प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 17,18 जीवके अनवस्थितपन
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मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

“त् ति जि णोवदेसोयं” यह जिनेन्द्र भगवा न का उपदेश है। क्या है? जो खलु दव्वसहावो जो खलु माने वास्तव में, द्रव्य का स्व भाव है। “परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो ” वह द्रव्य का स्व भाव भूत जो परि णाम है, वही  गुण है। क्या कहा ? जो वास्तव में, द्रव्य का स्व भाव भूत परि णाम है- वह ी द्रव्य है। सदविसिट्ठो अर्था त् वह सत् से अविशि ष्ट है, अभि न्न है, सत् से मि ला हुआ है। जो गुण हैं, वह सत्ता से अभि न्न हैं। सदवट्ठी दं सहावे और स्व भाव में अवस्थि त हुआ वह द्रव्य दव्वं होता है। इस प्रकार से जिनेन्द्र भगवा न ने कहा है। जो स्व भाव में अवस्थि त है वही द्रव्य कहलाता है और जो द्रव्य का स्व भाव है वही  परि णाम उसका गुण कहलाता है और वह गुण ही सत्ता से अभि न्न होता है। यह गाथा का भाव है।
द्रव्य का स्वभाव रुप परिणाम
द्रव्य का जो स्व भाव , सभी द्रव्यों की चर्चा करें तो सभी द्रव्य जो चेतन, अचेतन, कि सी भी रूप में है, उन सभी द्रव्यों का जो स्व भाव भूत परि णमन चल रहा है, वही उसका स्व भाव भूत परि णाम है। परि णाम से यहाँ पर अर्थ है कि जो उत्पा द, व्यय, ध्रौ व्य रुप हर द्रव्य का स्वा भाविक परि णमन चल रहा है वह उस द्रव्य का स्व भाव है। माने उस द्रव्य का, उस पदार्थ का, अपना स्व भाव अपना nature है, जो हर समय प्रत्ये क द्रव्य परि णाम भूत रहता है। परि णाम माने वह उत्पा द, व्यय और ध्रौ व्य इन तीनों ही धर् मों से परि णीत बना रहता है। उसका वह परि णाम इस प्रकार का, उसका गुण कहलाता है। द्रव्य का गुण कहलाता है क्योंकि अब कोई पूछे कि द्रव्य की quality क्या है? द्रव्य का मुख्य परि णाम या भाव क्या है, तो वह क्या है? वह इसी गुण के साथ में रहना यही उसका मुख्य परि णमन है। कौन सा गुण? उत्पा द-व्यय-ध्रौ व्य रूप हर द्रव्य का परि णमन होता रहना यही  उसका मुख्य स्व भाव भूत परिणाम है।


द्रव्य का गुण
यह जो उसका गुण है यह कैसा होता है? सदविसिट्ठो जो सत् जिसकी हम चर्चा करके आए हैं सत् माने अस्तित्व है। वह अस्तित्व इसके साथ अविशि ष्ट है, अभि न्न है मतलब अस्तित्व और द्रव्य यह दोनों चीजें एक दूसरे से मि ली हुई है। कोई भी द्रव्य है, तो उसका अस्तित्व है और जो उसका अस्तित्व है, वह ी उसका द्रव्य है। फिर भी द्रव्य का अस्तित्व जो है वह गुण कहलाता है। इतना अन्तर समझना। कि सी भी पदार्थ का जो अस्तित्व बना हुआ है वह ी अस्तित्व उस द्रव्य का गुण है। मुख्य गुण तो द्रव्य का यह अस्तित्व गुण ही है, सत्ता गुण ही है जिसके कारण से वह पदार्थ का अस्तित्व बना रहता है। कोई भी पदार्थ हो चाह े आत्म पदार्थ हो, चाह े परमात्म पदार्थ हो या कोई भी अनात्म पदार्थ हो। अनात्म का मतलब जीव पदार्थ से रहि त अजीव पदार्थ हो या अपना आत्म पदार्थ हो या परमात्मा का पदार्थ हो। परमात्मा का मतलब जो आत्मा परम शुद्ध हो गई, उस परमात्म द्रव्य का भी परि णमन इसी रूप में चलता रहता है। सत्ता कभी भी छुटती नहीं है। इसको समझ कर अगर हम अपनी दृष्टि को उस ओर ले जाते हैं जहा ँ से ये परि णमन चलता हुआ आया है, तो वह परि णमन क्या होता है। जहा ँ से हर द्रव्य का आगमन हुआ है वह स्था न क्या है? जिसे हम कहते है- नि गोद। क्या बोलते हैं? नि गोद। वह स्था न जहा ँ पर हर आत्मा का अस्तित्व रहा , कि स रूप में रहा ? उत्पा द, व्यय और ध्रौ व्य इस परि णाम रूप रहा । आत्मा के अस्तित्व को आप देखने की कोशि श करें तो वह अस्तित्व हमेशा इसी उत्पा द, व्यय, ध्रौ व्य के साथ बना हुआ मि लेगा। कभी भी वह छूटा नहीं है। यह द्रव्य का स्व भाव है। एक क्ष ण, एक पल के लि ए भी वह अस्तित्व द्रव्य को छोड़ नहीं सकता क्योंकि वह द्रव्य का मूलभूत गुण हैं। मूलभूत उसका स्व भाव परि णाम है। इसलि ए द्रव्य को अगर उसके स्व भाव के साथ देखना है, तो उसके सत्ता गुण के साथ देखें।

