प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 17,18 जीवके अनवस्थितपन
#4

अपनी आत्मा का ध्यान ही धर्म ध्यान है

ऐसे ही लगाया जाता है, आत्मा का ध्या न। इसलि ए इस ध्यान को कहते हैं- संस्थान वि चय धर्म ध्यान। एक धर्म ध्यान, एक दिन पहले बताया था न- आज्ञा विचय। वह पहले नम्बर का ध्या न है और चौथे नम्बर का जो ध्यान है, वह है यह संस्थान विचय धर्म -ध्यान। उस धर्म -ध्यान का first point बताया था , एक दिन आपको। आपको ध्यान हो तो आज्ञा विचय है। 4 धर्म ध्यान होते हैं। नाम लिख लो अगर लि खना हो तो। पहला धर्म ध्यान होता है= आज्ञा विचय धर्म -ध्यान, 
दूसरा होता है- अपाय विचय धर्म -ध्यान, 
तीसरा होता है- विपाक विचय धर्म -ध्यान, 
और चौथा होता है- संस्थान विचय धर्म -ध्यान। 
आज्ञा विचय ,अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय।
ये संस्था न विचय धर्म ध्या न हम आपके लि ए बता रहे हैं। ये आपको इसीलि ए नहीं होता क्योंकि आपको लोक के संस्था न की माने आकार की knowledge नहीं होती। उसमें कि तने द्रव्य, कि तनी आत्मा एँ, कि तने शरीर, कि तनी अवगाह नाएँ, कि तनी वहा ँ की height इत्या दि, कि तनी उम्र। ये सब चीजें जब होती हैं तो उसी में मुनि महा राज अपना मन लगाए, लगाए, लगाए उस मन को थका-थका करके बिल्कु बिल्कु ल उसे राग-द्वेष से रहि त बना लेते हैं। इसलि ए जो ये धर्म -ध्या न हैं ये मुनि महा राज ही मुख्य रूप से कर पाते हैं। इसलि ए आपको नहीं होता क्योंकि आप को अपने घर की कोठी और दुकान के अलावा कोई तीसरी चीज मालूम नहीं होती। समझ आ रहा है? जब आप इसको इस रूप में फैला कर अपने ज्ञा न में इस रूप से चिन्तन करोगे तो ये आपके लि ए धर्म ध्या न का कारण बनेगा। इसलि ए कहा है कि छोटी-मोटी चीजों में मन लगाने से कभी मन लगता नहीं है। उसको कुछ अच्छा विस्ता र दो। जो मन है अपने आप बच्चे की तरह घूमते-घूमते घूमते-घूमते जब सो जाएगा, थक जाएगा, फिर आपको अपनी आत्मा की अनुभूति आनन्द से होगी क्योंकि अब मन तो सो गया । ऐसा कभी आपके साथ तो होना नहीं है। आप कहोगे यहा ँ लगाया , वहा ँ लगाया । यहा ँ लगाया णमो अरिह ंताणं, णमो सिद्धा णं। अब मन लगाने में ही तुम अपना मन खराब कर रहे हो और मन लगाने में ही tension ले रहे हो तो उससे क्या मि लने वा ला? ऐसे कभी मन लगता ही नहीं। क्या सुन रहे हो? मन लगाने के लि ए भी tension लेना पड़े ड़े तो मन लगेगा कैसे? मन कभी भी tension के साथ नहीं लगता है। मन तो बिल्कु बिल्कु ल सहज स्व स्थ भाव के साथ लगता है और वह स्व स्थता तब आती है जब आपके अन्दर और कोई बाह री चीजों की चिन्ता न पड़ी हो। नि श्चि न्तता अगर आई तो मन लगेगा और चिन्ता आई तो मन नहीं लगेगा। क्या समझ आया ? बाह री चीजों की चिन्ता ? कोई भी चिन्ता बाह री चीज की। चलो हम ध्या न करने बैठ गए। बेटी आ गई होगी स्कू स्कू ल से 3:00 बजे का time हो गया । अरे ध्या न तुम यहाँ  कर रहे हो कि बच्चा स्कू स्कू ल से आ रहा है, यह ध्या न कर रहे हो। जब तक बैठे हो आँख खोलकर तब तक या द नहीं आएगी और जैसे ही आँख बन्द करके बैठोगे सबसे पहले वही  याद आएगा। यहाँ  बैठा हूँ, दुकान