प्रवचनसारः गाथा -47, 48 क्षायिक ज्ञान और केवलज्ञान
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार


गाथा -47 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -48 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जं तकालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं / 
अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं // 47 //

अन्वयार्थ - (जं) जो (जुगवं) एक ही साथ (समंतदो) सर्वतः (सर्वआत्मप्रदेशों से) (तक्कालियं) तात्कालिक (इदरं) या अतात्कालिक, (विचित्तविसमं) विचित्र और विषम (मूर्त अमूर्त आदि असमान जाति के) (सव्वं इत्थं) समस्त पदार्थों को इस प्रकार (जाणदि) जानता है (तं णाणं) उन ज्ञान को (खाइयं भणिदं) क्षायिक कहा है।

आगे पूर्व कहा गया अतीन्द्रियज्ञान ही सबका जाननेवाला है, ऐसा फिर कहते हैं-यत् ] जो ज्ञान [समन्ततः सर्वांगसे [तात्कालिकमितरं] वर्तमानकाल संबंधी और उससे जुदी भूत, भविष्यतकाल संबंधी पर्यायों कर सहित [विचित्रं] अपनी लक्षणरूप लक्ष्मीसे अनेक प्रकार [विषमं] और मूर्त अमूर्तादि असमान जाति भेदोंसे विषम अर्थात् एकसा नहीं, ऐसे [सर्व अर्थ] सब ही पदार्थोंके समूहको [युगपत्] एक ही समयमें [जानाति] जानता है, [तत् ज्ञानं] उस ज्ञानको [क्षायिकं] क्षायिक अर्थात् कर्मके क्षयसे प्रगट हुआ अतीन्द्रिय ऐसा [भणितं] कहा है / भावार्थ-अतीत, अनागत, वर्तमानकाल संबंधी नानाप्रकार विषमता सहित समस्त पदार्थोको सर्वांग एक समयमें प्रकाशित करनेको एक अतीन्द्रिय क्षायिककेवलज्ञान ही समर्थ है, अन्य किसी ज्ञानकी शक्ति नहीं है। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे जो ज्ञान एक ही बार सब पदार्थोंको नहीं जानता, क्रम लिये जानता है, ऐसे क्षायोपशमिकज्ञानका भी केवलज्ञानमें अभाव है, क्योंकि केवलज्ञान एक ही बार सबको जानता है, और क्षायोपशमिकज्ञान एकदेश निर्मल है, इसलिये सर्वांग वस्तुको नहीं जानता, क्षायिकज्ञान सर्वदेश विशुद्ध है, इसीमें एकदेश निर्मलज्ञान भी समा जाता है इसलिये वस्तुको सर्वांगसे प्रकाशित करता है, और इस केवलज्ञानके सब आवरणका नाश है, मतिज्ञानावरणादि क्षयोपशमका भी अभाव है, इस कारण सब वस्तुको प्रकाशित करता है / इस केवलज्ञानमें मतिज्ञानावरणादि पाँचों कर्मोंका क्षय हुआ है, इससे नाना प्रकार वस्तुको प्रकाशता है, और असमान जातीय केवलज्ञानावरणका क्षय तथा समान जातीय मतिज्ञानावरणादि चारके क्षयोपशमका क्षय है, इसलिये विषमको प्रकाशित करता है / क्षायिकज्ञानकी महिमा कहाँतक कही जावे, अति विस्तारसे भी पूर्णता नहीं हो सकती, यह अपने अखंडित प्रकाशकी सुन्दरतासे सब कालमें, सब जगह, सब प्रकार, सबको, अवश्य ही जानता है |

गाथा -48 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -49 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिकालिगे तिहुवणत्थे /
णातुं तस्स ण सकं सपज्जयं द्व्वमेगं वा // 48 //


अन्वयार्थ - (जो) जो (जुगवं) एक ही साथ (तेक्कालिगे तिहुवणट्ठे) त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (तीनों काल के और तीनों लोक के) (अत्थे) पदार्थों को (ण विजाणदि) नहीं जानता, (तस्स) उसे (सपज्जयं) पर्याय सहित (दव्वमेक्कं) एक द्रव्य भी (णादुं ण सक्कं) जानना शक्य नहीं है।

