जीव के धर्म तथा गुण - 4
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२५. स्वभाव तथा विभाव

जबतक पदार्थ बिगडता नही तबतक वह स्वभावमे स्थित कहा जाता है, परन्तु बिगड़ जानेपर वह विकारी कहलाता है। स्वभाव-स्थित रहने के कारण ताजे भोजनका स्वाद तथा स्पर्श ठीक रहता है, गन्ध भी ठीक रहती है और रूप भी ठीक रहता है, परन्तु विकारी हो जानेपर सड़े हुए बासी भोजनका स्पर्श भी बिगड जाता है, स्वाद तथा गन्ध भी बिगड जाते हैं और रूप भी विगड़ जाता है । इसी प्रकार स्वभाव-स्थित रहनेके कारण अन्त. करणसे मुक्त जीवका स्पर्श अर्थात् आनन्द भी स्वतन्त्र, उज्ज्वल तथा निराकुल रहता है, स्वाद अर्थात् अनुभव भी उज्ज्वल, पवित्र व निराकुल होता है। उसकी गध अर्थात् श्रद्धा मी स्वतन्त्र, उज्ज्वल, निराकुल, तथा निस्वार्थ होती है ओर उसका रूप-रंग अर्थात् रुचि भी उज्ज्वल, पवित्र तथा नि स्वार्थ होती है। अन्त करण युक्त चेतनका सुख विकार सहित तथा शरीर इन्द्रिय व विपयोके आधीन हो जानेके कारण परतन्त्र है इच्छाओ तथा कपायोंसे मलिन हो जाने के कारण मलिन व अपवित्र है, तथा मनकी चचलता के कारण काकुल है। इस प्रकार विकारी होने के कारण जीवका स्पर्श अर्थात् सुख परतन्त्र, मलिन तथा व्याकुल होता है । इसी प्रकार उसका स्वाद अर्थात् अनुभव भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र तथा व्याकुल है, उसको गन्ध अर्थात् श्रद्धा भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र व स्वायंपूर्ण है और उसका रूप-रंग अर्थात् रुचि भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र तया स्वार्थपूर्ण है ।

इस प्रकार स्वभाव तथा विकारका अर्थ सर्वत्र समझना । ज्ञान, दर्शन व वीर्य ये गुण ढक तो जाते है पर विकारी नही होते । दूसरी ओर सुख, अनुभव, श्रद्धा व रुचि ये गुण ढकते नहीं पर विकारी हो जाते हैं। चेतनके जो अलौकिक केवलज्ञान, केवलदर्शन हैं वे निरावरण है और शेष जो मति आदि चार ज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शन है वे सावरण है। चेतनके जो अलौकिक आनन्द, अनुभव, श्रद्धा व रुचि हैं वे स्वाभाविक हैं और अन्त करण युक्त जीवोके लौकिक सुख, दुख, अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि हैं वे विकारी है । समस्त ही कषाय-भाव विकारी है। आवरण तथा विकारमे स्थिति हो अधर्म है और स्वभावमे स्थितिका नाम धर्म है ।

२६. चेतनके गुण

इस प्रकार स्वभाव व विकारको जान लेनेके पश्चात् अब जीवके पूर्वोक्त सर्व गुणोका विश्लेषण करके, यह भी जान लेना चाहिए कि उन गुणोमे से कितना भाग चेतनका है और कितना अन्त करणका, क्योकि चेतन व अन्त करण इन दोनोके संयोगका नाम ही जीव है ऐसा पहले बताया जाता रहा है। इस प्रयोजनकी सिद्धिके अर्थ पहले बताया हुआ चेतनका स्वरूप भान करना होगा । चेतनका स्वरूप है ज्ञान-प्रकाश मात्र । बस इस सामान्य ज्ञानके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह सब अन्त करणका समझें। भले हो आप इन दोनोको साक्षात् रूपसे पृथक् पृथक् करके न देख सकें परन्तु बुद्धि द्वारा उनका विश्लेषण किया जाना सम्भव है ।