द्रव्य की सत्ता का न प्रारम्भ है न अन्त
सत्ता देखना है कि वह सत्ता कब थी, कहाँ थी? तो अपनी दृष्टि past में दौड़ाते चले जाएँ। Future में न दौड़ा करके कहा ँ दौड़ाएँ? past में। जैसे- काल की कोई शुरुआत नहीं। समझ आ रहा है? समय कब शुरू हुआ, काल कब शुरू हुआ, time कब शुरू हुआ? time कभी शुरू होता है क्या ? कोई ऐसा तो नहीं जब से घड़ी आई तभी time शुरू हुआ, उससे पहले time ही नहीं था । time की कोई शुरुआत है, क्या ? जब time की शुरुआत नहीं है, तो वह time के साथ में रहने वा ले पदार्थ भी तो होंगे। नहीं तो time अकेला क्या करेगा? एक सोचने की बात यह है कि हम ये सोचे कि इससे पहले, इससे पहले, इससे पहले, इससे पहले। समझ आ रहा है? मैं 1 घण्टे तक भी बोलूँगा तो भी वह पहला नहीं आएगा। कभी काल की शुरुआत हो सकती है क्या ? जब काल की शुरुआत नहीं तो हम ये क्यों सोचते हैं कि हमारे पदार्थ की शुरुआत है। काल की ही शुरुआत नहीं है, समय तो हमेशा से ही रहा है। जब समय हमेशा रहा है, तो उस समय के साथ परि णमन करने वा ला पदार्थ भी हमेशा रहता है। जब हम काल की दृष्टि से देखते हैं तो भी हमारे लि ए कोई भी प्रा रम्भि क स्था न, प्रा रम्भि क बिन्दु बिन्दु इसलि ए नहीं मि लता क्योंकि वह काल भी हमेशा अपने अस्तित्व के साथ वह अपने अविनाशी द्रव्य के साथ बना रहता है। इसको काल-द्रव्य

कहते हैं। अब काल द्रव्य है, तो काल द्रव्य के साथ अन्य भी द्रव्य होंगे अन्यथा वह द्रव्य कहा ँ से आ जाएँगे? जब एक चीज नि श्चि त हो जाती है कि काल की कोई शुरुआत नहीं है। उस काल के साथ -साथ आप देखोगे क्षेत्र की भी कोई शुरुआत नहीं है। जैसे-आकाश क्षेत्र है। है न! यह जमीन है, तो इसको कोई बनाया जाता है कि यह जमीन है, यह आकाश है इसको कोई बनाता है क्या ? आकाश, धरती ये कोई बनाने वा ली चीज तो है नहीं। क्षेत्र तो ये भी है, ये भी है, ये भी है। इससे भी आगे, इससे भी आगे, इस से भी परे क्षेत्र का कोई अन्त है? अगर आप वर्त मान विज्ञा न के अनुसार देखोगे तो भी आपके लि ए क्षेत्र का जो अन्त दिखाई देता है, तो वह अन्त विज्ञा न के हि साब से तो हो सकता है लेकि न वस्तु तः वो क्षेत्र का कोई अन्त नहीं है। इतने से क्षेत्र में क्या होगा? कुछ भी व्यवस्था नहीं है उस क्षेत्र में और उस क्षेत्र में न कहीं पर कोई स्वर ्ग है, न कहीं पर कोई नरक है, न कहीं मोक्ष है। कहीं भी कुछ नहीं है। उस क्षेत्र से क्या होगा? वह क्षेत्र हो, काल हो, इन सब को हम past में देखते चले जाएँ।

