07-03-2022, 06:18 AM
२२. कषाय
ज्ञान आदि पूर्वोक गुणोके अतिरिक्त जोजोमे कोषादि वि भाव भी सर्वेक्ष हैं। ऐसे मवि भावोको कषाय कहते है। कषाय अनेक प्रकारको हैं । परन्तु मुख्यतः चार मानी गयी है- क्रोध, मान, माया, लोभ ।
इष्ट पदार्थ की प्राप्तिमे किसीके द्वारा कोई बाधा उपस्थित हो जानेपर क्रोध भाता है। इष्ट पदार्थको प्राप्ति हो जानेपर अभिमान होता है। इष्ट पदार्थको प्राप्तिके लिए छल होता है, वही माया है। इष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जानेपर उसे टिकाये रखनेका भाव लोभ है ।
इन चारोमे-से क्रोध, माया व लोभके तो कोई भेद नही हैं, पर मानके अनेको भेद हैं, जिनमे आठ मद प्रसिद्ध हैं - कुलमद, जाति मद, रूपमद, वलमद, धनमद, ऐश्वर्यमद, ज्ञानमद तथा तपमद । मेरा पिता बहुत वडा आदमी है ऐसा भाव रखना कुलमद है । इसी प्रकार मेरी माता बडे घरकी है ऐसा जातिमद है । इसी प्रकार 'मै बहुत सुन्दर हूँ, मै बहुत बलवान् हूँ, में बहुत धनवान् हूँ, मेरी आज्ञा सव मानते हैं इसलिए में बहुत ऐश्वर्यवान् हूँ, मै बहुत ज्ञानवान् हूँ तथा मैं बहुत तपस्वी हूँ कोन है जो मेरी वरावरी कर सकता है', ये सब भाव मद या अभिमान कहलाते हैं ।
चारो कषाय उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। क्रोध सबसे स्थूल है क्योकि वह बाहर मे शरीरकी भृकुटी आदिपर-से देखा जा सकता है । मन उसकी अपेक्षा सूक्ष्म है क्योकि यह शरीरकी आकृतिपर से नही देखा जा सकता, परन्तु उसकी बातोपर से अवश्य जाना जा सकता है । मानी व्यक्ति सदा बहुत बढ-चढकर बातें किया करता है, सदा अपनी प्रशसा तथा दूसरेकी निन्दा किया करता है, अपनी महत्ता तथा दूसरेकी तुच्छता दर्शाया करता है। माया उसकी अपेक्षा भी सूक्ष्म है क्योकि यह बातोपर-से भी जानी नही जा सकती। परन्तु उसके द्वारा कुछ काम किये जानेके पश्चात्, जब उसकी पोल खुलती है तब जान ली जाती है। लोभ सबसे सूक्ष्म है, क्योकि यह तो किसी भी प्रकार जाना नही जा सकता । इसका निवास अत्यन्त गुप्त है। यह अन्दर ही अन्दर बैठा व्यक्तिको स्वार्थकी ओर अग्रसर करता रहता है, और अन्याय व अनीति का उपदेश देता रहता है, परन्तु स्वयं प्रकट नही होता।
लोभकी माता एषणा या इच्छा है। यह भी कई प्रकारकी है। जैसे- पुत्रेषणा, वित्तेषणा, ज्ञानेषणा, लोकेषणा, इत्यादि । पुत्रको इच्छा पुत्रेषणा है। धनकी इच्छा वित्तेषणा है। ज्ञान प्राप्तिको इच्छा ज्ञानेषणा है। ख्याति लाभ पूजाकी इच्छा लोकेषणा है। सब कषायोकी जननी यह इच्छा है। इसीसे लोभ उत्पन्न होता है, लोभसे स्वार्थ होता है, स्वार्थकी पूर्तिके अर्थ अन्याय-अन्य किये जाते हैं। अन्याय करनेके लिए माया व छल-कपटका आश्रय लेना पडता है। एषणाओं को किंचित् पूर्ति हो जानेपर 'मैने यह काम कर लिया, देखो कितना चतुर हूँ' ऐसा अहंकार होता है। महं कारसे अभिमान जन्म पाता है । यदि कदाचित् इच्छाको पूर्तिमे बाधा पड़ती है या अभिमानपर किसीके द्वारा आघात होता है, तो बस क्रोध आ धमकता है। इसलिए सर्व कषायोकी मूल इच्छा है। यह अत्यन्त सूक्ष्म होती है और किसी प्रकार भी जानी नही जा सकती। दूसरा व्यक्ति तो क्या स्वय वह व्यक्ति सो नहीं जान सकता, जिसमे कि वह वास करतो है। इच्छाकी सूक्ष्म व गुप्त अवस्थाका नाम वासना है, और इसको तीव्रताका नाम तृष्णा या अभिलाषा है ।
इन सब कषायोके अतिरिक्त कुछ और भी हैं - जिनमे से नौ प्रधान हैं- रति, अरति, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद नपुंसकवेद । भोगोमे आसक्ति का होना रति है । अनिष्टताओसे दूर हटने का भाव मरति है। हँसी-ठट्टे का भाव हास्य है । इष्ट पदार्थ के नष्ट हो जानेपर सोचना-विचारना शोक है। अनितायोसे डरनेका नाम भय है। ग्लानि व घृणाका भाव जुगुप्सा है। पुरुषके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह स्त्रीवेद है। स्त्रीके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह पुरुषवेद है । और स्त्री तथा पुरुष दोनोंके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह नपुंसकवेद है जो नपुसकोने ही पाया जाता है ।
