प्रवचनसारः गाथा -32, 33 श्रुत केवली भगवान का स्वरूप
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -31,32
यदि कहो कि न तदाकारतया भी बोधमें वस्तु वसे ।
तो फिर कैसा उस पदार्थका ज्ञान हुआ यह तर्क लसे ॥
हाँ आदानोज्झन विहीन होकर निरीह जिन बोध रहे।
सहजभावसे मणिके प्रकाशकी ज्यों वस्तु विशोध लहे ॥ १६ ॥


गाथा -33,34
श्रुतज्ञानको पाकरके स्वज्ञायकपनपर चित्त दिया ।
श्रुतकेवली नाम उसने हो ऋषि लोगो से प्राप्त किया ॥
जिनवरजीके दिव्य वचनका नाम सूत्र या श्रुत होता
जिसे श्रवण कर भव्यजीव यह बोधोदधिमें ले गोता ॥ १७



गाथा -29,30,31,32
सारांश:–ज्ञान जब पदार्थोंको जानता है तब वह उन्हें उनके रूपमें ही जानता है, यहाँ ज्ञानका पदार्थाकार होना है। ऐसा नहीं है कि वह उन्हें ग्रहण करता हो और छोड़ता हो या उनरूप स्वयं भी बन जाता हो। जैसे दर्पण के सम्मुख जब पदार्थ आते हैं तब उनका प्रतिबिम्ब उस दर्पणमें पड़ता है फिर भी दर्पण उनरूप नहीं होता है। यदि ऐसा न माना जावे तो बर्फके प्रतिबिम्बसे काच ठंडा और अनिके प्रतिबिम्बसे गर्म हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है किन्तु प्रतिविम्बके रूपमें वे सभी पदार्थ दर्पणके अन्दर आया जाता करते हैं, यही ज्ञानकी दशा है।
दूसरा उदाहरण
नील मणिको यदि दूधके बरतन में डाल दिया जावे तो उस नीलमणिकी कान्तिसे सारा दूध नीला दीखने लगता है। नीलमणि अपने रूपमें अपने स्थान पर ही रहता है और दूध बरतनमें रहता है तो भी उस नीलमणिकी नीली कान्ति सारे दूधको नीला बना देती है। इसीप्रकार ज्ञान भी हर पदार्थको ज्ञेयके रूपमें आक्रान्त करके रहता है। जितना ज्ञान है वह सबका सब आत्मा ही है। सर्वज्ञ भगवान्‌को सम्पूर्ण पदार्थोंका साक्षात् परिपूर्ण ज्ञान होता है अतः उनकी आत्मा भी पूर्ण और उनके साक्षात् है इसीलिये वे केवली कहलाते हैं। उन्ही कि आदेश और उपदेशानुसार अपने विचारको जो स्थिर कर लेता है वह भी बहिरात्मपन ( मिथ्याज्ञान) को छोड़कर ज्ञानवान् अर्थात् अन्तरात्मा बन जाता है। एवं सब बाह्य बातोंका परित्याग करके जो केवल अपनी शुद्धात्मा के ही विचारमें निमग्न रहता है वह श्रुतकेवली कहलाता है।


गाथा -33,34
सारांशः – यहाँ पर आचार्यश्रीने श्रुतज्ञान किसे कहते हैं? वह किस तरहसे होता है और उस श्रुतज्ञानका धारक जीव भी श्रुतकेवली कब होता है? ये तीनों बातें बताई है। सामान्य रूपसे सुनी हुई बात को श्रुत कहते हैं और उसके वाच्यार्थके जाननेको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे सुननेमें दो तरहकी बात आती है। एक तो अल्पज्ञकी अपनी तरफ से कही हुई बात जो उत्सूत्र कहलाती है। इससे हमको वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं होता है अतः इसके निमित्तसे हम सबको जो ज्ञान होता है वह कुश्रुतज्ञान होता है। किन्तु श्री वीतराग सर्वज्ञ अरहन्त देवके वचन या उन्होंके शिष्य प्रशिष्य श्री गणधरादिके वचनों को सूत्र कहते हैं। जिससे हमको वस्तु तत्त्वका निर्देश प्राप्त होता है। उनके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे उस ज्ञानमें जिनवचन अनिवार्य निमित्त होते हैं। अतः कारणमें कार्यका उपचार करके जिनवचनको श्रुतज्ञान कहा जावे तो भी कोई हानि नहीं है।

शङ्काः- अर्हंतका उपदेश सुननेसे श्रुतज्ञान हो ही जावे, ऐसी बात भी नहीं है। देखो, श्री ऋषभदेवकी वाणीको सुनकर भी उनका पोता मारीच उलटा अधिक कुमार्गरत हो गया और उसका अज्ञान पहिलेसे भी अधिक दृढ़ बन गया।

उत्तरः- उसने भगवान्‌की वाणीको सुना ही नहीं। कानोंमें शब्द पड़ने मात्रका नाम सुनना | नहीं है किन्तु भद्रतापूर्वक उसे स्वीकार करना ही सुनना कहलाता है जैसे कि:

बहुत कही प्रभुने उसे, उसने सुनी न एक ।
ऊष्ण तेल ज्यों वारिसे, उलटी पकड़ी टेक ॥ १ ॥