शाश्र्व त पदार्थों के चिन्तन से मन की स्थि रता
आप कहते हो न, क्या चिन्तन करें महा राज, सामायि क में मन नहीं लगता। मन आप लगाना नहीं जानते हो, मन तो सबका लग जाता है। मन को लगाने के लि ए जो शाश्वत चीजें हैं उस में मन लगाओ। कि स में मन लगाओ? हम मन को लगाते हैं क्षणि क चीजों में, इसलि ए मन नहीं लग पाता है। लेकि न मन को लगाना कि स में चाहि ए? जो permanent चीजें हैं, जो शाश्वत पदार्थ हैं उसमें मन को लगाओ। काल द्रव्य है, शाश्वत है। आकाश द्रव्य है, शाश्वत है। क्षेत्र कभी भी मि टता नहीं, काल कभी भी मि टता नहीं। इससे पहले भी क्षेत्र था , उसके आगे भी और क्षेत्र हैं उसके आगे भी और क्षेत्र हैं, उसके आगे भी और क्षेत्र हैं, क्षेत्र माने स्था न space उसके आगे और हैं, और हैं और हैं। ऐसा करते चले जाओ, लोक के अन्त तक भी करते चले जाओ, ऊपर भी करते चले जाओ नीचे भी करते चले जाओ। इस आजू-बाजू सब जगह करते चले जाओ। क्या करते चले जाओ? इसके बाद यह क्षेत्र है, यह क्षेत्र है भले ही हम उसका नाम नहीं जानते हो लेकि न ये space और है, और है, और है। ऐसा करते-करते आपको लोक का अन्त तो आ जाएगा लेकि न उस लोक के बाह र भी और अलोकाकाश है, उसका भी कोई अन्त नहीं है। उसमें आप जितने अन्दर, अन्दर, अन्दर जाते चले जाओ, चले जाओ उसको जो कोई भी है उसका अन्त होने वा ला नहीं है। अगर हम ऊपर की ओर जाएँगे लोक में तो लोक की अपेक्षा से हम स्वर ्ग से होते हुए सि द्ध लोक तक पहुँ च जाएँगे। वहा ँ जो है ऊपर का स्था न लोक की अपेक्षा से अन्त को प्राप्त हो जाएगा। नीचे हम जाएँगे तो 7 नरकों के बाद में एक और 7 नरकों के बाद के जो स्था न हैं जो कलकला नाम से कहा जाता है उसके नीचे पहुँ च जाएँगे तो लोक का अन्त हो जाय ेगा। इधर आजू-बाजू देखेंगे तो असंख्या त दीप समुद्र हैं, मध्य लोक में तो उस पर जाकर लोक का अन्त हो जाएगा। उसके बाद का जो क्षेत्र है जिसे अलोकाकाश कहते हैं, वह अलोकाकाश तो अनन्त रूप होता है। उसमें कोई अन्त नहीं होता है। अलोकाकाश, आकाश ये अनन्त रूप है। ‘आकाशस्या नन्ता :’ आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। आकाश के इन अनन्त प्रदेशों में अपना मन घूमाते चले जाओ, उसके बाद और आकाश और क्षेत्र और space और space और space और space मन को लगा दो। यह जानने की कोशि श करो कि यह कहा ँ तक जा रहा है? देखो मन की कि तनी उड़ा न है। अब देखो तुम मन को एक ऐसा आकाश दे दो जिसमें वह उड़ ता चला जाए। अभी तो आप छोटा-मोटा आकाश दे देते हो तो वह थोड़ा सा उड़ ता है फिर दूसरी जगह चला जाता है, फिर दूसरी जगह चला जाता है। उसको बि लकुल छोड़ दो अनन्त में। काल की अपेक्षा से भी अनन्त की ओर छोड़ दो और क्षेत्र की अपेक्षा से भी अनन्त में छोड़ दो। अनन्त काल की ओर जाने दो मन को बस। मन से कहो अनन्त का चिन्तन करो, अनन्त क्षेत्र है, अनन्त काल है। बस इसके बारे में सोचो। इससे पहले भी था , इससे पहले भी समय था , इससे पहले भी समय था । इससे पहले भी क्षेत्र था इससे पहले भी क्षेत्र था , इससे पहले भी यह क्षेत्र था ।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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