इस प्रकार कषायका कुटुम्ब बहुत बडा है। इच्छा, वासना, तृष्णा, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्वार्थ, अहकार, हास्य, रति, लरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद आदि सब कषाय हैं। सबका नाम गिनाना असम्भव है। इसलिए सब कृषायोके प्रतिनिधिके रूपमे राग तथा द्वेष ये दो ही यत्र-तत्र प्रयोग करनेमे आते हैं । इन दोनोका पेट बहुत बड़ा है । इन दोनोमे जगत्की सर्व कषायें समावेश पा जाती है। इष्ट अर्थात् अच्छे लगनेवाले विषयके प्रति प्राप्तिका भाव राग कहलाता है और अनिष्ट पदार्थसे बचकर रहना या उसे दूर हटानेका भाव द्वेष कहलाता है। इष्टकी प्राप्तिका तथा अनिष्टसे बचनेका, इन दोनो भावो के अतिरिक्त तीसरा भाव जीवमे पाया नहीं जाता। सभी चाहते हैं कि जो हमे अच्छा लगे वह तो हमे मिले और जो बुरा लगे वह न मिले। बस यही राग-द्वेष है।
सभी कषाय राग और द्वेषमे गभित की जा सकती हैं। जैसे इच्छा, वासना, तृष्णा, काम, मान, लोभ, स्वार्थ, लहकार, रति, हास्य और तीनो वेद राग है क्योकि इन सभीमे इष्ट पदार्थको प्राप्तिका भाव बना रहता है। इसी प्रकार क्रोध, मामा, करति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि द्वेष है, क्योकि इनमें अनिष्ट पदायके प्रति हटावका भाव बना रहता है। अतः राग व द्वेष ये दोनो शब्द व्यापक अर्थमे प्रयोग किये जाते हैं। क्योकि ये सब भाव जीवको मलिन कर देते है, उसे अन्धकार पूर्ण कर देते हैं, उसके मधुर जीवनको कहुआ या कमायला कर देते हैं इसलिए कषाय कहलाते हैं ।
ज्ञान आदि पूर्वोक गुणोके अतिरिक्त जोजोमे कोषादि वि भाव भी सर्वेक्ष हैं। ऐसे मवि भावोको कषाय कहते है। कषाय अनेक प्रकारको हैं । परन्तु मुख्यतः चार मानी गयी है- क्रोध, मान, माया, लोभ ।
इष्ट पदार्थ की प्राप्तिमे किसीके द्वारा कोई बाधा उपस्थित हो जानेपर क्रोध भाता है। इष्ट पदार्थको प्राप्ति हो जानेपर अभिमान होता है। इष्ट पदार्थको प्राप्तिके लिए छल होता है, वही माया है। इष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जानेपर उसे टिकाये रखनेका भाव लोभ है ।
इन चारोमे-से क्रोध, माया व लोभके तो कोई भेद नही हैं, पर मानके अनेको भेद हैं, जिनमे आठ मद प्रसिद्ध हैं - कुलमद, जाति मद, रूपमद, वलमद, धनमद, ऐश्वर्यमद, ज्ञानमद तथा तपमद । मेरा पिता बहुत वडा आदमी है ऐसा भाव रखना कुलमद है । इसी प्रकार मेरी माता बडे घरकी है ऐसा जातिमद है । इसी प्रकार 'मै बहुत सुन्दर हूँ, मै बहुत बलवान् हूँ, में बहुत धनवान् हूँ, मेरी आज्ञा सव मानते हैं इसलिए में बहुत ऐश्वर्यवान् हूँ, मै बहुत ज्ञानवान् हूँ तथा मैं बहुत तपस्वी हूँ कोन है जो मेरी वरावरी कर सकता है', ये सब भाव मद या अभिमान कहलाते हैं ।
चारो कषाय उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। क्रोध सबसे स्थूल है क्योकि वह बाहर मे शरीरकी भृकुटी आदिपर-से देखा जा सकता है । मन उसकी अपेक्षा सूक्ष्म है क्योकि यह शरीरकी आकृतिपर से नही देखा जा सकता, परन्तु उसकी बातोपर से अवश्य जाना जा सकता है । मानी व्यक्ति सदा बहुत बढ-चढकर बातें किया करता है, सदा अपनी प्रशसा तथा दूसरेकी निन्दा किया करता है, अपनी महत्ता तथा दूसरेकी तुच्छता दर्शाया करता है। माया उसकी अपेक्षा भी सूक्ष्म है क्योकि यह बातोपर-से भी जानी नही जा सकती। परन्तु उसके द्वारा कुछ काम किये जानेके पश्चात्, जब उसकी पोल खुलती है तब जान ली जाती है। लोभ सबसे सूक्ष्म है, क्योकि यह तो किसी भी प्रकार जाना नही जा सकता । इसका निवास अत्यन्त गुप्त है। यह अन्दर ही अन्दर बैठा व्यक्तिको स्वार्थकी ओर अग्रसर करता रहता है, और अन्याय व अनीति का उपदेश देता रहता है, परन्तु स्वयं प्रकट नही होता।
