जिन सहस्रनाम अर्थसहित तृतीय अध्याय भाग २
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जिन सहस्रनाम अर्थसहित तृतीय अध्याय भाग २

२५०. स्वयं के आत्मा कि हि अथवा स्वभाव भाव कि आराधना करनेसे अथवा भावपूजा के कर्ता होनेसे "यजमानात्मा" हो। 
२५१. सदैव परमानंद समुद्रमे अभिषिक्त रहनेसे "सुत्वा" हो। 
२५२. इन्द्र के द्वारा पूजित होनेसे "सूत्रामपूजित" हो। 
२५३. ध्यानरुप अग्नीमे कर्म को भस्म करनेसे अथवा ज्ञानरुपी यज्ञ के कर्ता होनेसे "ऋत्विक" हो। 
२५४. ज्ञान यज्ञ के अधिकारी जनोमें प्रमुख होनेसे "यज्ञपति" हो। 
२५५. जैसे यज्ञ किसी पूज्य के लिये किया जाता है, वैसेहि आप सबके पूज्य है, इसलिये "यज्य" हो। 
२५६. यज्ञके लिये मुख्य कारण होनेसे अथवा सबके पूज्य होनेसे "यज्ञांग" हो। 
२५७. मरण रहित होनसे अथवा संसार तृष्णा को शांत करनेवाला उपदेश देनेवाले होनेसे "अमृत्" हो। 
२५८. स्वात्मालीन रहनेसे "हवि" भि कहलाते है। 


व्योम मुर्ति मूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोचल:। सोममूर्ति: सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्ति र्महाप्रभ:॥७॥
२५९. आकाश के समान निर्मल होनेसे तथा सर्वत्र व्याप्त होनेसे "व्योममूर्ति" हो। 
२६०. रूप, रस, गंध व स्पर्श रहित होनेसे "अमूर्तात्मा" हो। 
२६१. निष्कर्म अथवा कर्मरुपी लेपरहित होनेसे "निर्लेप" हो। 
२६२. रागादि अथवा मलमूत्रादि दोषरहित होनेसे "निर्मल" हो। 
२६३. सर्वदा स्थिर अर्थात सतत होनेसे "अचल" हो। 
२६४. चंद्रमा के समान शीतलता प्रदान करने वाले होनेसे "सोममूर्ति" हो। 
२६५. अत्यंत सौम्य होनेसे "सुसौम्यात्मा" हो। 
२६६. सूर्य के समान आभा तथा कांतिमान होनेसे "सूर्यमूर्ति" हो। 
२६७. अत्यंत तेजोमय होनेसे अथवा प्रभावशाली होनेसे "महाप्रभ" कहलाते है। 

मन्त्रविन् मन्त्रकृन् मन्त्री मन्त्रमूर्ति रनन्तग:। स्वतन्त्र स्तन्त्र कृत्स्वन्त: कृतान्तान्त: कृतान्त कृत्॥८॥
२६८. सकल मंत्रोके ज्ञाता होनेसे "मन्त्रवित्" हो। 
२६९. आपने जो चार अनुयोग बताये है, वे मन्त्र के समान जप करने योग्य होनेसे आप को "मन्त्रकृत्" हो। 
२७०. स्वात्मा कि मंत्रणा करनेसे अथवा प्रमुख रहनेसे अथवा लोक के रक्षक होनेसे आप"मंत्री" हो। 
२७१. स्वयंभि आप जप अथवा चिंतन करने योग्य होनेसे "मन्त्रमूर्ति" हो। 
२७२. अनंतज्ञान धारी होनेसे "अनंतग" हो। 
२७३. आपका सिध्दांत आत्मा हि होनेसे "स्वतंत्र" हो। 
२७४. आगम अथवा धर्मतंत्र के प्रणेता होनेसे "तन्त्रकृत्" हो। 
२७५. शुध्द अंतकरण होनेसे "स्वंत" हो। 
२७६. यम का अर्थात मरण का नाश करनेसे "कृतान्तान्त" हो। 
२७७. पूण्यवृध्दी का कारण होनेसे अथवा धर्म का कारण होनेसे "कृतान्तकृत" भि कहे जाते है। 

