जीवके धर्म तथा गुण - 3
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१८ दर्शन के भेद

ज्ञानकी ही भाँति दर्शन भी दो प्रकारका है-लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक ज्ञानो से सम्बन्ध रखनेवाला लौकिक और अलोकिक से सम्बन्ध रखने वाला अलौकिक है। पहले लक्षण करते हुए यह बताया गया है कि ज्ञान से पूर्व दर्शन हुआ करता है, क्योकि जबतक आपका उपयोग या प्रकाश पहली इन्द्रिय से हटकर दूसरी इन्द्रियपर नही जायेगा तबतक वह दूसरी इन्द्रिय निस्तेज रहेगी और खुली हुई होते हुए भी जाननेका काम न कर सकेगी। इसलिए जितने प्रकारके ज्ञान है उतने प्रकारके ही उनसे पूर्व होनेवाले दर्शन होते चाहिए । परन्तु वास्तवमे ऐसा नही हैं ।

श्रुतज्ञानसे पूर्व दर्शन नही होता, क्योकि 'वह मति ज्ञानपूर्वक होता है, ऐसा बताया जा चुका है, और इसी प्रकार मन पर्यय ज्ञानके पूर्व भी कोई पृथक् दर्शन नही हुआ करता । वह भी मनो मतिज्ञान पूर्वक ही हुआ करता है । शेष रहे तीन ज्ञान -मति, अवधि तथा केवल । बस इनके साथ सम्बन्धित होनेसे दर्शनके भी तीन भेद किये जा सकते है- मतिदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन ।

'भतिदर्शन' ऐसा नाम आगममे नही आता, क्योकि इसके भेद प्रभेदोकी अपेक्षा इसका दर्शन भी अनेक भेदरूप समझा जा सकता है । मतिज्ञान क्योकि पाँच इन्द्रियो और छठे मनसे होता है इसलिए उस उस इन्द्रियके ज्ञानसे पूर्व होनेवाले दर्शन भी छह प्रकारके होते चाहिए, स्पर्शज्ञानसे पूर्ववाला स्पर्शन दर्शन और रसना से पूर्ववाला रसना दर्शन इत्यादि । परन्तु श्रोता व पाठक के सुभीते के लिए मति दर्शनके इतने भेद न करके केवल दो ही भेद कर दिये गये है— चक्षु दर्शन तथा अचक्षु दर्शन । चक्षु इन्द्रिय अर्थात् आँख से देखनेके पूर्व जो अन्तरग दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन है, और शेष चार इन्द्रियों तथा मन द्वारा जानने से पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता है। यहाँ छहो भेदोको मिलाकर एक मतिदर्शन कहा जा सकता था, परन्तु चक्षु इन्द्रियसे देखना और दर्शनसे देखना इन दोनो प्रकारके देखने मे जो अतरह उसे दर्शा निके लिए चक्षुदर्शनको पृथक् कर दिया गया । चक्षु इन्द्रिय से देखना चक्षु इन्द्रिय सम्बन्धी मतिज्ञान है, परन्तु इससे पहले अन्तरग प्रकाशका जो दौड़कर चक्षु इन्द्रियके प्रति आना है वह चक्षुदर्शन है। शेष इन्द्रियाँ अचक्षु है अर्थात् चक्षु नही हैं, इसलिए उन सबसे पूर्व होनेवाले दर्शनको अचक्षुदर्शन कहना युक्त ही है ।

इसी प्रकार अवधिज्ञानसे पूर्व होनेवाला दर्शन अवधिदर्शन कहलाता है। श्रुत तथा मन पर्ययसे पूर्व दर्शनकी आवश्यकता नही, क्योकि वे मनोमतिपूर्वक होते है । केवलज्ञानके साथ रहने चाला दर्शन केवलदर्शन है।

