प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 19,20 किस कारण से पुद्गल का सम्बन्ध होता है ?
#3

शत्रु और मित्र का भेद केवल दृष्टि में है

आचार्य कहते हैं:- जो व्यक्ति आज आपका मित्र है, वह पहले कभी आपका शत्रु था और जो आज आपका शत्रु है, वह भी पहले कभी मित्र था । व्यक्ति वह ी था । सत् उत्पा द की दृष्टि से वह ी व्यक्ति है वह लेकि न असत् उत्पा द की दृष्टि जब सामने आती है, तो हमें जिस समय पर जो मित्र होता है, हम उसको मित्र समझते हैं। जिस समय पर जो शत्रु होता है, उसे हम शत्रु समझते हैं। यह कि सकी दृष्टि होती है? ये पर्याय की दृष्टि होती है, जो असत् उत्पा द के रूप में हमारे सामने आती है। मान लो कोई व्यक्ति है। आपको उसको देखकर एकदम से मन में भाव आ जाता है कि ये वह ी है। समझ आ रहा है? जैसे ही वह व्यक्ति आपके सामने आएगा तो आपके दिमाग में उससे सम्बन्धि त जितनी भी पूर्व धारणाएँ हैं, वे सब आपके दिमाग में आ जाएँगी। उन सब पूर्व धारणाओं के साथ जो आपके सामने व्यक्ति आ गया , वह व्यक्ति आपके लि ए पूरे रूप से देखने में नहीं आएगा। दोनों आपको उसका बचपना भी दिखाई देगा, आपका उसके साथ पहले हुआ अच्छा व्यवहा र भी दिखाई देगा। वह पहले ऐसा नहीं था अब ऐसा हो गया है। ऐसा सोच कर आपकाे उसके प्रति गुस्सा अधि क नहीं आएगा, जो पहले अधि क आ रहा था । लेकि न अक्सर क्या होता है? हम कि सी व्यक्ति को जैसे ही देखते हैं तो हम उसके बारे में एकदम से निर्णय ले लेते हैं कि नहीं? ये तो ऐसा ही था , ऐसा ही है। अब अगर कोई आपसे उस समय पूछे, ये ऐसा ही था । मतलब ये ऐसा ही था , जन्म से ही ऐसा था । जन्म से ही ऐसा है। मतलब आपको उसकी जो जानकारी है, वह जन्म से है। बच्चे के रूप में था तब भी वह आपकी दृष्टि में ऐसा ही था । क्या समझ आ रहा है? यदि नहीं था , बाद में हुआ तो आप उसके दोनों रूपों को देखो। दोनों रूप देखोगे तो गुस्सा नहीं आएगा। एक रूप देखोगे तो गुस्सा आएगा। एक पर्याय को देखोगे तो आपके दिमाग में गुस्सा आएगा। उसके द्रव्य को भी देखोगे तो गुस्सा नहीं आएगा। पहले वह कुछ और भी था लेकि न अभी हमसे ऐसा कह दिया । जब से उसने हमसे ऐसा कह दिया तब से हमको इससे गुस्सा आ गया । तब से हमारे दिमाग में आ गया कि व्यक्ति ऐसा है। समझ आ रहा है? हमेशा से तो ऐसा नहीं था । हमेशा भी वैसा नहीं रहेगा।

म अपने दिमाग में जो भी धारणाएँ बना कर के रख लेते हैं कि सी भी व्यक्ति के लि ए, वह भी हमारे ही अपने इस ज्ञा न की कमी के कारण से होती हैं। पूरा ज्ञा न रखो। द्रव्यार् थिक नय से उसके समूचे द्रव्य को देखने की कोशि श करो तो आपके लि ए यह भी ज्ञा न आएगा कि व्यक्ति वास्तव में ऐसा था नहीं, अभी-अभी ऐसा दिखने लगा है, ऐसा हो गया है। चाह े मान लो, वह आपको बुरे के रूप में दिखाई दे, चोर के रूप में दिखाई दे, झूठ बोलने वा ले के रूप में दिखाई दे, अहंकारी के रूप में दिखाई दे। कि सी भी बुराई के रूप में दिखाई दे। आप यह सोचो कि यह बुराई उसके अन्दर हमेशा से थी कि अभी-अभी आई है या अभी-अभी दिख रही है। हमेशा से थी तो कब से थी? गर्भ से ही थी कि बाद में दो, चार, दस साल बाद जब बड़ा हो गया तब से उत्प न्न हुई है। आपकी लड़ा ई कोई लम्बी लड़ा ई नहीं होती कि सी से। गर्भ से तो कि सी की लड़ा ई रहती नहीं। लड़ा ई तो बाद में दो, चार साल के एक व्यवहा र से बन जाती है। हम उस समय भी यदि अपने मन की धारणा छोड़ दे तो हमें लगेगा कि जिस के साथ हमारी नहीं बनती है, वह भी आपको बनती हुई दिखाई देने लगेगी। क्या समझ आ रहा है? चीजें तो सब एक ही जैसी बनी हुई हैं न। यहा ँ क्या कह रहे हैं?

