प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -67,68
सुख है आत्माका गुण तो फिर विषय वहाँ क्या करते हैं ।
दीप सहारा मात्र किन्तु आंखों से देखा करते हैं
सहजभाव से एक प्रकाशक धर्मरूप रवि होता है।
वैसे ही सुख बोध भाव का सिद्धों में समझौता है 34


गाथा -67,68
सारांश:- जैसे नक्तंचर बिलाव वगैरह और प्रकाशधर मानवादिक सभी अपनी अपनी आँखोंसे देखते हैं। फिर भी बिलाव वगैरहकी आँखोंका तेज ऐसा होता है जो रात्रिके पोर अंधकारमें भी दिनकी तरह अपने आप ही काम करता है परन्तु मनुष्यादिकी आँखोंको रात्रिमें दीपकका सहारा लेना पड़ता है, तभी वे कार्य करनेमें समर्थ होती हैं।

इसीप्रकार संसार अवस्थामें आत्माका सुख गुण अभीष्ट विषयके सहारे पर ही अपना कार्य करनेमें समर्थ होता है किन्तु सिद्धावस्थामें ऐसी बात नहीं है वहाँ पर आत्माको शतिका पूर्ण विकाश रहता है अतः सुखोपभोगके लिए इन्द्रिय विषयोंकी आवश्यकता नहीं होती है। वहाँ तो आत्माका ज्ञान गुण और सुख गुण दोनों ही अपना कार्य अखण्ड रूपमें स्वभावसे करते रहते हैं। जैसे निरावरण सूर्यमें प्रकाश और आताप दोनों साथ साथ सदा दिखाई देते हैं अशुद्ध अवस्थामें भी यह आत्मा जब अशुभयोगसे हटकर शुभयोगमें आता है उस समय यह इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहणरूप आंशिक सुखका भोक्ता बनता है
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प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता - by Manish Jain - 08-28-2022, 03:34 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता - by sandeep jain - 08-28-2022, 03:38 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -67,68 - आत्मा की परिपूर्णता - by sumit patni - 08-28-2022, 03:47 PM

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