बन्द करके तो आया नहीं, नौकर को बि ठा आया , कहीं वह चाय पीने न चला गया हो। वो ध्या न आ गया है। यहाँ बैठी हूँ, आज काम वा ली आई नहीं। सुबह के बर्त न धुले नहीं। शाम का भोजन कैसे बनेगा? ये क्या होता है? आप बाह री चिन्ता से मुक्त नहीं हो इसीलि ए आपका मन लगता नहीं। अब आप अपने मन को लगा रहे हो, णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं। महा राज ने एक माला फेरने का निय म दे दिया है। शाम को भोजन कैसे बनेगा? णमो अरिहंताणं! णमो सिद्धा णं! आपका मन इसलि ए नहीं लगता क्योंकि आपने मन को नि श्चि न्त नहीं बनाया । पहले मन को क्या बनाओ? नि श्चि न्त। नि श्चि न्त का मतलब सो नहीं जाओ। कोई चिन्ता नहीं बाह र की, कोई हमें फिक्र नहीं, ऐसा सोच कर जब बैठोगे तब आपके लि ए कि सी भी चीज में थोड़ा सा मन लगेगा। तब भी ज्या दा नहीं लगेगा, तब भी थोड़ा सा लगेगा। मन का यह स्व भाव है कि उसे पहले उसे चिन्ता से रहि त किया जाए। चिन्ता से रहि त होगा तो फिर आप मन को यह जो ज्ञान के विषय दिए जा रहे हैं इनमें जहाँ कहीं पर भी उसको ले जाओगे वह चला जाएगा। ये कब होता है? जब बाह री कोई चिन्ता नहीं पड़ी हो। इसीलि ए कहा जाता है कि जब तक आपके पास में घर है, दुकान है, पत्नी है, बेटे हैं, गाड़ी है, बंगले हैं, ग्राह क हैं, रि श्तेदार हैं, सम्बन्धी हैं तब तक आपका मन निश्चिन्त नहीं होगा। क्या करोगे फिर? बस अब लोग पूछते हैं न कि मुनि महाराज क्यों बनना चाहि ए? साधु क्यों बनना चाहि ए? बाह री नि श्चि न्तता को लाने के लि ए आपको यह सब चीजें छोड़ देनी पड़ेंगी।
धर्म
ध्यान प्रमाद रहित अवस्था में होता है
जब तक बाह री नि श्चि न्तता नहीं आएगी तब तक भीतर की नि श्चि न्तता की शुरुआत नहीं होती। धर्म -ध्यान की। इसलि ए कहा गया है, धर्म -ध्या न वास्तव में जो शुरू होता है वह अप्रमत्त गुणस्था न से शुरू होता  है। सातवें गुणस्था न से धर्म -ध्या न शुरू होता है, ऐसा एक आचार्य महा राज का कहना है। माने एक पूर्व आचार्यों का? एक ऐसी परम्परा है। आप लोग कहते हैं चौथे गुणस्था न से शुरू हो जाता है। वह भी एक परम्परा है। सम्यग्दर्श न के साथ धर्म -ध्या न शुरू हो जाता है। ये भी मान लिया जाता है लेकि न मुख्य रूप से जो धर्म ध्या न शुरू होता है, वह कहाँ  से? अप्रमत्त गुणस्था न से। मुनि महा राज के लि ए भी जब प्रमत्त गुणस्था न है, प्रमत्त का भाव है मतलब प्रमाद का उदय चल रहा है तब तक वह भी धर्म -ध्या न नहीं कहेंगे। वो होगा लेकि न उपचार से कहा जाएगा, मुख्यता से नहीं। मुख्य का मतलब जिसका नाम वास्तव में धर्म -ध्या न ही कहा जाए तो वह मुख्य धर्म -ध्या न जो है, वह अप्रमत्त अवस्था के साथ ही होता है। बिल्कु बिल्कु ल प्रमाद रहि त अवस्था । जब वहाँ  धर्म -ध्या न शुरू हो रहा है, तो अब आपका ध्या न कि समें होगा यह आप सोच लो। अतः दूसरे आचार्यों ने आपके लि ए जो धर्म ध्या न कहा है कि भाई सम्यग्दृष्टि हो गया तो इसके लि ए धर्म -ध्या न कहना चाहि ए, यह भी धर्म -ध्या न होता है। चौथे गुणस्था न से भी धर्म -ध्या न शुरू हो जाता है। वह कि स रूप में हो जाता है? वो सिर्फ सिर्फ इतने