प्रत्येक द्रव्य का यही स्वभाव है
द्रव्य का स्व भाव ही है- द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायर् थिक नय से, उत्प न्न होते रहना। जो द्रव्यार् थिक नय से बन गया , वह भी बना हुआ है। जो पर्यायार् थिक नय से बन गया , वह भी बना हुआ है। हर द्रव्य, हर पर्याय के साथ में बन ही रहा है। हर द्रव्य से हर पर्याय उत्प न्न हो ही रही है। जब सब चीजें एक समान बन रही हैं तो फिर हमारी कि सी से बन रही है, कि सी से नहीं बन रही है, यह हमारे अपने राग-द्वेष का परि णाम है। वस्तु के स्व भाव का परि णाम नहीं है। क्या समझ आ रहा है? मतलब पदार्थ का पदार्थ के साथ तो मेल है क्योंकि हर द्रव्य, द्रव्य है लेकि न हमारा कि सी से मेल नहीं है, तो उस द्रव्य के साथ हमारा मेल नहीं है। इसका मतलब है कि हमारे बीच में कोई दूसरी चीज आ गई। जिसने उस मेल मि लाप को तोड़ दिया । वह चीज क्या है? वह चीज है, हमारे कर्म के कारण से उत्प न्न हुए राग-द्वेष के भाव । ये राग-द्वेष के भाव जब सामने आ जाते हैं तो यह कहने में आता है कि हमारी इससे नहीं बन रही। क्या समझ आ रहा है? कभी तीर्थं करों ने कहा कि हमारी कि सी से नहीं बन रही है? कभी जो मोक्ष जाने वा ले महा पुरुष हुए उन्हों ने कहा कि हमारी इनसे नहीं बन रही है? सामने वा ला भले ही कहता रहे कि हमारी तुमसे नहीं बन रही लेकि न जो इस ज्ञा न को धारण करने वा ला होगा, वह कभी नहीं कहेगा कि हमारी तुमसे नहीं बन रही है। नहीं बनने का मतलब क्या है? हम वस्तु को यथा र्थ रूप से जान नहीं रहे हैं और हम मध्य स्थता के भाव से उसके साथ व्यवहा र नहीं कर रहे हैं। हम या तो द्वेष के साथ ही व्यवहा र करते हैं या राग के साथ ही करते हैं। कि सी के साथ हमारी नहीं बन रही तो मतलब द्वेष के साथ व्यवहा र कर रहे हैं। जैसे ही वह व्यक्ति सामने आता है, हमारा द्वेष परि णाम उसके सामने उभर कर आ जाता है। पूर्व धारणाएँ हमारे सामने आ जाती हैं। यह व्यक्ति चोर है, यह व्यक्ति झूठा है, यह व्यक्ति धोखेबाज है, यह व्यक्ति अहंकारी है। अतः ये जो बातें हमारे सामने आती हैं, ये हमारे अन्दर के द्वेष परि णाम से उभर कर आती है। हम अपनी मध्य स्थता नहीं बनाए रख पा रहे हैं, इस कारण से वह व्यक्ति हमारे लि ए बुरा हो जाता है। वस्तु तः व्यक्ति कभी भी कोई बुरा नहीं होता है। उसके द्रव्य को देखो, उसके आत्म द्रव्य को देखो। आपको वह उतना ही अच्छा लगेगा, जितना आपको अपनी आत्मा का द्रव्य अच्छा लगता है। क्या समझ आ रहा है?
