प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 16 पराभव किस कारण से होता है?
#3

जन्मे मरे अकेला चेतन
इस एकत्व भाव ना में क्या होता है? इसमें सिर्फ सिर्फ इतना ही भाव होता है “जन्मे मरे अकेला चेतन सुख दुख का भोगी। और किसी का क्या इक दि न यह, देहेह जुदी होगी” यह ी है न एकत्व भाव ना? “जन्मे मरे अकेला चेतन” यह एकत्व भाव ना है। सुख-दुःख का भोगी। चेतना, मेरी आत्मा , एक अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरण को प्राप्त होता है। जन्म लेते समय भी कोई साथ नहीं होता है, मरते समय पर भी इसके साथ कोई नहीं होता। जन्मे , मरे, अकेला चेतन सुख-दुःख का भोगी। सुख का भी भोग अकेले करेगा और दुःख का भी भोग अकेले करेगा। आपका सुख आप के लि ए ही होगा, दूसरे के लि ए हो जाए, जरूरी नहीं है और हो भी नहीं सकता है। दूसरे का सुख दूसरे के लि ए है, आपका सुख आपके लि ए है। हर एक चेतना का अपना-अपना सुख का भाव है और हर एक चेतना अपने ही सुख का अनुभव करता है। अपने ही सुख का भोग करता है, कि सी दूसरे के सुख का कोई भोग कर ही नहीं सकता है। दूसरे के सुख में शामि ल तो हो सकता है, दुःख में शामि ल तो हो सकता है लेकि न भोग नहीं कर सकता। अगर आपके अन्दर सुख को भोगने की शक्ति नहीं तो आप सुख भोग नहीं सकते। आपके अन्दर अगर दुःख को ही देने वा ले कर्म के उदय चल रहे हैं तो भी आप सुख भोग नहीं सकते। आपके अन्दर अगर सुख भोगने की क्ष मता नहीं तो भी आप सुख भोग नहीं सकते। सुख में सब के शामि ल हो जाओ, सब आपको अपने सुख में शामि ल कर ले लेकि न फिर भी आपको सुख मि ल जाए, ये आपके अपने ही कर्म के ऊपर है। कि सी के ऊपर नहीं। नहीं आता समझ में?
मान लो कि सी को cancer हो गया है। घर में था , cancer हो गया , उसको वेदना हो रही है। रोग का पता पड़ने से पहले कि सी का रि श्ता उसी घर में तय हो चुका है। अपने ही कि सी बेटे-बेटी का रि श्ता तय हुआ। पहले रि श्ता तय हो गया तो बड़ी खुशी का माह ौल था , सभी बड़े ड़े सुखी थे। रि श्ता बन गया । अब उसी घर के मान लो माता-पि ता हैं। उनमें से कि सी एक को कुछ दिनों बाद cancer हो गया । अब क्या हुआ? अब वह सुख तो गया । जो बेटा-बेटी का रि श्ता हुआ था वह सुख तो गया । अब यह जो दुःख हो गया है, तो इस सुख-दुःख का भोगी, कौन है अब? अब उसको जो दुःख हो रहा है, उसको जो पीड़ा हो रही है, उस पीड़ा का भोगी वो अकेला ही होगा। अब मान लो घर के लोगों ने कहा कि देखो आपको cancer तो हो गया है लेकि न अब यह शादी की पहले से ही जो date fix हुई है, तो अब इसको change नहीं किया जा सकता है। विवाह तो करना ही है क्योंकि बड़ी मुश् किल से बड़े ड़े सालों बाद यह सम्बन्ध बना है। इसको ज्या दा delay करेंगे तो दिक्कत हो सकती है। घर के लोगों ने ही आपस में committment किया तो फिर उसने कहा भाई, अब जो होगा सो होगा। आप बीमार हो आप परेशान न हो, जब तक चल रहा है चल रहा है। आप कुछ काम मत करना, सब हो जाएगा लेकि न इस काम को रोकना ठीक नहीं है। अब वो बेटी की शादी हो रही है। मान लो पि ता पड़ा है, cancer है, उसको। क्या सुन रहे हो? घर में सब लोग आ रहे हैं, खुशिया ँ मनाई जा रही हैं। चारों तरफ अच्छा माह ौल है और जिसको cancer हुआ है वह अलग एक जगह पड़ा हुआ है। अब क्या ? सब जगह सुख ही सुख है, खुशिया ँ ही खुशिया ँ हैं लेकि न क्या हो गया ? सुख-दुःख का भोगी। उसको कि स का भोग होगा? चारों ओर सुख का भोग हो रहा है लेकि न उसको कि स का भोग हो रहा है? उसको दुःख का भोग हो रहा है। यह ी तो बताना चाह रहा हूँ मैं। क्या आप सुन रहे हो? चारों ओर सब लोग मतलब ऐसा कि कोई आप को शामि ल करना चाह े अपने सुख में, सुख का भोग करने में, ज़रूरी नहीं कि आप उसके सुख में सुख का भोग कर पाओ। अब बेटा समझाए, पि ताजी आपकी बड़ी इच्छा थी, आपकी इच्छा से सब काम हुआ है, अब आप दुःखी मत हो। अब आप अपने सामने यह मंगल कार्य देख लो, यह आपका सौभाग्य, आपका पुण्य। हर तरीके से समझाए लेकि न पि ता को क्या समझ आ रहा है? काह े का सौभाग्य? काह े का पुण्य? मेरे लि ए तो अब डॉक्टर ने कह दिया पन्द्रह दिन, बीस दिन भी जी जाऊँ तो बड़ी बात है। एक दिन भी जी सकता हूँ, बीस दिन भी जी सकता हूँ, एक घण्टे में भी मर सकता हूँ, दस घण्टे में भी मर सकता हूँ। क्या करे? कोई कि सी के सुख-दुःख का भोगी बन ही नहीं सकता है। हर व्यक्ति अपने ही सुख का, अपने ही दुःख का भोगी होता है। समझ आ रहा है? फिर भी थोड़ी देर के लि ए हमें ऐसा लगता है कि सुखी व्यक्ति के साथ रहने में हमें भी सुख का भोग हो जाता है और यदि हमें सुख नहीं मि ल रहा है, तो भी हम अपनी सुख की इच्छा को दूसरों के साथ जुड़ कर ही पूर्ण करने की कोशि श करते हैं। यह सब क्या है? यह एकत्व भाव ना नहीं भाने का परि णाम होता है। बारह भाव नाओं में एकत्व भाव ना हमेशा भानी चाहि ए। कुछ या द आए या नहीं आए लेकि न ये एकत्व भाव ना भाने के लि ए अपने को हमेशा ये दो लाइनें ध्या न में रखनी चाहि ए। कौन सी दो लाइनें? “जन्मे मरे अकेला चेतन” समझ आ रहा है? “सुख दुःख का भोगी”।

परिधि से केन्द्र की ओर
यह भाव जब ध्या न में आएगा तो आप परिधि से हटकर अपने द्रव्य की ओर आएँगे। अपने तत्त्व की ओर आएँगे। आपको महसूस होगा कि मैं अकेला ही जन्म लेता हूँ, अकेला ही मरण करता हूँ। मेरे जन्म और मरण का कोई भी दूसरा साथ ी-सगा नहीं है। समझ आ रहा है? जब ये भाव आपका आएगा तब एक आत्मा की भाव ना यानि एक शुद्ध आत्मा की भाव ना आएगी। पहले क्या करना है? पहले एकत्व भाव ना करना है। वह जो एकाकी भाव ना या एक शुद्धात्मा की भाव ना जो समयसार की भाव ना है, वह उसके बाद की बात है। पहले आपको व्यवहा र से एकत्व स्थापि त करने के लि ए अपने अन्दर अन्यत्व की भाव ना कर के एकत्व में आना होगा। समझ आ रहा है? य दि आप इस तरह से onlyness में नहीं आएँगे तो आप हमेशा loneliness में पड़े ड़े रहेंगे। क्या होगा? एकाकीपना तो छूटा रहेगा, अकेलापन बस आपको अखरता रहेगा |
