प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप
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दो नय: दो दृष्टि कोण: दोनों सही

द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय से द्रव्य के अन्दर दोनों ही चीजें घटित होती हैं। जो द्रव्य अपनी पर्याय ों के साथ रहता है उसको देखने, जानने के ये तरीके हैं। दोनों ही नयों के माध्य म से जो बताया जा रहा है वह इसीलि ए बताया जा रहा है कि हमें हमेशा दोनों नयों के माध्य म से ही वस्तु को देखना चाहि ए। पि छली गाथा में द्रव्यार् थिक नय से यह बताया था कि द्रव्य कथञ्चि त् अन्य-अन्य पर्याय ों में विद्यमान रहता है। इसे द्रव्यार् थिक नय से सत् का उत्पा द कहा था । अब कहते हैं ‘मणुसो ण हवदि देवो’ ‘मणुसो’ माने मनुष्य की पर्याय , जो मनुष्य की है वह देव की पर्याय नहीं है । ‘देवो वा माणुसो व सि द्धो वा’ और जो देव पर्याय है वह मनुष्य की अथवा सि द्ध की पर्याय नहीं है। ‘एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ’ यदि ऐसा नहीं होता तो वह अनन्य भाव को कैसे प्राप्त करता? अर्था त् नहीं करता। कहने का तात्प र्य यह है कि पि छली गाथा में जो आत्म द्रव्य का उत्पा द बताया था , वह ी आत्मद्रव्य जब अन्य-अन्य पर्याय ों में परि णमन करता है, तो उन पर्याय ों में बिल्कुवबकिुल एकमेक हो जाता है। एकमेक का मतलब वबकिुल अभि न्न हो जाना। उन पर्याय ों से भि न्न नहीं रहता बल्कि उसी पर्याय में उसी मय हो जाता है।
द्रव्य और पर्या य अभिन्न हैं
द्रव्य हमेशा पर्याय सहि त ही रहता है। जीव द्रव्य और कर्म रूप पुद्गल द्रव्य की मि ली हुई पर्याय ों में ये मनुष्य, देव इत्या दि जो पर्याय ें बनती हैं ये सभी पर्याय ें अपने द्रव्य से एकपने को प्राप्त होती हैं। मतलब एक पने को प्राप्त होते हुए भी पर्याय ें अन्य-अन्य हैं, भि न्न-भि न्न हैं, अलग-अलग हैं लेकि न जिस समय पर जो पर्याय जिस द्रव्य के साथ रहती है वह पर्याय उस द्रव्य से अभि न्न रूपता के साथ रहती है। मतलब द्रव्य की वह ी पर्याय उस समय पर कही जाएगी और द्रव्य की वह ी पर्याय उस समय अनुभूति में आएगी। जैसे- मनुष्य पर्याय है, तो मनुष्य पर्याय में जो आत्मा है, वह हमेशा मनुष्य रूप ही स्वय ं को अनुभव करता है। इस मनुष्य पर्याय में आत्म द्रव्य की मनुष्य पर्याय के साथ में एक अभि न्नता बनी रहती है। भि न्न-भि न्न नहीं हैं। उसी के साथ में वह मि ला हुआ है। जो यह मनुष्य पर्याय है, इसके आगे जो अन्य पर्याय होगी तो वह पर्याय उस पर्याय से भि न्न होगी, अलग होगी। उसको कहेंगे कि मनुष्य की पर्याय देव पर्याय से भि न्न है। अतः हर पर्याय भि न्न-भि न्न होती है। यह नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य पर्याय ही देव पर्याय है। ऐसा कहने से तो एक समय में दो पर्याय हो जाय ेंगी लेकि न कभी भी ऐसा होता नहीं।
क्रमबद्ध नहीं क्रमानुपाती पर्या य