रूप में हो जाता है कि आपकी श्रद्धा , आपका विश्वा स इस बात पर आ गया कि यह तीनों लोक हैं। इसमें यह छह द्रव्य भरे पड़े ड़े हैं। हमारा भी आत्मा उसमें एक द्रव्य है। उस द्रव्य का हमारा अस्तित्व बना हुआ है। अनादि-अनि धन मेरा आत्मा द्रव्य है। ऐसा जो हमने अपने विश्वा स में ज्ञा न में बि ठा लिया और वह बैठा हुआ है, तो वह भी एक धर्म -ध्या न कहलाता है, सम्यग्दर्श न के साथ में। मन का स्व भाव तो है, चिन्ता करते रहना। दुकानदारी करते रहना तो वह भी चलता रहता है लेकि न विश्वा स तो भीतर पड़ा रहता है। इसीलि ए भी आचार्य कहते हैं कि चलो गुणस्था न से भी धर्म -ध्या न होता है लेकि न वह भी कैसा है? मुख्य रूप से धर्म -ध्या न नहीं है। वह सब काम चलाऊ है, उपचार से है। मुख्य रूप से धर्म -ध्या न प्रमाद से रहि त होकर बाह र और भीतर से जो नि श्चि न्तता आती है, उस से शुरू होता है। ये इतनी मनोवैज्ञानि क चीजें हैं कि हम इसको समझने के लि ए अगर प्रया स करे तो समझ में आएगा कि हमें बाह री चीजों से क्यों बचना? बाह री चीजें क्यों छोड़ ना? समझ आ रहा है? कुछ लोगों को शौक होता है ये छोड़ दो, वो छोड़ दो। छोड़ तो दो करोगे क्या छोड़ कर? पहले यह तो पता होगा। कि सी को कुछ पता नहीं होता है, तो वह प्रश्न खड़ा करते हैं कि छोड़ ने से क्या होता है? नि श्चि न्तता आती है। जब कुछ हमारा है ही नहीं, कुछ भी जल जाए, मर जाए, कट जाए क्या फर्क र्क पड़ रहा है? कोई नि श्चि न्तता है नहीं? आप सोचो तो आपकी चिन्ता कहाँ  लगती है? जहा ँ पर आप ने यह मान लिया कि यह मेरा है। बस उसी में आपको चिन्ता लग गई कि मि ट न जाए, जल न जाए, कट न जाए, नष्ट न हो जाए? अगर नहीं है, तो कुछ नहीं है। आप यहाँ  बैठे हो आपके घर में चोर चला गया । डरो नहीं! अभी नहीं गया । अब ऐसा होने लगा है। दिल्ली में भी ऐसा होने लगा है। अभी कल ही कोई बता रहा था कि एक महि ला यह ीं पर है, जो आहा र देने गई। उसके घर पर चोर घुस गए। मतलब दिल्ली में तो यह बड़ी आम बात हो गई है। कोई भी colony safe नहीं है। चलते रास्ते चेन खींच लेना, पर्स खींच लेना है, mobile खींच लेना, सब आम बात है। अब आपके लि ए जब वहा ँ पर यह भाव आया कि मेरा घर है। कि सी ने खबर दी, flat - 361 में चोरी हो गई। अब जैसे ही यह नम्बर सुनोगे कि सके लि ए चिन्ता पड़े ड़ेगी? जिसका होगा उसको ही पड़े ड़ेगी। जो बगल में बैठा होगा उसके बगल वा ला उठेगा। भाई! मेरे घर में चोरी हो गई मैं जा रहा हूँ। हा ँ ठीक है, तू जा मैं तो अभी प्रवचन सुन रहा हूँ। उसको कुछ नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि उसका नहीं है। उसका नहीं है, तो वह नि श्चि न्त होकर सुनता रहेगा और जिसका होगा तो वो उसी समय उठ कर जाएगा। बोलेगा महा राज! आप के प्रवचन तो बाद में सुन लूँगा पहले देखूँ तो घर में क्या -क्या ले गया , क्या नहीं ले गया , क्या समझ में आ रहा है? चिन्ता हमारी बाह री चीजों से जुड़ी हुई है और उसी बाह री चीजों के कारण से जुड़ी चिन्ता में पड़ा हुआ मन कहाँ  लगेगा? जहाँ  मन जुड़ा है उसी में तो लगेगा। आपका पैसे कमाने में मन है। आप आँख बन्द करके बैठ जाओ तो पैसे ही पैसे दिखेंगे। आपको कुछ नहीं दिखेगा। आपका मन जिस चिन्ता में पड़ा है, आपके लि ए मन वहीं पर लगेगा और इसलि ए वह धर्म -ध्या न हो नहीं पाता।