अब उस पि ता की बात समझो। वह अब वहा ँ पर अकेला है कि एकाकी है? क्या सुन रहे हो? अकेला क्यों है? पूरा घर परिवा र सभी भरा पड़ा हुआ है, सब उत्सव मनाया जा रहा है। बेटे की शादी है, विवाह हो रहा है, पूरा घर भरा हुआ है, सब रि श्तेदार आए हैं, सब धूम-धाम मची है। यह क्या बात हुई? यह तो हमें समझ में नहीं आया ? अभी तक आपने अपने अकेलेपन को दूर करने के लि ए जो सम्बन्ध बनाए थे, बेटा, पत्नी , चाचा, ताऊ, भाई, भाभी वे सब आपके साथ हैं। पर जब अपने लि ए दुःख हो गया , अपने लि ए रोग हो गया , पीड़ा हो गई, उस समय सब होते हुए भी अकेला ही है। समझ आ रहा है? पहले सम्बन्ध बना रहा था तब भी अकेला था । तब अकेलेपन के भाव को, घाव को भर रहा था । आप भी मेरे रि श्तेदार बन जाओ, रि श्तेदार बन गया तो बड़ा अच्छा हो गया । एकदम से feeling आती है कि अब हमारे लि ए दुःख अकेले का नहीं रहा , अब हमारे रि श्तेदार भी हो गये यानि उस ने हमारा दुःख बाँट लिया । एक से दो हो जाते हैं तो दुःख बँट जाता है, ऐसा कहते तो हैं लोग। इसीलि ए एक से दो तो हमेशा ही रहना चाहि ए, कभी यदि अकेले भी हो जाए तो फिर एक से दो बना लेते हो। आप देखो कभी कोई बेटा या बेटी विवाह होने के बाद में अकेला पड़ जाता है, तो उसके घर वा ले कि तना pressure करते हैं उसको फिर से। नहीं मेरी बेटी अकेले नहीं रह सकती। वह उसके अकेलेपन से खुद भी डरते हैं और वह बेटी भी डरती है। वह भी सोचती है कि अब मैं अकेली पूरी जिन्दगी कैसे रह पाऊँगी? मान लो कि सी का छोटी उम्र में कुछ हो गया हो तो फिर क्या होता है? माता-पि ता के अन्दर कि तना बड़ा भाव आता है, पूरी जिन्दगी मेरी बेटी अकेले कैसे रहेगी? लेकि न धर्म का भाव क्या कहता है? जिनवा णी क्या कहती है? आपने अपने अकेलेपन को भरने की कोशि श की थी। चलो! कोई बात नहीं, आपके कर्म के उदय से वह अकेलापन बहुत दिनों तक नहीं भर पाया , नहीं रह पाया तो अब क्या करना? नहीं! नहीं! अभी तो बेटी की उम्र बहुत कम है, इतनी लम्बी उम्र कैसे नि कालेगी? समझ आ रहा है न? अतः हर माता- पि ता उसके लि ए पुन: दूसरा सम्बन्ध करने की सोचते हैं और बेटी भी सोचती है इतनी बड़ी जिन्दगी अकेले कैसे नि कलेगी? जैन, जैन होते हुए भी, धर्म -धर्म करते हुए भी, कभी भी हमें जिनवा णी के भाव ों के साथ जीना आ ही नहीं पाता है। अकेलापन यदि हमारी जिन्दगी में आया है, तो अब हम उसको तोड़ ने के लि ए, उस अकेलेपन को भरने के लि ए जितने भी प्रया स करेंगे तो क्या उनसे अकेलापन भर जाएगा? कि तने केस ऐसे होते हैं, पि ता ने फिर बेटी की शादी दूसरी जगह करा दी। उस दूसरी जगह बेटी फिर दुःखी होने लगी और ज्या दा दुःखी होने लगी। अब उसका भी दुःख पि ता को आने लगा है कि बेटी का जो दूसरा सम्बन्ध हुआ, वहा ँ पर उसके घर वा ले, सास-ससुर उसको परेशान करते हैं, वह वहा ँ परेशान रहती है, अब क्या करें?