र द्रव्य की जो पर्याय ें होती हैं वे क्रम-क्रम से उत्प न्न होती रहती हैं। क्रम से उत्प न्न होने का मतलब यह नहीं समझना चाहि ए कि उसकी पर्याय क्रम से बंधी हुई है। बंधी हुई नहीं है। इसमें देखो 'वा ' जो शब्द आया है ‘देवो वा ', 'माणुसो वा ', ‘सिद्धो वा ' तो इसकी भी टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र जी कहते हैं कि इनमें से कि सी भी एक पर्याय को जीव प्राप्त कर लेता है। कोई भी पर्याय जीव अपने-अपने परि णामों के अनुसार प्राप्त कर सकता है। अन्यतम, कि सी भी पर्याय को वह प्राप्त कर लेता है। मतलब कोई भी पर्याय ें होती हैं, तो वह क्रम से होती हैं। क्रमानुपाती या क्रम के अनुसार ऐसा कहा गया है लेकि न ऐसा नहीं समझना चाहि ए कि पर्याय हमेशा कि सी क्रम से बन्धी हुई हैं और उसी क्रम से वे उत्प न्न होती हैं। पर्याय ें क्रम से बंधी हुई रहती हैं ऐसा कभी भी नहीं समझना चाहि ए। यह समझना चाहि ए कि पर्याय हमेशा क्रम-क्रम से ही नि कलती हैं। इसे क्रमानुपाती ऐसा शब्द आचार्य अमृतचन्द्र जी महा राज ने टीका में दिया है। क्रमबद्ध पर्या य यह शब्द तो कहीं भी नहीं आया है। क्रमानुपाती यह शब्द आया है। क्रमानुसारिण ऐसा शब्द आया है या क्रमभावी शब्द आया है। हर पर्याय क्रम-क्रम से उत्प न्न होती है। यह गाथा और पि छली गाथा ये दोनों एक-एक नय को हमें क्रम-क्रम से बताने वा ली हैं। मतलब यह हुआ कि जब हमें सत् का उत्पा द देखना है, तो हम क्या देखेंगे? हम द्रव्य की ओर देखेंगे। यह वह ी द्रव्य है जो देव बन गया , यह वह ी द्रव्य है, जो फिर मनुष्य बन गया , यह वह ी द्रव्य है जो सि द्ध बन गया । यह हो गया सत् का उत्पा द। जब हम केवल पर्याय को देखेंगे कि यह मनुष्य पर्याय है, इस द्रव्य की यह पर्याय है उस समय जब हमारी पर्याय की ओर देखने की दृष्टि रहती है वह उसके असत् का उत्पा द कहलाता है।