एक ही द्रव्य है, जब उसमें उत्पा द होता है, तो उत्पा त सा भी महसूस होने लग जाता है। जैसे mobie में कभी भी अचानक कि सी का call आ जाए और आप नहीं चाह रहे हो कि अभी यह call आए पर वह आ रहा है। आप बार-बार उसको मना कर रहे हो पर वह तो बार बार उधर से आता ही जा रहा है। आ रहा है, वो तो उत्पा द हो रहा है लेकि न आपके लि ए क्या हो रहा है? वह उत्पा त हो रहा है। क्यों हो रहा है, उत्पा त? अभी हम नहीं चाह रहे हैं। इसी का नाम उत्पा त है। जिस समय पर हमें जो चीज चाहि ए उस समय पर वह मि ल जाए तब तो वह द्रव्य अच्छा है। वह तो उत्पा द हो गया , अच्छा और जिस समय जो चाहि ए वह उस समय पर नहीं मि ल रहा या जिस समय पर नहीं चाहि ए उस समय पर मि ल रहा है, तो इसका नाम हो गया , उत्पा त। बस यह हमारे लि ए झगड़े ड़े का कारण बन गया । आपका प्रिय mobile भी आपको अभी गुस्से का कारण बन जाएगा। आपको बुरा लगने लगेगा। लेकि न जिसका call आ रहा है वह ी थोड़ी देर बाद जब आप उसको सुनोगे, जा करके देखोगे, अच्छा तुम बोल रहे थे। तुम्हें पता नहीं था कि अभी क्ला स चल रही है, महा राज प्रवचन कर रहे हैं और हम यहा ँ बैठे हैं। क्यों बार-बार रि ंग कर रहे थे? उधर से जवा ब मि लेगा, हमें क्या पता था कि क्ला स चल रही थी। अब आगे ध्या न रखना। ठीक है, अब आगे ध्या न रखेंगे लेकि न अभी तक तो पता नहीं था । आपके अन्दर उस समय पर तो उससे क्रो ध आ ही गया न। अब देखो वह व्यक्ति यहा ँ नहीं है। जिस व्यक्ति ने आप को call किया है, वह आपका सम्बन्धी है आपको उससे राग है। सुन रहे हो? लेकि न अभी इस समय पर आपको उससे बात नहीं करनी है, तो आप उसको मना कर रहे हो। चुप हो जा, मान जा, बन्द हो जा। आपको गुस्सा आ रहा है। ये गुस्सा कि सके प्रति आ रहा है? जब आप देख रहे हो कि उसका नाम आ रहा है, ये वह ी व्यक्ति बार-बार फोन कर रहा है, तो आपको उसके प्रति गुस्सा भी आ रहा है। जो आपके लि ए राग का कारण है, वह ी आपके लि ए द्वेष का भी कारण बन रहा है। वह ी थोड़ी देर बाद जब आपसे कहेगा, हम आपको call इसलि ए कर रहे थे कि आपको जो पैसा देना था , वह पैसा हम आपके खाते में डाल दिए हैं। समझ आ रहा है? अच्छा ! तब तो बहुत अच्छा हो गया है। अब उससे जो द्वेष होने वा ला था वह क्या हो गया ? अब राग हो गया । कहा ँ है राग और द्वेष? वस्तु में? कि सी दूसरे में? हम जो चाह रहे हैं वह होता जाए। जो नहीं चाह रहे हैं, वह नहीं हो।


हमारी दृष्टि कब बदलेगी?