द्रव्य, गुण और उनके अस्तित्व की अभिन्नता का श्रद्धान्
गृहस्थ अब क्या करें? आचार्यों ने कहा कि भाई कम से कम तू ध्या न की बात तो छोड़ । तू कम से कम श्रद्धा न और ज्ञा न ही कर ले अच्छे ढंग का। क्या कर ले, हा ँ श्रद्धा न और ज्ञा न कर ले। विश्वा स ही कर ले कि सी चीज पर ढंग से। जिनेन्द्र भगवा न का यह उपदेश है, इस पर विश्वा स कर ले। ‘जि णोवदेसोयं’ यह जिनेन्द्र भगवा न का उपदेश है कि जो द्रव्य का स्व भाव है वह अपने गुणों से अभि न्न रूप के साथ चलता है और वह सत्ता स्व भाव द्रव्य का हमेशा अपने गुण के साथ बना रहता है। यह श्रद्धा न कर ले। मेरी आत्मा का द्रव्य, मेरे ज्ञा न, दर्श न, सुख आदि गुणों का अस्तित्व हमेशा आत्मा में अभि न्न रूप से बना हुआ है। यह कभी भी न नष्ट हुए हैं, न होंगे। इतना श्रद्धा न कर ले। फिर घर का काम करते रहना, दुकान करते रहना कोई बात नहीं। इतना विश्वा स तो कर ले। वह भी नहीं करता। अब इतना विश्वा स कर लेगा तो चल तेरे लि ए क्या हो जाएगा? तेरे लि ए धर्म -ध्या न एक उपचार से कहने-सुनने लाय क, एक तेरे लि ए धर्म -ध्या न कहने में आ जाएगा। मतलब जो धर्म -ध्या न आगे के लि ए हमें मुख्य रूप से बनाने का कारण हो उससे पहले का वह धर्म ध्या न उपचार से अभी तेरे लि ए कहने में आ जाएगा कि हाँ  भाई! तेरा भी धर्म ध्या न चल रहा है। सम्यग्दर्श न चल रहा है, तो इतने श्रद्धा न और विश्वा स को बनाए रखने के बाद ही वह धर्म -ध्या न की शुरुआत होती है। जिसकी यह भी श्रद्धा और विश्वा स नहीं है, क्या धर्म ध्या न करेगा, मन लगाने के लि ए बैठ जाता है और मन कहीं का कहीं चलता रहता है। वह अपना सब काम करता रहता है आचार्य कहते हैं ये जिनेन्द्र भगवा न का उपदेश है, जैसा अपने आत्म द्रव्य के लिये  लगाना वैसे ही सब आत्म द्रव्य के लिए लगाना और इसी में मन को लगा तो, तेरा कुछ ना कुछ धर्म ध्या न होता रहेगा। मन को केवल दुनिया के बाह री कौन सी चीज का क्या भाव चल रहा है? कौन से rate down हो गए? कि स के rate बढ़ गए हैं? कौन सा plot बि क गया ? कौन सा कहाँ  पर छूट गया ? इसी में लगा रहेगा तो कभी भी धर्म -ध्यान होने वा ला नहीं। मन तो उस में ही लगा है न, मन को उस विषय में लगा ले, जिनेन्द्र भगवा न के उपदेश में, जो बात कही गई है। उसमें अगर मन को लगा देते हैं तो वह धर्म -ध्या न का नाम पा लेता है। जितना लग जाए उतना लग जाए, विश्वा स करले, इतना भी हो जाए तो भी वह धर्म -ध्यानी कहलाने का अधि कारी हो जाता है। मुख्य रूप से नहीं सही, उपचार से ही सही। शुरुआत तो होती है कहीं न कहीं से तो यही बात यहाँ  पर कहीं जा रही है। इसीलिए आचार्य कहते हैं:-


“द्रव्यत्व का स्व परिणाम सदा सुहाता, अस्तित्व धाम गुण सो जिन शास्त्र गाता।
सत्ता स्वभाव भर में स्थित द्रव्य सोही , है सत्त रहा कि इस भांति कहें विमोही ”

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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