परम औषधि: जि नवाणी
क्या करोगे? कहा ँ तक क्या करोगे? अकेलेपन के भाव को दूर करने की अगर कोई दवा ई है, तो वह केवल जिनवा णी माँ ने हमें बताई है। तीर्थं कर से पि ता और जिनवा णी सी माता, जब तक इनकी शरण में नहीं जाओगे तब तक आप अकेलेपन की बीमारी से कभी भी बच नहीं पाओगे। इन माता-पि ता की बात कोई सुनता नहीं है। न माता-पि ता सुनते हैं, न बेटा-बेटी सुनते हैं। क्यों ? यह भी माँ हैं कि नहीं? जिन्दगी भर कहते रहते हो- हे! जिनवा णी मइया ! जन्म-दुःख मेट दो। यह तो केवल शास्त्र स्वा ध्याय समाप्त होने के बाद अन्त में खड़े ड़े होकर गाने के लि ए है, बस। हे! जिनवा णी मइया जन्म दुःख मेट दो, हे जिनवा णी भारती तोहे जपूँ दिन रैन, जो तेरी शरणा गहे। कहा ँ कब पा रहे हो शरणा? ये जिनवा णी की शरणा कैसे मि लेगी? जिनवा णी को माँ कब माना आपने? तीर्थं कर को पि ता स्व रुप कब माना आपने? आप मानते नहीं, बात कि सी की सुनते नहीं। अरे! महा राज जिसके ऊपर दुःख आता है वह ी जानता है। आप ये सब बातें अब बाद में करना, पहले मुझे मेरी बेटी के लि ए कोई दूसरा सम्बन्ध ढूँढना है। कई बार तो यहा ँ तक देखा है कि बेटी नहीं भी चाह रही हो तो माता-पि ता ने जबरदस्ती की। नहीं बेटी, तू अकेले नहीं रह सकती और कर दिया । बाद में वह सुखी नहीं, दुःखी ही रही लेकि न कभी भी माता-पि ता यह भाव नहीं करते, यह नहीं समझा सकते कि द्रव्य से, तत्त्व से तुम अकेले ही हो। उन्हें खुद ही नहीं पता है। क्यों नहीं पता ?
क्यों बने हैं हम अज्ञा न?

म जैन होते हुए भी, धर्म की शरण में रहते हुए भी, जिनवा णी के गुणगान करते हुए भी, हमें ये वस्तु एँ क्यों पता नहीं? जबकि यह ी तो सबसे बड़ा उपचार है, उस दुःख का। उस अकेलेपन को दूर करने के लि ए हमें यह एकत्व भाव ना ही तो भाना होगा। यह एकत्व भाव ना जब आएगी तो फिर वह दुःख हमेशा के लि ए दूर होगा जो बार-बार हमें देता रहता है, बार-बार दुःख का कारण हमारे सामने जो बनता रहता है। इसलि ए यह बात समझने की है कि हम अकेलेपन को भरने की कोशि श में जिन्दगी नि काल देते हैं लेकि न कभी भी एकत्व भाव ना को अपने मन में भरने के लि ए समय नहीं नि कालते। समझ आ रहा है? अपना हृदय इसीलि ए हमेशा दुःखी रहता है, खाली रहता है। कि ससे? सुख से खाली रहता है। वह सुख से कब भरेगा? जब हम सब को अन्य समझ कर, यह सब अन्य हैं, अन्यत्व भाव ना लाएँगे और अपनी एकत्व भाव ना करेंगे।
दो नाव की सवारी एक साथ- असम्भव