मान लो जिस व्यक्ति ने आपको call किया है, उस व्यक्ति के प्रति अपनी धारणा बना हुई है कि यह व्यक्ति हमें कुछ परेशान करने के लि ए call करता है, तो आपने उसे मना कर दिया या कि सी भी तरीके से उसे रोक दिया था । बाद में आपने फिर पूछ लिया , भाई बता, क्यों बार-बार परेशान करता है। वह कहता है कि हमें तुम्हें पैसा देना था । उसे हमने account में जमा करना था , इसलि ए। क्या हो गया ? आपकी धारणा एकदम से बदल गई। हम आपसे पूछते हैं कि यदि वह व्यक्ति आपके साथ अच्छा या आपके अनुकूल व्यवहा र न भी करें तो भी आपकी धारणा उसके प्रति बदलनी चाहि ए कि नहीं? प्रश्न यहा ँ खड़ा होता है। वह आपके लि ए कुछ अच्छा या आपके अनुकूल नहीं भी करे तो भी आपकी धारणा उसके प्रति बदलनी चाहि ए कि नहीं? यह प्रश्न है। हम जिसको हमेशा अपने शत्रु के रूप में, द्वेषी के रूप मे देख रहे हैं, क्या हम उसे हमेशा ऐसे ही देखते रहेंगे? यदि हम उसे ऐसे ही देखते रहेंगे तो द्वेष उसके अन्दर नहीं है, हमारे अन्दर है। द्वेष से कर्म बन्ध कि सको हो रहा है? द्वेष के कारण हमारा उससे जो वैमनस्यता और बैर का भाव बढ़े ढ़ेगा, वो कि से दुःख देगा? हमें ही दुःख देगा। क्या समझ आया ? वो हमें ही दुःख देगा।
जिसके अन्दर द्वेष है और उस परिणाम से जो दुःख उसके अन्दर होता है, वही बाद में दुःख का कारण
जिसके अन्दर द्वेष है, द्वेष परि णाम से उत्प न्न होने वा ला वह दुःख भी उसी के अन्दर जमा हो रहा है और वह ी जमा होने वा ला दुःख बाद में भी उसके दुःख का कारण बनने जा रहा है। ये बात जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक इस द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय का उपयोग करना हम सीख नहीं पाएँगे। उपयोग कि ससे होगा? पर्याय के साथ उसके द्रव्य को भी देखो और द्रव्य के साथ उसकी पर्याय को भी देखो। क्या सुन रहे हो? राव ण है, सीता है, राम है और लक्ष्मण है। इन सब की वर्त मान में स्थिति क्या है? राव ण तो चलो नरक में गया , सीता स्वर ्ग में गई। राव ण का सीता के प्रति कैसा भाव था ? राग का भाव था या द्वेष का भाव था ? राग का भाव था । आपको लग रहा है कि राव ण का सीता के प्रति राग का भाव है लेकि न वह राग का भाव कब तक था ? जब तक उसने उसका हरण नहीं किया । जब उसको वह हरण करके ले आया , हरण करने के बाद भी उसको मनाता रहा और जब वह नहीं मानी तब भी उसके अन्दर राग का भाव था । मानसि कताओं को पढ़ ने की भी कोशि श किया करो। आप पुराण पढ़ो तो गहराई से पढ़ा करो। जब उससे यह पता पड़ गया कि इस सीता की अब हमें जरूरत नहीं है और इस सीता के कारण से हमारे भाई, हमारे बेटे सब बन्दी हो गए। सबको राम ने बन्दी बना लिया है। इस सीता के कारण से बहुत बड़ा युद्ध होने वा ला है। इसी सीता के कारण हमारे लि ए सब परेशानिया ँ खड़ी हो रही हैं लेकि न फिर भी हम इस सीता को छोड़ नहीं सकते हैं क्योंकि यह हमारी नाक का सवा ल है। जब सीता से उसने कहा कि तू मुझे अपना ले और सीता ने कहा कि नहीं! मैं राम के अलावा कभी कि सी के बारे में सोच भी नहीं सकती। राव ण का राग उसी क्ष ण उसके प्रति नष्ट हो गया था । यह मेरे कोई काम की है ही नहीं। मुझे अब यह मि ल भी जाएगी तो भी मैं अब इसको नहीं रखूँगा। अगर राम से युद्ध करने के बाद राम का मरण भी हो गया और यह हमें मि ल भी गई तो यह तब भी हमें नहीं चाह ेगी। इससे अब प्रयोजन