युतिश्रुति, प्रभङ्करा,सूर्यपप्रभा  और अर्चिमालिनी ,४ अगर देवियाँ  होती है !प्रत्येक अग्र देवी की ४००० परिवार देवियाँ होती हैं वे अपने अपने परिवार के साथ अर्थात ४०००-४००० रूपों  की विक्रियां धारण करती है ! सूर्य देवों के सात; सामानिक,तनुरक्षक,तीनों पारिषाद,प्रकीर्णक अनीक,अभियोग्य और किल्विषिक ,परिवार देव होते है !उत्तम रत्नों से विभूषित और प्रकाशमान तेज को धारक समस्त परिवार देवों  प्रासाद राजांङ्गण बाहर होते है ! प्रत्येक सूर्य  के चारो दिशाओं में ४०००-४००० ,कुल १६००० अभियोग्य  जाति  के स्वर्णमयी वर्ण सदृश  देव;,नित्य सिंह,हाथी,बैल,जटा युक्त घोड़ों के  रूप  विक्रिया  करके  क्रमश पूर्व,दक्षिण , उत्तर दिशा में विराजमान हो कर सूर्य -नगर  तालों का गमन  में निमित्त होते है!

९-तारे के टूटने का वर्णन -
पद्मपुराण के रचियता  महान आचार्य रविसैन जी के अनुसार पदमपुराण में कहते है कि जब हनुमान जी यात्रा कर लौटते वे  पर्वत पर विश्राम के लिए  लेटे हुए ,आकाश से एक  टूटता हुआ तारा  देखते है!उन्होंने इस  घटना  का स्पष्टीकरण देते हुए कहा है कि"सम्भवत: उस समय कोई देव प्रकाशवान चमकते हुए  वैक्रयिक शरीर से सम्पन्न विचरण कर  रहे होगे जिनका शरीर,आयु पूर्ण होने के कारण,बिखर गया हो"जो की चमकीला होने के कारण तारे के टूटना जैसा लगता हो क्योकि तारे अकृत्रिम अनादिकालीन है वे टूट नहीं सकते,उनकी संख्या हीनाधिक नहीं हो सकती   !

ज्योतिष्क देवों  का गमन-
मेरुप्रदिक्षणानित्यगतयोनृलोके -!!१३!!

सन्धिविच्छेद -मेरु +प्रदिक्षणा+ नित्य +गतयो +नृ+ लोके 
शब्दार्थ-मेरु-मेरु , प्रदिक्षणा -परिक्रमा ,नित्य -सदैव ,गतयो- गतिमान रहकर भ्रमण करते है ,नृ-मनुष्य ,लोके-लोक में !
अर्थ-वे ज्योतिष्क देव  मनुष्य लोक में,सुदर्शन मेरु पर्वत की परिक्रमा लेते हुए सदा भ्रमण करते  है !
भावार्थ-मनुष्य लोक अर्थात ढाई द्वीप में, मानुषोत्तर पर्वत तक, ४५लख योजन क्षेत्रमें  पांचों ज्योतिष्क देव सदैव सुदर्शन समेरू पर्वत की परिक्रमा,उससे  ११२१ महायोजन की दूरी पर रहते  हुए लेते है!ये मेरु के चारों  ओर सदा भ्रमण करते रहते है!  