ज्ञान-प्रकाश मात्रका अर्थ है ज्ञान ही ज्ञान। अर्थात् जानना मो ज्ञानरूप, दर्शन भी ज्ञानरूप, सुख भी ज्ञानरूप, वोयं तथा अनुभव भी ज्ञानरूप, रुचि भी ज्ञान रूप और भी जो कुछ हो वह सब ज्ञानरूप । अत कहा जा सकता है कि ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ज्ञानको जानना चेतनका ज्ञान है, ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ही प्रकाशका साक्षात् करना चेतनका दर्शन है, ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ही स्थित रहना चेतनका निराकुल आनन्द है, ज्ञानकी स्थिति निष्कम्प बने रहना उसमे चचलता न होना यही चेतनका वीर्य है, ज्ञानके उस आनन्दका अनुभव करते रहना चेतनका अनुभव है और यह 'ज्ञान ही में हूँ तथा यही मुझे इष्ट है इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नही' ऐसी श्रद्धा व रुचि हो चेतनकी श्रद्वान व रुचि है । यदि ऐसा है अर्थात् सब कुछ ज्ञान ही है तो कथन मात्रको हो उसे ज्ञान दर्शन सुख आदि नामोसे कहा गया प्रतीत होता है। उसे तो अखण्ड ज्ञानप्रकाश मात्र हो कहना चाहिए या उसे केवल ज्ञान कहना चाहिए ।

यन्त करणसे छूटकर जब जीव मुक्त हो जाता है तब उसमे यह ज्ञानप्रकाश उपर्युक्त प्रकार हो साक्षात् रूपसे खिल उठता है, अर्थात् उस समय पूर्वोक्त भेद प्रभेदोमें से उसमे केवलज्ञान रूप अनन्त अलोकिक ज्ञान, केवलदर्शनरूप अनन्त निविकल्प विषया तीत दर्शन, ज्ञानानन्द रूप अनन्त अलौकिक सुख जानानन्दमे स्थिरतारूप अनन्त अलौकिक वीर्य तथा उस सम्बन्धी अनन्त अलौकिक अनुभव, श्रद्धा व रुचि प्रकट हो जाते हैं । इन्हे ही भगवान् के अनन्तचतुष्टय कहते हैं । ये कहने मात्रको ही पृथक्-पृथक् हैं, वास्तवमे सव ज्ञान मात्र हैं। इसीलिए इनके साथ 'केवल' विशेषण दिया गया है। ऐसा केवलज्ञान हो चेतनका गुण है। इसी बातको यो कह लीजिए कि निरावरण तथा स्वाभाविक सर्व गुण चेतनके है और शेष सब अन्त करणके हैं।

उस ज्ञानका स्वरूप ही क्योकि विश्वरूप है, इसलिए भले ही उसको विश्वका ज्ञाता या सर्वज्ञ कह लिया जाये, परन्तु वास्तवमें तो वह ज्ञानका ही ज्ञायक है, क्योकि जिस प्रकार हम बाहरमे इस विश्वको देखते हैं उस प्रकार भगवान् बाहरमे नही देखते । वे सदा सर्वत्र जो कुछ भी जानते तथा देखते हैं भीतर ही जानते देखते हैं। जिस प्रकार दर्पणको देखनेवाला दर्पणको ही देखता है, उन पदार्थोंको नहीं जिनके प्रतिबिम्ब कि उसमे पड़ रहे हैं, उसी प्रकार ज्ञानको देखनेवाला ज्ञानको ही देखता है, उन पदार्थोंको नही जिनके प्रतिबिम्ब कि उसमे पड़ रहे है। इसलिए उसे ज्ञानमात्र या केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि कहा गया है । केवल विशेषण लगाकर ज्ञान, दर्शन आदि कहो या ज्ञानमात्र कहो एक ही अर्थ है । वह मात्र प्रकाशरूप है, जो सव्यापक है, नित्य उद्योतरूप है, जिस प्रकार कि सूर्यका प्रकाश । यही व्यापक नित्य ज्ञानप्रकाश चेतनका गुण है।


Taken from  प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी
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जीव के धर्म तथा गुण - 4 - by Manish Jain - 07-03-2022, 07:02 AM
RE: जीव के धर्म तथा गुण - 4 - by sandeep jain - 07-03-2022, 09:54 AM
RE: जीव के धर्म तथा गुण - 4 - by sumit patni - 07-03-2022, 02:01 PM
RE: जीव के धर्म तथा गुण - 4 - by Manish Jain - 07-03-2022, 02:02 PM

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