प्रवचनसारः गाथा -10, 11
#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -9,10
यहाँ शुभाशुभशुद्धरूपसे तीन तरह परिणमन करे
है परिणमन स्वभाव चेतन जो कि तदा तत्राम धरे ॥
वस्तु बिना परिणाम और परिणाम विना न वस्तु कोई
क्योंकि द्रव्य गुण पर्ययवाली वस्तु वही जो हो सोई ॥ ५ ॥

गाथा -11,12
शुद्धोपयोग युत होता है पाता है निर्वाण वही
जब होता है शुभोपयोगी तो पाता है स्वर्ग सही ॥
अशुभोदयसे तो कुमत्यं तिर्यञ्च नारकी हो करके ।
चोर दुःख पाता अनन्त संसारितया यह मर करके ॥

गाथा -7,8,9,10

सारांश:- ज्ञानके द्वारा जाननेमें आवे उसे वस्तु या अर्थ कहते हैं, वह द्रव्य गुण और पर्यायात्मक सत्ताको स्वीकार किये हुए सद्रूप होता है। जो अपने आपको स्वीकार करते हुए भी औरसे और रूपमें होता रहे उसे द्रव्य कहते हैं। उस द्रव्यको स्थित रखनेवाली शक्तिको गुण और उसके परिवर्तनको पर्याय कहते हैं। ये तीनों बातें जहाँ पर हों वह वस्तु ज्ञानका विषय हुआ करती है। अब यहाँ पर एक बात विचारणीय है, वह यह है कि
गुण और पर्याय ये दोनों बातें जिसमें हों वह द्रव्य होता है। उसी को वस्तु कहते हैं और वहीं ज्ञानका विषय होता है, ऐसा हरएक विद्वान् मानता है परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों बातें जिसमें हों वह वस्तु ज्ञानका विषय होती है। मानलो हमारे सम्मुख एक चीज आई जो हमारे अनुभवमें इसप्रकार आती हैं कि
यह एक खट्टे रसवाला आम है। इसमें आम तो विकारी द्रव्य है। जिसका रस गुण है और खट्टापन उस रस गुणकी पर्याय है। सो वहाँ पर वह उस आमका रसगुण खट्टेपन मात्र ही नहीं, किन्तु उससे अधिक दायरेवाला है। वहाँ खट्टापन मिटकर मोठापन आनेवाला है। इसीप्रकार आम भी रसगुण मात्र ही न होकर वह उससे भिन्न कहलानेवाले रूप, स्पर्श, गन्धादि अनेक गुणोंका पुञ्ज है। जिससे रसगुण कथञ्चित् भिन्न है, जो कि रसना इन्द्रियके द्वारा पहिचाना जाता है एवं द्रव्य, गुण पर्याय ये तोनों हमारी दृष्टिमें भिन्न भिन्न होकर भी ऐसे भिन्न नहीं है कि उनको हम देशापेक्षया भी भिन्न कर सकें जिस प्रदेश अर्थात् वस्तुमें खट्टेपनको लिए हुए हमें रसका अनुभव होता है, वहीं पर उसके साथ साथ इतर स्पर्शादि गुणोंके पुञ्जात्मक आमका भी अनुभव हो रहा है। वस्तु परिणमनशील होती है। जो अपने परिणमन के साथमें तादात्म्य, अभिन्न भावको लिए हुए हुआ करती है। वस्तुमें हरसमय कोई न कोई परिणमन अवश्य होता ही है। वस्तुको छोड़कर परिणमन नहीं होता है। इसीप्रकार परिणमनके बिना वस्तु भी स्थित नहीं रह सकती है।

आत्मा भी वस्तु है अतः परिणमनशील है। जिसका परिणमन शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन तरहका होता है और जब जैसा परिणमन होता है उस समय वह आत्मा ही स्वयं वैसा बन जाता है। शुभ परिणमनके समय शुभ तथा अशुभके समय अशुभ और शुद्धके समय यह आत्मा हो शुद्ध हो जाता है।