ज्योतिष्क देवों के गमन का काल पर  प्रभाव-
तत्कृत:कालविभाग: !!१४ !!
संधि-विच्छेद -तत्कृत:+काल+विभाग
शब्दार्थ_-तत्कृत:-उन(ज्योतिष्क देवों )के द्वारा काल-काल ,विभाग-विभाग होता है !
अर्थ - उन गतिशील ज्योतिष्क देवों के द्वारा काल का , व्यवहार  काल दिनरात आदि  में विभाजन होता है !
भावार्थ-मनुष्यलोक -ढाई द्वीप में   समय, आंवली, ,सैकंड, मिनट, घड़ी,, मूर्हत, ,घंटे,  दिन , रात, पक्ष, माह,  ऋतू,अयन,वर्ष,युग,सहस्र,वर्ष,लक्ष वर्ष,पूर्वांग ,पूर्व से लेकर अचल तक, यह व्यवहार  काल , ज्योतिष्क देवों के निरंतर  मेरु की प्रदिक्षणा लेने के कारण होते है !
विशेष-
१-ढाई द्वीप के बाहर  लोकांत तक स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त ज्योतिष्क देव अवस्थित है अर्थात वे गमन नहीं करते,इसलिय वहमनुष्य लोक की भांति व्यवहार काल समय मिनट दिन रात आदि नहीं है !वहां कल्पवृक्षों के प्रकाश से सदा प्रकाश ही रहता है अन्धकार नहीं होता है ! !
२-सभी देवों से संयम और व्रत रखने की अपेक्षा मनुष्य ही उंच्च है क्योकि देव व्रत संयम आदि रखने में सक्षम नही है !
३-पूजनीय नव देवता-पांच परमेष्ठी (अरिहंत,सिद्ध,आचर्य,उपाध्याय एवं साधु ),जिनागम/ जिनवाणी , जिन बिम्ब,जिनधर्म  जिन चैत्यालय! भवनवासी ,व्यंतर ,ज्योतिष्क सूर्य /चादर आदि  और वैमानिक देव पूजनीय नहीं है क्योकि नव देवताओं के अंतर्गत नहीं है !ये जन्म से ही मिथ्या दृष्टि होते है क्योकि सम्यग्दृष्टि इनमे जन्म नहीं लेते!इनको पूजना अथवा जल आदि अर्पित करना मिथ्यात्व है !एक भवतारी वैमानिक देव भी पूजनीय नहीं है !ये कभी सामने  आ जाए तो जैजिनेन्द्र करने  योग्य है !
-एक  सूर्य को जम्बूद्वीप की पूरी प्रदिक्षणा लेने में २ दिन रात लगते है ,चन्द्रमा को इससे कुछ अधिक समय लगता है !चंद्रोदय में न्यूनाधिकता इसी लिए आती है !यहाँ २ सूर्य और २ चद्र है !वैसे तो सूर्य और चद्रमा का गमन स्वाभाविक है किन्तु अभियोग्य  जाति  के ज्योतिष्क देव इनके विमानों को निरंतर ढोते है !इन  देवों में विक्रिया द्वारा प्राप्त सिहाकार देव का मुख  -पूर्व दिशा में,गजाकर का मुख  -दक्षिण दिशा में,,वृषभाकार का मुख -पश्चिम दिशा में  ,और अश्वकार देव का मुख उत्तर दिशा में होता है !
४-व्यवहार काल की विभिन्न इकाइयों में संबंध-
असंख्यातसमय=१आवलि ,संख्यातआवलि=१प्राण/(उच्छवास),७उच्छवास=१स्तोक,७स्तोक =१लव,३८.५लव= १घड़ी,२घड़ी=१मूर्हत,३०मूर्हत=१दिन,१५दिन=१पक्ष,२पक्ष=१माह,२माह=१ऋतू,३ऋतू =१आयन,२आयन=१वर्ष , ५ वर्ष=१युग,२युग=१०वर्ष,१०x१०वर्ष=शतवर्ष,10xशतवर्ष=१ सहस्र  वर्ष,१० सहस्र वर्ष=दस सहस्र वर्ष,१० x १० सहस्रवर्ष=१लक्षवर्ष,१पूर्वांग =८४लक्षवर्ष ,१पूर्व=८४लक्ष पूर्वांग =५०७६x १० की घात दस वर्ष,१ पूर्व कोटि =५०७६ x१० की घात१५!इसी क्रम मेंअंतिम संख्यात संख्या १ अचल =८४ की घात ३१x१० की घात ८०, अचल से १ अधिक होने पर असंख्यात आरम्भ हो जाता है (आदिपुराण पृष्ठ ६५ )

मनुष्य लोक से बाहर ज्योतिष्क  देवों  की गति स्थित-
बहिरवस्थिता:!१५ !!
संधि विच्छेद-बहि:+अवस्थिता:
शब्दार्थ :-बहि:-बाहर ,मनुष्य लोक से ,अवस्थित: -स्थिर है !
अर्थ -मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिष्क देव स्थिर है ,गमन नहीं करते 
भावार्थ-ढाई द्वीप ,मनुष्य लोक से बाहर के ज्योतिष्क देव स्थिर है गमन नहीं करते !
शंका--इस सूत्र की क्या आवश्यकता थी क्योकि सूत्र १४  में तो कहा गया है कि मनुष्य लोक में ही ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत की परिक्रमा लेते हुए गमन करते है ,जिससे स्पष्ट हो जाता है कि  इससे बाहर के ज्योतिष्क देव गमन नहीं करते स्थिर है !
समाधान -सूत्र १४ में मनुष्य लोक से बाहर ज्योतिष्क देवों  का अस्तित्व अभी तक प्रमाणित नहीं होता , इसी लिए इस सूत्र की आवश्यकता है !उनके अस्तित्व और स्थिरता को बताने के लिए यह सूत्र रखा है !

वैमानिक देवों का वर्णन-
Reply


Messages In This Thread
तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र १० से १५ तक - by scjain - 02-16-2016, 08:22 AM
RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र १० से १५ तक - by Manish Jain - 07-15-2023, 09:34 AM

Forum Jump:


Users browsing this thread: 2 Guest(s)