लोभकी माता एषणा या इच्छा है। यह भी कई प्रकारकी है। जैसे- पुत्रेषणा, वित्तेषणा, ज्ञानेषणा, लोकेषणा, इत्यादि । पुत्रको इच्छा पुत्रेषणा है। धनकी इच्छा वित्तेषणा है। ज्ञान प्राप्तिको इच्छा ज्ञानेषणा है। ख्याति लाभ पूजाकी इच्छा लोकेषणा है। सब कषायोकी जननी यह इच्छा है। इसीसे लोभ उत्पन्न होता है, लोभसे स्वार्थ होता है, स्वार्थकी पूर्तिके अर्थ अन्याय-अन्य किये जाते हैं। अन्याय करनेके लिए माया व छल-कपटका आश्रय लेना पडता है। एषणाओं को किंचित् पूर्ति हो जानेपर 'मैने यह काम कर लिया, देखो कितना चतुर हूँ' ऐसा अहंकार होता है। महं कारसे अभिमान जन्म पाता है । यदि कदाचित् इच्छाको पूर्तिमे बाधा पड़ती है या अभिमानपर किसीके द्वारा आघात होता है, तो बस क्रोध आ धमकता है। इसलिए सर्व कषायोकी मूल इच्छा है। यह अत्यन्त सूक्ष्म होती है और किसी प्रकार भी जानी नही जा सकती। दूसरा व्यक्ति तो क्या स्वय वह व्यक्ति सो नहीं जान सकता, जिसमे कि वह वास करतो है। इच्छाकी सूक्ष्म व गुप्त अवस्थाका नाम वासना है, और इसको तीव्रताका नाम तृष्णा या अभिलाषा है ।
इन सब कषायोके अतिरिक्त कुछ और भी हैं - जिनमे से नौ प्रधान हैं- रति, अरति, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद नपुंसकवेद । भोगोमे आसक्ति का होना रति है । अनिष्टताओसे दूर हटने का भाव मरति है। हँसी-ठट्टे का भाव हास्य है । इष्ट पदार्थ के नष्ट हो जानेपर सोचना-विचारना शोक है। अनितायोसे डरनेका नाम भय है। ग्लानि व घृणाका भाव जुगुप्सा है। पुरुषके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह स्त्रीवेद है। स्त्रीके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह पुरुषवेद है । और स्त्री तथा पुरुष दोनोंके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह नपुंसकवेद है जो नपुसकोने ही पाया जाता है ।
इस प्रकार कषायका कुटुम्ब बहुत बडा है। इच्छा, वासना, तृष्णा, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्वार्थ, अहकार, हास्य, रति, लरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद आदि सब कषाय हैं। सबका नाम गिनाना असम्भव है। इसलिए सब कृषायोके प्रतिनिधिके रूपमे राग तथा द्वेष ये दो ही यत्र-तत्र प्रयोग करनेमे आते हैं । इन दोनोका पेट बहुत बड़ा है । इन दोनोमे जगत्की सर्व कषायें समावेश पा जाती है। इष्ट अर्थात् अच्छे लगनेवाले विषयके प्रति प्राप्तिका भाव राग कहलाता है और अनिष्ट पदार्थसे बचकर रहना या उसे दूर हटानेका भाव द्वेष कहलाता है। इष्टकी प्राप्तिका तथा अनिष्टसे बचनेका, इन दोनो भावो के अतिरिक्त तीसरा भाव जीवमे पाया नहीं जाता। सभी चाहते हैं कि जो हमे अच्छा लगे वह तो हमे मिले और जो बुरा लगे वह न मिले। बस यही राग-द्वेष है।
सभी कषाय राग और द्वेषमे गभित की जा सकती हैं। जैसे इच्छा, वासना, तृष्णा, काम, मान, लोभ, स्वार्थ, लहकार, रति, हास्य और तीनो वेद राग है क्योकि इन सभीमे इष्ट पदार्थको प्राप्तिका भाव बना रहता है। इसी प्रकार क्रोध, मामा, करति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि द्वेष है, क्योकि इनमें अनिष्ट पदायके प्रति हटावका भाव बना रहता है। अतः राग व द्वेष ये दोनो शब्द व्यापक अर्थमे प्रयोग किये जाते हैं। क्योकि ये सब भाव जीवको मलिन कर देते है, उसे अन्धकार पूर्ण कर देते हैं, उसके मधुर जीवनको कहुआ या कमायला कर देते हैं इसलिए कषाय कहलाते हैं ।