गाथा -11,12
सारांश:- यहाँ पर पाठक देख रहे हैं कि शुद्ध और शुभके साथमें तो उपयोग शब्द है किन्तु अशुभके साथ उपयोग शब्द न होकर उदय शब्द दिया गया है। ऐसा क्यों? इसका मतलब यह है कि शुद्ध या शुभ उपयोगकी अवस्थामें आत्मा अपने आत्मत्व को स्वीकार किये हुए रहता है किन्तु अशुभ की दशा में आत्मभाव आत्मत्वसे दूर हटकर उत्पथको अपनाये हुए रहा करता है। शुद्ध या शुभोपयोगी जीव धर्मात्मा होता है और अशुभोपयोगी जीव अधर्मी, पापी, पाखण्डी होता है। इसीलिये वह नरकादिक दुःखोंका भाजन होता है।

शङ्काः- आपने शुभोपयोगी जीवको धर्मात्मा बताया सोग तो समझमें नहीं आया क्योंकि धर्म तो शुद्धोपयोगका नाम है, जिससे मुक्तिकी प्राप्ति है है एवं वह जिसके हो उसे धर्मात्मा कहना ठीक है जैसा कि यहाँ पर नं० ११ की गाथामें - 'यदि आत्मा शुद्धसम्प्रयोगयुतस्तदा तदा धर्मेण परिणतो भवति यतो निर्वाणसुखं प्राप्नोति' लिखा हुआ है तथा और भी जैन ग्रंथोंमें हमने तो यही सुना है कि जो जीवको मुक्ति प्राप्त करा देता है, वहीं धर्म है जैसा कि श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है-
'देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्। संसार दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ ' 
इस श्लोकसे भी स्पष्ट हो रहा है। शुभोपयोग तो अशुभोपयोगकी तरहसे हो संसारका कारण है। यह बात दूसरी है कि- अशुभोपयोगसे नरक निगोदमें जाता है और शुभोपयोगसे स्वर्गमें जाता है।

उत्तरः- यह तो तुम्हारा कहना ठीक है कि जीवको मुक्ति प्राप्त करानेवाला धर्म है किन्तु संसारमें ही घुमानेवाला अधर्म होता है। फिर भी जैनाचार्योंने उस धर्मको सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपसे तीन भागोंमें विभक्त कर बताया है जैसा कि इसी ग्रंथकी छठी गाथामें भी आया है। उसमें भी प्रधानता सम्यक्चारित्रकी है क्योंकि सफलता चारित्रके हो आधीन है। सरल शब्दों में, समता भावका नाम चारित्र है जो कि मोह और क्षोभसे या अहंकार और ममकारसे रहित आत्माका परिणाम होता है। जैसा कि यहीं सातवीं गाथामें बताया जा चुका है। वह चारित्र दो प्रकारको होता है। एक तो मोह और क्षोभसे सर्वथा रहित होता है अतः संसाराभावरूप अपने कार्यको करनेमें पूर्ण समर्थ होता है उसे शुद्धोपयोग या वीतराग चारित्र कहते हैं।
दूसरा वह होता हैं- जहाँ मोहका तो अभाव होता है परन्तु क्षोभ (राग द्वेष) का सर्वथा अभाव न होकर आंशिक सद्भाव बना रहता है जिससे वह अपनी शक्तिका विकास न कर सकने के कारण तत्काल अपने कार्यको सम्पन्न नहीं कर सकता है। ऐसे चारित्रको हो सरामचारित्र या शुभोपयोग कहते हैं। इस शुभोपयोग वाला जीव लौकान्तिक या अनुत्तरिक देव तथा बलभद तीर्थंकरादि पद पाता हुआ अपनी आत्मामें समाश्वासन प्राप्त करता है। जो कि शुभोपयोग एक अशक्त धर्मात्माके लिए शक्ति सम्पादनका हेतु होनेसे ठीक ही है।

शङ्काः तो फिर टीकाकार अमृतचंद्राचार्यने उसे (शुभोपयोग) हेय क्यों लिखा?