मेरी चेतना, मेरी सत्ता , मेरा द्रव्य, मेरे गुण, ये सब शाश्वत हैं, ये सब कभी मि टने वा ले नहीं है। हम क्यों मि टने वा ली वस्तु ओं के पीछे पड़े ड़े रहते हैं? हम जिसको भी देखेंगे, जिसकी भी संगति करेंगे उसके द्रव्य से तो नहीं करेंगे, उसकी पर्याय से ही तो करेंगे। हम अपनी पर्याय से एक पर्याय पकड़ रहे हैं। यह ऐसा खेल हो गया कि मानो दो circle हैं और एक circle की परिधि पर, उसके circumference पर कोई व्यक्ति घूम रहा है, तो एक पैर उसने वहा ँ रखा है। अब एक का balance नहीं बन रहा है, तो बगल वा ले की परिधि पर दूसरा पैर रखकर घूमने की कोशि श कर रहा है। कि तना घूमेगा? उसका घुमाव अपना अलग है, उसका अपना परि णमन अलग है और इसका परि णमन अपना अलग है। इसके भाव अपने अलग हैं। उन दोनों के बीच में balance बनाना है। यह और कठि न काम है। दो circle जो अपने-अपने परि णमन से अलग-अलग घूम रहे हैं, अपने outer और inner force के कारण घूम रहे हैं और हम उसमें balance बनाने की कोशि श कर रहे हैं। उस process में अपनी ज़ि न्दगी नि कल गई। इस कोशि श में कौन सफल हो पाएगा? जब तक हमें यह ध्या न नहीं रहेगा कि ये हमारे लि ए और बड़ा खतरे का काम है। जिसको हमने आसान समझ रखा है यह और मुश् किल काम है, यह और खतरे का काम है। तब तक आप उसको अन्य समझकर, अन्यत्व भाव ना के माध्य म से उसको छोड़ कर, अपने एकत्व की ओर आ ही नहीं सकते। जब तक ये शुरुआत नहीं होगी तब तक कोई भी अध्या त्म आपके लि ए सुख दे ही नहीं सकता। जिनवा णी भी आपकी मदद नहीं कर सकती क्योंकि आप मदद लेते ही नहीं। आपका काम इतना ही है, बस! महा राज! आप tablet बता दो। जैसे डॉक्टर के पास जाओ तो बस दवा ई लि ख दो, आप हमारा test कर लो, checkup कर लो। दवा लि खने के बाद, उस दवा को मेडि कल से खरीदना, नहीं खरीदना हमारे मन की बात है और उसको खाना, नहीं खाना भी हमारे मन की बात है। आपके लि ए यह ज्ञा न सब हो रहा है। बारह भाव ना का ज्ञा न हो रहा है, समयसार, प्रवचनसार सब ज्ञा न हो रहा है लेकि न ये सब क्या हो रहा है? सब आप बस दवा ई सुन रहे हो डॉक्टर से, थोड़ा बहुत लि ख रहे हो। वह दवा ई ही लि ख ही रहे हो। खाने की कोशि श नहीं करेंगे। दवा डॉक्टर के द्वा रा लि ख कर दी गई है या लि खी हुई दवा डॉक्टर ने आपको दे दी या आपके कहने से डॉक्टर ने आपको लि खा दी या आपने लि ख ली, वह कोई भी दवा कि सी भी तरह से आप की बीमारी को दूर कर सकती है क्या ? क्या करे? बड़ी परेशानी है। खाए बि ना, उसका सेवन किय े बि ना, कभी भी वह दवा हमारे स्वा स्थ्य को ठीक करने वा ली नहीं है। आप कि तना भी पढ़ लो, सुन लो लेकि न जब तक आप एकत्व भाव ना का भाव , अन्यत्व भाव ना का भाव नहीं लाएँगे, आपके हृदय में पड़े ड़े हुए जो दुःख हैं, उनके जो घाव हैं, उनकी जो पीड़ा है, वह कभी भी भरी नहीं जाएगी, दूर नहीं होगी।
हृदय की पीड़ ा को भरने के लिए एकत्व की भावना करो
