प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता
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श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -67 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -69 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )



तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं /
तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति // 67 //


अब कहते हैं, कि आत्माका स्वभाव ही सुख है, इसलिये इन्द्रियोंके विषय भी सुखके कारण नहीं है-[यदि] जो [ जनस्य ] चोर आदि जीवकी [ दृष्टिः] देखनेकी शक्ति [तिमिरहरा] अंधकारके दूर करनेवाली हो [तदा] तो उसे [दीपेन] दीपकसे [कर्तव्यं ] कुछ कार्य करना [ नास्ति ] नहीं है, [तथा] उसी प्रकार [ आत्मा] जीव [स्वयं] आपही [ सौख्यं] सुखस्वरूप है [तत्र] वहाँ [विषयाः] इंद्रियों के विषय [किं कुर्वन्ति ] क्या करते हैं ? कुछ भी नहीं। भावार्थ-जैसे सिंह, सर्प, राक्षस, चोर, आदि रात्रिमें विचरनेवाले जीव अंधेरेमें भी पदार्थोंको अच्छी तरह देख सकते हैंउनकी दृष्टि अंधकारमें भी प्रकाश करती है, अन्य दीपक आदि प्रकाशकरनेवाले सहायक कारणोंकी अपेक्षा नहीं रखती, इसी प्रकार आत्मा आप ही सुखस्वभाववाला है, उसके सुखानुभव करनेमें विषय विना कारण नहीं हो सकते / विषयोंसे सुख अज्ञानी जनोंने व्यर्थ मान रखा है, यह मानना मोहका विलास हैमिथ्या भ्रम है। इससे यह कथन सिद्ध हुआ, कि जैसे शरीर सुखका कारण नहीं है, वैसे इंद्रियोंके विषय भी सुखके कारण नहीं हैं // 67 // 


गाथा -68 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -70 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

सयमेव जहादिचो तेजो उण्हो य देवदा णभसि /
सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो // 68 //


अब आत्माके ज्ञान-सुख दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं- [यथा] जैसे [नभसि] आकाशमें [आदित्यः] सूर्य [स्वयमेव] आप ही अन्य कारणोंके विना [तेजः] बहुत प्रभाके समूहसे प्रकाशरूप है, [उष्णः ] ततायमान लोहपिंडकी तरह हमेशा गरम है, [च] और [देवता] देवगतिनामकर्मके उदयसे देव पदवीको धारण करनेवाला है। तथा वैसे ही / लोके इस जगतमें [सिद्धः अपि] शुद्धात्मा भी [ज्ञानं] ज्ञानस्वरूप है, [सुखं] सुखस्वरूप है, [] और [ देवः] देव अर्थात् पूज्य है। 

भावार्थ-जिस प्रकार सूर्य अपने सहज स्वभावसे ही अन्य कारणोंके विना तेजवान् है, उष्ण है, और देवता है, उसी प्रकार यह भगवान् आत्मा अन्य कारणोंके विना सहजसे सिद्ध अपने-परके प्रकाश करनेवाले अनंत शक्तिमय चैतन्यप्रकाशसे ज्ञानस्वरूप है, अपनी तृप्तिरूप अनाकुल स्थिरतासे सुखरूप है, और इसी प्रकार आत्माके रसके आस्वादी कोई एक सम्यग्दृष्टि निकटभव्य चतुरजन हैं, उनके चित्तरूपी पत्थरके स्तंभ ( खंभे ) में सिद्धस्वरूप चित्रित होनेसे पूज्य तथा स्तुति योग्य देव है / सारांश-आत्मा स्वभावसे ही ज्ञान सुख और पूज्य इन गुणोंकर सहित है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि सुखके कारण जो इंद्रियोंके विषय कहे जाते हैं उनसे आत्माको सुख नहीं होता, वह आप ही सुखस्वभावरूप है |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 67,68


मुनि श्री इस गाथा 67-68 के माध्यम से समझा रहे हैं कि
* एक दृष्टि ऐसी भी होती है जिसे प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं प्रकाशित रहती है।
* वैसे ही आत्मा स्वयं सूखवान है इसलिए उसको बिना विषयों के सुख मिलता है।
* विषयों की ज़रूरत अपने मोह,राग,द्वेष के कारण होती है।


गाथा 67
अन्वयार्थ - (जइ) यदि (जणस्स दिट्टी) प्राणी की दृष्टि (तिमिरहरा) तिमिरनाशक हो तो (दीवेण णत्थि कादव्वं) दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है, अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता (तध) इसी प्रकार जहाँ (आदा) आत्मा (सयं) स्वयं (सोक्खं) सुखरूप परिणमन करता है, (तत्थ) वहाँ (विसया) विषय (किं कुव्वंति) क्या कर सकते हैं?

गाथा 68
अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (णभसि) आकाश में (आदिच्चो) सूर्य (सयमेव) अपने आप ही (तेजो) तेज (उण्हो) उष्ण (य) और (देवदा) देव है, (तहा) उसी प्रकार (लोगे) लोक में (सिद्धो वि) सिद्ध भगवान् भी (स्वयमेव) (णाणं) ज्ञान (सुहं) सुख (च तहा देवो) और देव हैं।


Manish Jain Luhadia 
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प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता - by Manish Jain - 08-28-2022, 03:34 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता - by sandeep jain - 08-28-2022, 03:38 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता - by sumit patni - 08-28-2022, 03:47 PM

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