भगवान्की वाणीको उसने सुनी कहाँ ? उसने तो अहंभावसे उसकी निन्दा की। उसने विचार किया कि बाबा कहते हैं कि मारीच आगे चलकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा। मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ उसहीका तो यह फल होगा कि में तीर्थङ्कर बनूंगा, फिर इसे क्यों छोड़ा जावे इत्यादि । जिन्होंने भगवान्के उपदेशको सुना वे अन्य तापस लोग सुमार्ग पर आ ही गये।

ज्ञान सामान्यतया एक होकर भी विशेषतासे वह कई प्रकारका है। उनमें आत्मोपयोगी दो ही होते हैं। एक साक्षात् पूर्णज्ञान, जिसे केवलज्ञान कहा जाता है। जो सफलतारूप है। दूसरा श्रुतज्ञान, जो उसका साधन है। श्री जिनवाणीके कथनानुसार यह जीवात्मा इतर सम्पूर्ण पदार्थोंसे दूर हटकर वीतराग बन करके अपनी आत्मामें स्थित होजावे तो उसके उत्तर क्षणमें स्वयं सर्वज्ञ केवली होजाता है।।

श्रुतज्ञान दो प्रकारका है। एक द्रव्य श्रुतज्ञान और दूसरा भाव श्रुतज्ञान। जिन प्रवचनानुसार जीवाजीवादि पदार्थोंका निर्णय करके उनको यथार्थ रूपमें अपने हृदयमें अवधारण करनेको द्रव्य श्रुतज्ञान कहते हैं। उन इतर पदार्थों परसे अपने उपयोगको दूर हटाकर, संकल्प विकल्प रहित होकर, ज्ञायक स्वरूप अपने आत्मभावमें स्थित होनेको भावश्रुत कहते हैं। आचार्य महाराजका यह कथन है कि ऐसी ही अवस्थामें यह आत्मा श्रुतकेवली कहलाता है क्योंकि श्रुत (प्रवचन) के द्वारा अपनी आत्मामें जो बल प्राप्त किये हुए हो वह श्रुतकेवली, ऐसा मतलब होता है।

जिसने अपनी वर्तमान अवस्थामें पूर्ण वीतरागता प्राप्त करली है, जो द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान के द्वारा अपने आत्मानुभवमें तल्लीन होरहा है, वह छद्मस्थ वीतराग जीव और स्पष्टद्रष्टा सर्वज्ञ अर्हन्तदेव, ये दोनों ही केवली माने गये हैं। दोनोंका ज्ञान सम्पन्न होता है। भेद इतना हो होता है कि—केवलज्ञानीका ज्ञान सूर्य प्रकाशके समान बिलकुल साफ स्वच्छ और श्रुतकेवलीका ज्ञान दीपकके प्रकाशकी तरह कुछ धुंधलेपन को लिये हुए मंद होता है। जैसा कि श्री जयसेनाचार्यजी अपनी वृत्तिमें भी लिखते हैं

"युगपत् परिणत समस्त चैतन्यशालिना केवलज्ञानेन अनाद्यनन्त निः कारणान्यद्रव्यासाधारण स्वसम्वेद्यमान परम चैतन्यसामान्यलक्षणस्य परद्रव्यरहितत्वेन केवलस्यात्मन आत्मनि स्वानुभवनाद्यथा भगवान् केवली भवति तथायंगणधरदेवादिनिश्चयरत्नत्रयाराधकजनोऽपि पूर्वोक्तलक्षणस्यात्मनो भावश्रुतज्ञानेन स्वसम्वेदनान्निश्चय श्रुतकेबली भवतीति यथा कोऽपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति रात्रौ किमपि प्रदीपेनेति ।

शङ्काः – कोई कोई विद्वान् कहते हैं कि द्रव्य श्रुतकेवली तो नहीं किन्तु भाव श्रुतकेवली तो पशु भी हो जाता है क्योंकि तिर्यञ्चके भी पञ्चम गुणस्थान होना बताया है। जहाँ सम्यग्दर्शन आवश्यक है जो आत्मानुभव पूर्वक होता है और आत्मानुभव बिना श्रुतज्ञानके हो नहीं सकता। क्या यह ठीक है?

उत्तर: – संज्ञी पंचेन्द्रिय पशु सम्यग्दर्शन सहित अणुव्रतोंका पालक हो सकता है, यह बात तो ठीक है किन्तु चतुर्थादि सकपाय गुणस्थानोंमें जो सम्यग्दर्शन होता है वह व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है। इस अवस्थामें आत्मानुभव न होकर आत्मतत्व का श्रद्धान होता है। जो सद्गुरु संदेशके अनुमननात्मक श्रुतज्ञानांशको लिये हुए होता है। आत्मानुभवनात्मक निश्चय (वीतराग) सम्यग्दर्शन तो महर्षि लोगोके परम समाधिकालमें हो बनता है। इसको स्पष्ट करनेके लिए या तो ग्रन्थकारके सम्यक्त्वसारशतकको देखना चाहिए या श्री समयसारादि पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथोंका स्वाध्याय करना चाहिए।
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प्रवचनसारः गाथा -32, 33 श्रुत केवली भगवान का स्वरूप - by Manish Jain - 08-03-2022, 10:13 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -33, 34 - by sandeep jain - 08-03-2022, 10:17 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -32, 33 श्रुत केवली भगवान का स्वरूप - by sumit patni - 08-14-2022, 01:08 PM

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