आगे जो सबको नहीं जानता, वह एकको भी नहीं जानता, इस विचारको निश्चित करते हैं-[यः] जो पुरुष [त्रिभुवनस्थान् ] तीन लोकमें स्थित [त्रैकालिकान्] अतीत, अनागत, वर्तमान, इन तीनकाल संबंधी [अर्थान] पदार्थोंको [युगपत् ] एक ही समयमें [न विजानाति] नहीं जानता है, [तस्य] उस पुरुषके [सपर्ययं] अनन्त पर्यायों सहित [एकं द्रव्य वा] एक द्रव्यको भी [ज्ञातुं] जाननेकी [शक्यं न] सामर्थ्य नहीं है / भावार्थ-इस लोकमें आकाशद्रव्य एक है, धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य भी एक है, कालद्रव्य असंख्यात है, जीवद्रव्य अनंत है, और पुद्गलद्रव्य जीव-राशिसे अनंतगुणा अधिक है / इन छहों द्रव्योंके तीन काल संबंधी अनंत अनंत भिन्न भिन्न पर्याय हैं / ये सब द्रव्य पर्याय ज्ञेय हैं। इन द्रव्योंमें जाननेवाला एक जीव ही है। जैसे अग्नि समस्त ईधनको जलाता हुआ उसके निमित्तसे काष्ठ, तृण, पत्ता वगैरह ईंधनके आकार होकर अपने एक अग्निस्वभावरूप परिणमता है, उसी प्रकार यह ज्ञायक (जाननेवाला) आत्मा सब ज्ञेयोंको जानता हुआ ज्ञेयके निमित्तसे समस्त ज्ञेयाकाररूप होकर अपने ज्ञायकस्वभावरूप परिणमन करता है, और अपने द्वारा अपनेको आप वेदता (जानता ) है / यह आत्मद्रव्यका स्वभाव है / इससे यह बात सिद्ध हुई, कि जो सब ज्ञेयोंको नहीं जानता, वह एक आत्माको भी नहीं जानता, क्योंकि आत्माके ज्ञानमें सब ज्ञेयोंके आकार प्रतिबिम्बित होते हैं; इस कारण यह आत्मा सबका जाननेवाला है। इन सबके जाननेवाले आत्माको जब प्रत्यक्ष जानते हैं, तब अन्य सब ज्ञेय भी जाने जाते हैं, क्योंकि सब ज्ञेय इसीमें प्रतिबिम्बित हैं / जो सबको जाने, तो आत्माको भी जाने, और जो आत्माको जाने, तो सबको जाने, यह बात परस्पर एक है, क्योंकि सबका जानना, एक आत्माके जाननेसे होता है / इसलिये आत्माका जानना और सबका जानना एक है। सारांश यह निकला, कि जो सबको नहीं जानता, वह एक आत्माको भी नहीं जानता |


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 47, 48

गाथा -47, यहाँ आचार्य कैवल्यज्ञान ज्ञान में ही क्षायिक ज्ञान की सिद्धि बता रहे हैं,,केवल ज्ञान और क्षायिक ज्ञान को एक ही मानना चाहिए ,क्योकि क्षायिक ज्ञान भी तात्कालिक,भूतकालिक,व भविष्य तीनो को एक साथ (युगपथ)सब ओर से जानता हैं

लोक में ज्ञेय अनंत है ,विचित्र और विषम हैं ,विचित्रता मतलब भिन्न्ता, इसको एक साथ सभी ओर से जानना ही क्षायिक ज्ञान है

गाथा -48- जो तीन लोक के समस्त पदार्थ को नहीं जानता या जानने में समर्थ नही हैं ,तो वह एक भी द्रव्य जानने योग्य नही होगा ,वह कैसे? उसको समझाने को आचार्य कहते हैं कि अगर कोई एक द्रव्य को जान लेगा तो वह सब को जान लेगा क्योकि एक द्रव्य में अनंत पर्याय हैं,, और जो सबको जान लेगा वह स्वयं को भी जान लेगा ,अतः जो आत्मज्ञ है वही सर्वज्ञ है,जो सर्वज्ञ है वही आत्मज्ञ हैं।


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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प्रवचनसारः गाथा -47, 48 क्षायिक ज्ञान और केवलज्ञान - by Manish Jain - 08-09-2022, 12:32 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -47, 48 - by sandeep jain - 08-09-2022, 12:37 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -47, 48 क्षायिक ज्ञान और केवलज्ञान - by sumit patni - 08-15-2022, 12:17 PM

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