इसीलि ए जब बिल्कु बिल्कु ल एकाकी होकर आप अपने एकत्व आत्मा की भाव ना करेंगे तो वह पीड़ा भरने लगेगी। मान लो बाह र से सुख है, वह भी सुख आपके काम में नहीं आ रहा है, उस पि ता की तरह। अब आप के लि ए दुःख ही दुःख है। इस दुःख को भी आप दूर करना चाह रहे हैं पर अब उस दुःख को दूर करने के लि ए डॉक्टर ने हाथ खड़े ड़े कर दिए। अब आप क्या करोगे? अब सबसे ज्या दा वेदना होगी अकेलेपन की। देखो! कैसा स्वा र्थ का संसार है। सब अपने अपने रंग में रंगे हुए हैं और मैं यह कराह रहा हूँ, मैं अकेला पड़ा हुआ हूँ, कोई मेरी तरफ देखने वा ला नहीं है। वह बेटा भी suit-boot-tie लगा कर घोड़ी पर बैठने जा रहा है और मैं यहा ँ पड़ा हूँ। ऐसे-ऐसे case हो गए हैं। सुन रहे हो? बेटी की जिस दिन शादी हुई, शादी से पहले से ही वह लड़ का बीमार था और बीमारी में ही उसकी शादी करनी पड़ी । शादी हो गयी। शादी के दूसरे दिन से ही hospital में admit हो गया और दस दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। अभी यह ीं की दिल्ली की बात बता रहा हूँ। रेवाड़ी की लड़ की थी और यहा ँ दिल्ली शाह दरा में ऐसी शादी हो गई। सब यह ीं देखने को मि लता है। सब आज दुनिया देख रही है लेकि न फिर भी कि सी के अन्दर कोई एकत्व भाव ना, अन्यत्व भाव ना कुछ भी नहीं आता है। अब बताओ! इससे विचित्र स्थिति क्या होगी? लड़ की को पति का कोई सुख नहीं मि ला, एक भी दिन। लड़की वा लों ने कहा कि मानो मेरी बेटी के शादी हुई ही नहीं। जल्दी से अपनी बेटी को अपने घर ले आये। बोले मेरी बेटी की शादी हुई ही नहीं। अब कुछ भी कह लो, सन्तो ष जैसे भी करना है, कर लो। लेकि न कर्म का उदय इतना तीव्र रहता है कि हम उस परि णति को देखकर भी, खेद-खि न्न तो होंगे, अकेलेपन के भाव में ही पड़े ड़े रहेंगे लेकि न एकाकीपन के भाव में नहीं आएँगे, यह कहने का मतलब है। दुनिया सब देख रही है, सब कर रही है पर उसके अकेलेपन को दूर करने का ही प्रया स किया जाएगा, उसको कोई भी एकाकीपने का भाव नहीं दिया जाएगा, एकत्व भाव ना कोई नहीं बताएगा।
पर्या य मूढ़ ता
यह
difference कोई-कोई ही जानता है कि loneliness और onlyness में क्या अन्तर होता है। Loneliness depends on our illusion, वह हमारे भ्रम पर, मोह पर depend करता है। कौन सा? loneliness। जिस के कारण से we attach other person, हम कि सी न कि सी दूसरे व्यक्ति से जुड़ ना चाह ते हैं। हम कि सी न कि सी को अपनी friendship, अपने relationship में लेना चाह ते हैं। जब onlyness का भाव आने लगता है, तो वह हमें अपने से जोड़ ता है, वह दूसरे से नहीं जोड़ ता है। वह कि स से जोड़ता है? अपने से जोड़ ता है। we connect with our own nature, हम अपने स्व भाव से जुड़ ते हैं। जब तक हमें अन्दर यह अपने own nature का ज्ञा न नहीं, अपने own nature से जुड़ ने में हमें सुख-शान्ति नहीं, उसका भाव नहीं तब तक आप कभी भी पर्याय ों से हटकर द्रव्य की ओर आ ही नहीं सकते। शुरुआत यह ीं से की थी, हर व्यक्ति संसार में पर्याय मूढ़ है। जो पर्याय से मूढ़ है वह ी मि थ्या बुद्धि वा ला है, मि थ्या दृष्टि है, जिसको बोलते हैं wrong believer, वह मि थ्या दृष्टि , मि थ्या श्रद्धा रखने वा ला है लेकि न उसकी दृष्टि right कब होती है? जब वह पर्याय से हट कर अपने द्रव्य को स्वी कार करता है।