कृती कृतार्थ: सत्कृत्य: कृतकृत्य: कृतक्रतु:। नित्यो मृत्युञ्जयो मृत्युर मृतात्माऽ मृतोद्भव: ॥९
२७८. मोक्षमार्गमे पारंगत अथवा प्रवीण होनेसे अथवा हरिहरादिसे पूजाकृत होनेसे "कृती" हो। 
२७९. मोक्षरुप अंतीम साध्य पानेवाले होनेसे "कृतार्थ" हो। 
२८०. जो पुरुषार्थ आपने मोक्षमार्ग के लिये किया वह अत्यंत प्रशंसनीय होनेसे "सत्कृत्य" हो। 
२८१. आपने मोक्षपाने तक के सब कार्य कर लिये है, अर्थात आपके करनेयोग्य अब् कोई कार्य नही रहनेसे आप संतुष्ट है, "कृतक्रुत्य" है। 
२८२. ध्यानसे आपने कर्म, नोकर्म को भस्म किया है, ज्ञानरुपी यज्ञभि सम्पुर्ण किया है तथा आपकि तप्श्चचर्या का यज्ञ तक सफल समापन होनेसे "कृतक्रतु" हो। 
२८३. आप सदैव है, आप अभि ध्रौव्य को या व्यय को प्राप्त नही होंगे, इससे आपको "नित्य" भि कहा जाता है। 
२८४. मृत्यु को परास्त करनेसे "मृत्युंजय" हो। 
२८५. आप कि आत्मा अमर है तथा आप अभि मृत्यु को कभि प्राप्त नही होंगे इसलिये "अमृत्यु" है। 
२८६. अविनाशी आत्मा मात्र रहनेसे आप"अमृतात्मा" हो। 
२८७. आपके अमृतमय मोक्षमार्ग के उपदेश से समस्त जीवोंको अमर होनेका मार्ग ज्ञात होनेसे "अमृतोद्भव" है। 

ब्रह्मनिष्ठ परंब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसंभव:। महाब्रह्म पतिर्ब्रह्मेड् महाब्रह्म पदेश्वर॥१०॥
२८८. आत्मब्रह्म मे लीन रहने से "ब्रह्मनिष्ठ" हो। 
२८९. सर्व ज्ञान मे उत्कृष्ट ज्ञान -केवलज्ञान आत्मा मे धारण करने से "परंब्रह्म" हो। 
२९०. आपके आत्मा का केवलज्ञान स्वरुप होनेसे "ब्रह्मात्मा" हो। 
२९१. आपसे केवल् ज्ञान कि उत्पत्ति होती है, तथा शुध्दात्मा कि प्राप्ति होति है, इसलिये "ब्रह्मसंभव" हो। 
२९२. चार ज्ञानके धारी गणधरादिके स्वामी, पूज्य होनेसे "महाब्रह्मपति" हो। 
२९३. समस्त केवली मे प्रधान होनेसे "ब्रह्मेट्" हो। 
२९४. मोक्षपद के अर्थात महाब्रह्मपद के अधिकारी होनेसे आपको "महाब्रह्मपदेश्वर" कहा जाता है। 

सुप्रसन्न: प्रसनात्मा ज्ञानधर्म दमप्रभु। प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराण पुरुषोत्तम: ॥११॥
२९५. स्वात्मानुभुतिके आनंदमे लीन रहनेसे तथा सदैव प्रसन्न रहकर भक्तोंको देनेवाले होनेसे "सुप्रसन्न" हो। 
२९६. आपके आत्मा मे कोई मल नही, अर्थात वह भि प्रसन्न है इसलिये "प्रसन्नात्मा" हो। 
२९७. केवलज्ञान, दशविध धर्म तथा इंद्रियनिग्रह के स्वामी होनेसे "ज्ञानधर्मदमप्रभु" हो। 
२९८. क्रोधादि कषायोको शमन कि हुइ आत्मा होनेसे "प्रशमात्मा" हो। 
२९९. आपका दर्शन भि परम शान्ति प्रदान करता है, आपकि आत्मा भि परमशान्त है, तथा आपक उपदेश भि परमशान्ति देनेवाला पद का मार्ग दिखाता है, इसलिये हे विभो आपको "प्रशान्तात्मा" कहा है। 
३००. अनादि काल से जितने भि पुरुष हुए है, उन सबमे आप उत्कृष्ट रहने से आप"पुराणपुरुषोत्तम" हो। 
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जिन सहस्रनाम अर्थसहित तृतीय अध्याय भाग २ - by scjain - 06-04-2018, 09:23 AM

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