क्या है? राव ण के अन्दर सीता के प्रति राग हमेशा नहीं रहा । समझ आ रहा है? बाद में उसके अन्दर उससे द्वेष उत्प न्न हो गया । सीता को तो उस समय उस पर द्वेष था ही। जब उसके अन्दर उस समय पर द्वेष था तो वह द्वेष फिर उसके लि ए आगे भी रहना चाहि ए लेकि न वह स्वर ्ग में चली जाती है। वह वहा ँ जाकर देखती है कि हम यहा ँ क्यों आ गए? उसे सब कुछ दिखाई देने लग जाता है कि मुझे कि सने परेशान किया , कौन हमें उठा कर ले गया और उसकी क्या गति हो गई? जो हमारे स्वा मी राम थे, वो कहा ँ पहुँ च गए? तो उसे सबसे सन्तुष्टि हो गई कि रामचन्द्र जी तो मोक्ष को चले गए, कोई बात नहीं। लेकि न यह राव ण कहा ँ गया तो उसे क्या ध्या न आता है? अपने अवधि ज्ञा न से देव(सीता का जीव) देखता है, तो क्या देखता है कि राव ण तो नरक में पड़ा है। अब नरक में है, तो उसे नरक में पड़ा रहने दो। अच्छा है। मेरे साथ इसने बुरा किया था , नरक में गया है। चलो! अब उसको वहा ँ पर उसका फल मि ल रहा है। ऐसे ही तो सोचना पड़े ड़ेगा न। आप ऐसे ही सोचते हो न। उसने नहीं सोचा। आप तो ऐसे ही सोचते हो न। आपका बुरा करने वा ले का कुछ हो जाए। ऐसा ही होना चाहि ए था , इसलि ए ऐसा ही हुआ। तूने मेरे साथ बुरा किया था न। समझ ले मेरे साथ बुरा करने वा ला कभी भी फल-फूल नहीं सकता है। मतलब आपके अन्दर उसके प्रति बुराई का भाव , उसके बुरा होने के बाद भी बना हुआ है। समझने की चीज है। यह बना रहता है। कि सी का नुकसान होने के बाद, कि सी की बुरी गति होने के बाद, कि सी का बुरा होने के बाद, कि सी के साथ कुछ बुरी घटना घटने के बाद अगर हमारे मन में वह अच्छा लगता है कि इसके साथ तो ऐसा होना ही था , इसने मेरे साथ ऐसा किया था , इसलि ए इसका यह परि णाम इसको मि लना ही था । यह विचार करना भी आपके लि ए दुर्गति का कारण है। यह विचार यदि हम धर्म की भाषा में कहें तो वह कभी सम्यक् दृष्टि जीव में ये विचार आ नहीं सकता है।


सम्यग्दृष्टि ? मिथ्या दृष्टि ?
यह विचार कि सका है? ये मि थ्या त्व का भाव है। मि थ्या दृष्टि जीव का विचार है। सम्यग्दृष्टि जीव हमेशा सोचता है कि अगर इस के साथ बुरा भी हुआ तो वह यह सोचेगा कि देखो! इसने कैसे कर्म के बन्ध कर लि ए कि इसको ऐसे कर्म का फल भोगना पड़ रहा है। देखो विचार में कि तना अन्तर आ गया ? सम्यकग्दृष्टि क्या सोचेगा? इसने कैसे कर्म का बन्ध किया जो इसको ऐसे कर्म का फल भोगना पड़ रहा है। फल तो वह अपने कर् मों का भोग ही रहा है लेकि न उसको देखने वा ला जो मैं हूँ। मैं क्या सोच रहा हूँ? निर्भ र इस पर करता है कि मैं दूसरे को लेकर क्या विचार रखता हूँ? मैं दूसरे को लेकर जैसा विचार रखूँगा वैसा ही मैं कहलाऊँगा। उस मैं को समझना है कि मैं क्या सोच रहा हूँ? सम्यग्दृष्टि जीव क्या सोचेगा? इसको इसके कर्म के फल से कैसी पर्याय मि ल गई कि अब इसको इसके कर्म का फल भोगना पड़ रहा है। समझ आ रहा है? और मि थ्या दृष्टि क्या सोचता है? अच्छा हुआ जो इसने मेरे साथ बुरा किया तो इसे ऐसे कर् मों का फल मि लना ही चाहि ए था , सो मि ल गया । बात तो वह ी है। समझ आ रहा है? जो मि थ्या दृष्टि है, वो भी कर्म का फल जान रहा है। सम्यग्दृष्टि जीव भी कर्म का फल जान रहा है लेकि न अन्तर कि स में पड़ गया ? अपने भाव में, अपने सोच में। इस तरह के अभिप्राय में कि हम उसके प्रति अच्छे रूप में सोच रहे हैं। जो हुआ, वो तो