अतद्भा व
यह
ी यहा ँ पर द्रव्य, गुण, पर्याय ों के उपदेश के साथ बताया जा रहा है। हमारा जो द्रव्य है, हमारे जो गुण हैं वह कभी भी कम नहीं होते, द्रव्य कभी भी विनष्ट नहीं होता। द्रव्य के साथ गुणों का जो एकत्व बना हुआ है, वह हमेशा बना रहता है। पर्याय विनष्ट होती है लेकि न द्रव्य कभी भी विनष्ट नहीं होता है। यह सारा का सारा सारांश के रूप में पहले आपको बताया जा चुका है, आगे भी यह ी बताया जाने वा ला है कि इन सबके बीच में आप द्रव्य, गुण और पर्याय ों को जानकर, इन सबको भि न्न भी जानो और एक भी जानो। भि न्न कैसे जाने? उनके नाम अलग हैं, उनका लक्ष ण, उनके गुण अलग हैं। फिर एक कैसे हैं? जिस space point पर द्रव्य है वह ी space point गुणों का है। वह ी द्रव्य और गुणों का समूह एक परि णति तैया र कर देता है, जिसका नाम पर्याय है। वह क्षेत्र की अपेक्षा से एक ही कहलाता है लेकि न सबका अपना-अपना काम, सबकी identity अलग-अलग है। यह अन्यत्व का भाव जो यहा ँ बताया जा रहा है, उसका प्रयोजन है कि वह अभाव रूप नहीं है। वह अतद्भाव है यानि एक में दूसरा समाहि त नहीं है। द्रव्य अलग समझना, गुण अलग समझना और पर्याय अलग समझना। फिर भी अभाव ऐसा मत समझना जैसे एक वस्तु में दूसरी वस्तु का अभाव है ऐसा अभाव नहीं समझना या केवल अभाव मात्र यानि जैसे कोई उसका sense ही नहीं है, उसका कोई existence नहीं है, ऐसा अभाव नहीं समझना लेकि न एक का दूसरे रूप में नहीं होने रूप अभाव समझना। जैसे पि छली गाथा में आपको बताया था आँख, कान नहीं है; कान, आँख नहीं है मतलब आँख में कान का अभाव है और कान में आँख का अभाव है। यह कैसा अभाव है? अभाव का मतलब यह नहीं है कि यह आँख नहीं है, यह कान नहीं है। एक तो यह हो गया कि आँख ही नहीं है, समझ आ रहा है? जैसे मान लो हमने कहा इस कि ताब की आँख नहीं हैं, एक तो यह अभाव हो गया कि इसमें आँख है ही नहीं लेकि न हमने कहा कान में आँख नहीं है, तो इसका मतलब क्या हो गया ? कान में आँखपने का अभाव है माने कान कभी आँख रूप नहीं और आँख कभी कान रूप नहीं। इसको बोलते हैं- अतद्भाव । इस अतद्भाव को ध्या न में रखते हुए यहा ँ पर उसका व्याख्या न हुआ।

जो द्रव्य है वह कभी गुण हो न पाता, है वस्तु तः गुण नहीं बन द्रव्य पाता।
सो हो रहा अतद्भा व सही कथा है, होता कथञ्चित् अभाव न सर्व था है।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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