यहाँ इतना ध्यामे रखना चाहिए कि पहलेवाले ज्ञान क्योकि क्रमवर्ती है, आगे-पीछे अटक अटककर अपने-अपने विषयोको जानते है, इसलिए वहां दर्शन तथा ज्ञान भी आगे पीछे होते हैं। पहले दर्शन होता है और पीछे तत्सम्बन्धी ज्ञान । यह ठीक है कि आगे पीछे होनेका यह अन्तराल एक क्षणका भी सहस्रांश है, परन्तु फिर भी होते जागे-पीछे हो हैं। परन्तु केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमे आगे-पीछे होनेका यह कम नही है । इसका कारण यह है कि केवलज्ञान चेतनका पूर्ण प्रकाश है, जिसमे सारा बाह्य जगत् तथा अन्तरंग जगत् एक साथ प्रतिभासित हो जाता है । वास्तवमे केवलज्ञान और केवलदर्शन दो पृथक् वस्तुएँ नही है, बल्कि चेतनका वह अखण्ड प्रकाश ही है, जिसका कि परिचय चेतनका स्वरूप दर्शाते हुए पहले दिया जा चुका है। परन्तु फिर भी उस प्रकाशको बतानेमे कुछ वचन-भेद आता है । जब हमे यह कहना इष्ट होता है कि वह तो अन्तरगका प्रकाश मात्र है तब उसीका नाम केवलदर्शन कहा जाता है, और जब हमे यह कहना इष्ट होता है कि उस प्रकाशमे समस्त विश्व प्रतिभासित हो रहा है, तब वही प्रकाश केवलज्ञान कहा जाता है । क्योकि पहले ही दर्शनकी व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि बाह्य पदार्थोंका जानना ज्ञान है और अन्तरगमे प्रकाश देखना दर्शन है । इस प्रकार चक्षु, मचक्षु तथा अवधिदर्शन तो लौकिक है और केवलदर्शन अलौकिक है।

१९ सुखके भेद

सुख गुणके अन्तर्गत सुख तथा दु ख दोनो आ जाते हैं। सुखके भी दो भेद हैं— लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक सुख दो प्रकारका है— एक बाह्य दूसरा अन्तरंग । इन्द्रिय तथा शरीर सम्बन्धी भोगसे जो सुख होता है वह बाह्य लौकिक सुख हे और इच्छाकी पूर्ति हो जानेपर या इष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जानेपर मनमे जो हर्ष होता है वह अन्तरग लौकिक सुख है । यह सर्व ही ससारी जीवोको होता है। अलौकिक सुख एक ही प्रकारका है और वह शरीर तथा अन्तःकरणसे मुक्त अलोकिक जनोको अर्थात् मुक्त जीवोको होता है । 'ज्ञान-प्रकाशका पूर्ण रूपेण खिल जाना तथा समस्त विश्वका एक साथ प्रत्यक्ष हो जाना रूप जो शान है वही ज्ञान उनका सुख है। इसे सुख नही बल्कि आनन्द कहते हैं । समस्त चिन्ताओका, चिन्ताओंके कारणोका तथा समस्त इच्छाओ का नाश हो गया है और शान्त व शीतल प्रकाशमान स्वभावमे स्थिति हो गयी है । पहले चारो ओर इच्छाओका अन्धकार था, जीवनपर भार प्रतीत होता था, अब सर्वत्र प्रकाश है, जीवन अत्यन्त हलका प्रतीत होता है । यही वह आनन्द है ।

लौकिक दु.ख भी दो प्रकारका है-बाह्य तथा अन्तरग | बाह्य दुख तो शरीरकी पीड़ाओ तथा रागादिके रूपमे प्रकट होता है, और अन्दरका दुख चिन्ता, व्याकुलता, इच्छा, तृष्णा आदिके रूपमे होता है । अलौकिक दुख होता ही नही, क्योकि स्वयं प्रकाशित तथा अन्त करणसे मुक्त जीवोंको इच्छा तथा चिन्ता आदि करनेका कोई कारण नही रहता ।


Taken from  प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी
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जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by Manish Jain - 07-03-2022, 06:04 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by sandeep jain - 07-03-2022, 06:08 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by sumit patni - 07-03-2022, 06:12 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by Manish Jain - 07-03-2022, 06:17 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by sandeep jain - 07-03-2022, 06:18 AM

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