उसके साथ हुआ। चीज वह ी होती है कि हम कि सके लि ए अपने मन में क्या धारणा बना कर बैठे हैं? माने हम कि सी को हमेशा बैरी ही समझते हैं, कि सी को हम हमेशा दुष्ट ही समझते हैं, दुर्ज न के रूप में ही देखते हैं तो यह भी हमारी अपनी गलती होती है। यह हमारे अन्दर का तीव्र द्वेष परि णाम होता है। हम इसको नहीं सम्भा लेंगे तो हम कभी भी सम्यग्दृष्टि बन नहीं पाएँगे। सामने वा ले का तो जैसा होना हो वह होगा लेकि न हमारा उसके प्रति क्या विचार है? यह विचार हमें समझना है। सीता का जीव सम्यक् को धारण करने वा ला था , सम्यग्दृष्टि था । इसलि ए उसके मन में क्या विचार आया कि मुझे इसकी भी रक्षा करने के लि ए उसके पास जाना है और प्रया स करना है कि वह नरक से नि कल आए। यह भाव आ गया । यह कौन सा भाव है? यह सम्यग्दृष्टि का भाव है। हम इन कथा नकों से भी यह ी अध्या त्म का ज्ञा न ले सकते हैं। प्रथमानुयोग के जितने भी दृष्टा न्त हैं यदि हम उन्हें अध्या त्म में घटाने की कला सीखें तो हमें प्रथमानुयोग कभी भी बुरा नहीं लगेगा। हमें हर घटना से देखने में आना चाहि ए कि द्रव्य और पर्याय को जानने वा ला जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह समूची चीज को देखता है। द्रव्य को भी देखता है और पर्याय को भी देखता है। अभी इसकी पर्याय एक विद्या धर राजा के रूप में थी और मेरे कारण से इसकी पर्याय नरक में चली गई। नरक पर्याय में है, द्रव्य तो वह ी है।
कि
स का उत्पा द हुआ? सत् का भी उत्पा द है और असत् का भी उत्पा द है। सत् का उत्पा द कि स रूप में है? ये वह ी द्रव्य है, ये वह ी आत्मा है। जब आत्मा की ओर दृष्टि जाय ेगी तो सत् का उत्पा द। जो अब नरक में है, ये वह ी राव ण की आत्मा , अब वह ी राव ण का जीव नरक में आ गया । तो कि सका उत्पा द हो गया ? सत् का उत्पा द हो गया । अब असत् क्या था ? पहले नारकी नहीं था , अब ये नारकी बन गया । नारकी पर्याय को देखा तो ये क्या हो गया ? असत् का उत्पा द हो गया । दोनों पर्याय देखोगे तो आपके अन्दर करुणा आ जाएगी। मध्य स्थता आ जाएगी। आपके अन्दर का द्वेष भाव मि ट जाएगा, कम हो जाएगा। यह ी इस अध्या त्म को समझने का प्रति फल होता है। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। अगर हम दोनों को नहीं लगाते हैं, हम केवल पर्याय के माध्य म से ही उसको देखेंगे तो हम कहेंगे नारकी हो गया , अच्छा हो गया । जब हम द्रव्यार् थिक नय से देखते हैं तो चौंक जाते हैं कि अरे! यह तो उस द्रव्य ने इस पर्याय को धारण कर लिया । इसमें तो और भी दूसरी पर्याय उत्प न्न हो सकती थी। इस दुःख की पर्याय को क्यों प्राप्त हो गया ? इसे तो सुख की पर्याय भी प्राप्त हो सकती थी। ये क्या हो गया ? यह आपकी द्रव्यार् थिक नय की दृष्टि और पर्यायर् थिक नय की दृष्टि , दोनों दृष्टि मि ल गई। समझ आ रहा है? यह ी चीज यहा ँ कही गई है कि दोनों प्रकार का प्रा दुर्भाव , उत्पा द हमेशा द्रव्य प्राप्त करता रहता है।

एवं अनेकविध स्वी य स्वभाव वाला, होता सुसिद्ध जब द्रव्य स्वयं निराला।
पर्या य द्रव्य नय से वह द्रव्य भाता, भाई अभावमय भावमयी सुहाता।
अब देखो उसी द्रव्यार् थिक नय से कैसे द्रव्य उत्प न्न होता है उसको उदाह रण देते हुए यहा ँ समझाया जा रहा है।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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