उत्तर:- उन्होंने शुद्धोपयोगको दृष्टिमें रखते हुए शुभयोगको हेय बताया है, सो ठीक ही है। शुद्ध अपेक्षा तो शुभोपयोग हलका ही है जैसे मानलो, दो मनुष्य एक स्थान पर जानेके लिये रवाना हुए। इनमेंसे जो दृढाध्यवसायी है वह बेरोकटोक सीधा शीघ्रता से चला जारहा है। दूसरा भी उसी सड़क पर धीरे धीरे बीचमें विश्राम लेते हुए चल रहा है। ये दोनों ही एक ही पथके पथिक हैं परन्तु चलने में उत्तमता पहिले मनुष्यकी है। इसीप्रकार शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी इन दोनोंका सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मार्ग एक ही है। दोनों ही मुक्तिको लक्ष्यमें लेकर चलते हैं अतः दोनों ही धर्मानुयायी हैं। भेद इतना ही है कि वह (शुद्धोपयोगी) खेद रहित है और यह ( शुभोपयोगी) खिन्नताको लिए हुए है। जैसा कि टीकाकार श्री अमृतचन्द्र लिखते हैं

यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा संप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति ।

आचार्य महाराज कहते हैं कि मानलो दो मनुष्य हैं जिनके रूक्ष हवा लगनेसे शरीरमें दर्द होगया है । दोनों ठीक होना चाहते हैं। इनमें एक व्यायामशील है जो दण्ड बैठकादि करके पसीना निकल जानेसे अनायास ही स्वस्थ हो जाता है। दूसरा अपने शरीरके दर्दको मिटानेके लिए अग्नि पर ऊष्ण किये हुए तेल या घृतकी मालिश करता है जिससे उसका दर्द तो धीरे २ कम होजाता है परन्तु इसके जो गरम गरम तेल लगाया जारहा है उसको कुछ पीड़ा भी होरही है। इसीप्रकार शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ये दोनों ही मोक्षमार्गी हैं। दोनों ही धर्मात्मा हैं परन्तु इनमेंसे शुद्धोपयोगी जीव तो अपनी पूर्ण शक्तिसे धर्ममें लगा हुआ रहता है अतः साक्षात् मोक्षको प्राप्त कर लेता है, और शुभोपयोगी जीव भी धर्मरूप अवश्य परिणत होरहा है फिर भी वह अपनी शक्ति दबी हुई होनेसे अपना अभीष्ट कार्य पूरा न कर सकनेके कारण सुधाररूप चेष्टाके साथ साथ कुछ बिगाड़रूप चेष्टाको भी लिये हुए होता है अतः स्वर्गसुख प्राप्त करता है। मतलब यह है कि शुभोपयोगी जीव अपूर्ण धर्मात्मा होता है।

अशुभोपयोगी जीव तो सर्वथा ही धर्मशून्य अधर्मी पापी होता है जिससे वह कुयोनियों में परिभ्रमण करता रहता है। जैसा कि श्री अमृतचंद्रजी बारहवीं गाथाके अर्थमें लिख रहे हैं "यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमना सादयन्नशुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदां कुमनुष्यतिर्यङ नारकभवभ्रमणरूप-दु:खसहस्रबन्धमनुभवति'। यह सब लिखनेका तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। इससे शुभोपयोग अच्छा है क्योंकि इसके हो जाने पर धर्म की अभिरुचि अवश्य होती है परन्तु उस धर्मकी पूर्णता शुद्धोपयोगके बिना नहीं हो सकती है। वास्तविक अतीन्द्रिय स्वाभाविक आत्मीय सुखकी प्राप्ति शुद्धोपयोग वालेको ही होती है,
Reply


Messages In This Thread
प्रवचनसारः गाथा -10, 11 - by Manish Jain - 07-30-2022, 12:24 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -10, 11 - by sandeep jain - 08-01-2022, 09:51 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -10, 11 - by sumit patni - 08-14-2022, 07:43 AM

Forum Jump:


Users browsing this thread: 6 Guest(s)