प्रवचनसारः गाथा -28, 29 ज्ञेय और ज्ञायक संबंध
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -27,28
चेतन बिना न बोध कहीं भी चेतन बोधरूप होता ।
चारित्रादिरूप भी ऐसे धर्म धर्मिका समझौता
ज्ञानी ज्ञानात्मक होता है ज्ञेयात्मक पदार्थ सारे ।
एक दूसरे में न समायें दृष्टि यथा रूप निहारे ॥ १४


गाथा -29,30
ज्ञान काचको ज्यों निर्मलतासे सब जग को गहता है ।
ज्ञेयोंमें न समा करके भी तदाकार हो रहता है |
दुग्धभाण्डमें नीलमको यदि डाल दिया वह निज भा से ।
सभी दूधको नीला करदे त्यों जगको ज्ञान प्रकासे ॥ १५ ॥


गाथा -27,28
सारांश:- एक गुणीमें अनेक गुण होते हैं। जैसे गुलाबके फूलमें सुगन्ध, कोमलता, रेचकता और सुन्दरता आदि अनेक गुण होते हैं। वह गुलाबका फूल सुगन्ध मात्र ही नहीं होता है।  वैसे ही आत्मा ज्ञानमय अवश्य है परन्तु ज्ञानमात्र ही आत्मा हो, ऐसी बात नहीं है। उसमें ज्ञानके साथ साथ सम्यक्त्व, दर्शन, अगुरुलघुत्व, अमूर्तत्व वगैरह और भी अनेक गुण हैं। ज्ञान आत्माके हरएक प्रदेशमें पाया जाता है और उसे छोड़ कर वह ज्ञान अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता है। ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है। इसीसे यह आत्मा हरएक पदार्थ को जानता है। अन्य पदार्थों को जानते हुए भी आत्मा या आत्मा का ज्ञान उन अन्य पदार्थोंमें प्रविष्ट नहीं हो जाता है। पदार्थ अपने आपके प्रदेशों में स्थित रहते हैं और आत्मा अपने आपके प्रदेशोंमें स्थित रहता है। जैसे नेत्र अपनी जगह पर होता हुआ ही अन्य पदार्थों में पाये जाने वाले रूपको देखा करता है।

गाथा -29,30,31,32 
सारांश:–ज्ञान जब पदार्थोंको जानता है तब वह उन्हें उनके रूपमें ही जानता है, यहाँ ज्ञानका पदार्थाकार होना है। ऐसा नहीं है कि वह उन्हें ग्रहण करता हो और छोड़ता हो या उनरूप स्वयं भी बन जाता हो। जैसे दर्पण के सम्मुख जब पदार्थ आते हैं तब उनका प्रतिबिम्ब उस दर्पणमें पड़ता है फिर भी दर्पण उनरूप नहीं होता है। यदि ऐसा न माना जावे तो बर्फके प्रतिबिम्बसे काच ठंडा और अनिके प्रतिबिम्बसे गर्म हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है किन्तु प्रतिविम्बके रूपमें वे सभी पदार्थ दर्पणके अन्दर आया जाता करते हैं, यही ज्ञानकी दशा है। दूसरा उदाहरण

नील मणिको यदि दूधके बरतन में डाल दिया जावे तो उस नीलमणिकी कान्तिसे सारा दूध नीला दीखने लगता है। नीलमणि अपने रूपमें अपने स्थान पर ही रहता है और दूध बरतनमें रहता है तो भी उस नीलमणिकी नीली कान्ति सारे दूधको नीला बना देती है। इसीप्रकार ज्ञान भी हर पदार्थको ज्ञेयके रूपमें आक्रान्त करके रहता है। जितना ज्ञान है वह सबका सब आत्मा ही है। सर्वज्ञ भगवान्‌को सम्पूर्ण पदार्थोंका साक्षात् परिपूर्ण ज्ञान होता है अतः उनकी आत्मा भी पूर्ण और उनके साक्षात् है इसीलिये वे केवली कहलाते हैं। उन्ही कि आदेश और उपदेशानुसार अपने विचारको जो स्थिर कर लेता है वह भी बहिरात्मपन ( मिथ्याज्ञान) को छोड़कर ज्ञानवान् अर्थात् अन्तरात्मा बन जाता है। एवं सब बाह्य बातोंका परित्याग करके जो केवल अपनी शुद्धात्मा के ही विचारमें निमग्न रहता है वह श्रुतकेवली कहलाता है।
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प्रवचनसारः गाथा -28, 29 ज्ञेय और ज्ञायक संबंध - by Manish Jain - 08-03-2022, 09:07 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -29, 30 - by sandeep jain - 08-03-2022, 09:57 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -28, 29 ज्ञेय और ज्ञायक संबंध - by sumit patni - 08-14-2022, 12:06 PM

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