द्रव्य पर्या य सहित ही होता है
आचार्य ने यहा ँ पर द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय दोनों के माध्य म से हमें समझाने के लि ए दो अलग-अलग गाथाय ें दी हैं। 121 नम्बर की गाथा में कहा था कि प्रत्ये क द्रव्य स्व भाव से सत् के उत्पा द और असत् के उत्पा द रूप पर्याय से सहि त होता है। मतलब द्रव्यार् थिक नय से भी उसमें उत्पा द होता है और पर्यायार् थिक नय से भी उत्पा द होता है। द्रव्यार् थिक नय होने वा ले उत्पा द को सत् उत्पा द कहा और पर्यायर् थिक नय से होने वा ले उत्पा द को असत् उत्पा द कहा । कोई भी द्रव्य है वह द्रव्य अपनी पर्याय ों को लि ए हुए ही है। स्व भाव के साथ ही उसकी पर्याय रहती ही है। हर द्रव्य का अपनी पर्याय के साथ रहना हो रहा है। जब भी हम द्रव्य को जानेंगे तो द्रव्यार् थिक नय से भी जानेंगे और पर्यायार् थिक नय से भी जानेंगे। एक ही नय से जानने का आचार्यों ने कभी भी विधान नहीं किया है क्योंकि अनेकान्त दर्श न में हमेशा दोनों नयों के माध्य म से वस्तु को बताया जाता है। एक नय से यदि हमने वस्तु को जाना तो हम एकान्तवा दी बन जाय ेंगे और हमारा ज्ञा न भी अधूरा ज्ञा न, मि थ्या ज्ञा न कहलाय ेगा। इसलि ए इतना स्पष्टी करण देखने के बाद हम सबके दिमाग में यह बात रहनी चाहि ए कि जो लोग कहते हैं कि पर्याय तो झूठी होती है या पर्यायार् थिक नय से जानने में हमें कोई भी लाभ नहीं है, हमें द्रव्य को केवल द्रव्यार् थिक नय से ही जानना चाहि ए। पर्यायार् थिक नय से जो जानने में आता है, कहा जाता है वह तो असत्य होता है, ऐसा कुछ लोगो का अभिप्राय रहता है। ऐसा अभिप्राय रखने वा ले लोगों को ये चार 121, 122, 123 और आगे आने वा ली 124 वें नम्बर की गाथा ओं को ढंग देखना समझना चाहि ए कि आचार्य महा राज ने यहा ँ पर द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायार् थिक नय से, दोनों नयों से द्रव्य का स्व भाव बना रहता है, ऐसा पहले एक गाथा में कहा । फिर द्रव्यार् थिक नय से बताने के लि ए 122 वें नम्बर की गाथा आयी और पर्यायर् थिक नय से बताने के लि ए 123 वें नम्बर की यह गाथा चल रही है। कि स नय से क्या -क्या देखा जाता है? कैसे जाना जाता है? इस बात का स्पष्टी करण आचार्यों ने किया है। यदि उन्हें पर्यायार् थिक नय से असत् का उत्पा द या पर्याय की उत्पत्ति स्वी कृत नहीं होती तो वे अलग से पर्यायार् थिक नय का व्याख्या न क्यों करते? इसी से स्पष्ट होता है कि द्रव्यार् थिक नय से भी द्रव्य का स्व भाव सि द्ध है और पर्यायर् थिक नय से भी द्रव्य का स्व भाव सि द्ध है। क्यों नहीं होगा? ऐसा तो कोई द्रव्य है ही नहीं कि जो द्रव्य तो है पर उसमें पर्याय न हो। द्रव्य हो और पर्याय न हो, ऐसा तो कोई द्रव्य तो होता ही नहीं। द्रव्य होगा तो उसकी कोई न कोई पर्याय तो होगी ही। उस पर्याय को धारण करने वा ला जो द्रव्य है वह तभी जानने में आएगा जब हम द्रव्य को भी जाने और पर्याय को भी जाने। मनुष्य पर्याय है, आत्मा द्रव्य है। पुद्गल द्रव्य है, कि ताब पर्याय है। आपकी जो पोशाक है- वह आपके वस्त्र की पर्याय है और जो कपड़ा है- मूल रूप में वह द्रव्य है | हर पदार्थ अपने द्रव्य और पर्याय के साथ ही रहता है। ये माइक है। इसका जो काले रंग के रूप में हमें बाह री पर्याय के रूप में दिखाई दे रहा है और इसका जो द्रव्य है वह लोह द्रव्य, वह पुद्गल द्रव्य है। हर द्रव्य अपनी पर्याय के साथ ही रहता है।


पर्या य के बि ना द्रव्य का अस्तित्व नहीं
दुनिया में कोई भी ऐसा द्रव्य है ही नहीं जिसकी कोई पर्याय न हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। पर्याय नहीं होगी तो द्रव्य नहीं होगा और द्रव्य नहीं होगा तो पर्याय नहीं होगी। द्रव्य और पर्याय साथ -साथ रहती हैं। अतः ऐसा कभी नहीं हो सकता कि केवल द्रव्यार् थिक नय तो सत्य है और पर्यायार् थिक नय असत्य हो जाय े। समझ आ रहा है? कुछ लोग कहते हैं कि द्रव्य दृष्टि रखो, पर्याय दृष्टि से क्या होगा।

केवल द्रव्य दृष्टि : एकान्तवाद: मूढ़ ता
केवल द्रव्य दृष्टि रखोगे तो आपको द्रव्य केवल द्रव्य रूप जानने में आएगा, पर्याय रूप जानने मे नहीं आएगा। यह आपके लि ए अधूरा ज्ञा न होगा। जानना और मानना तो आपको दोनों ही दृष्टि से पड़ेगा। कौन सी दृष्टि ? द्रव्यार् थिक और पर्यायार् थिक। जब तक हम दोनों दृष्टिय ों से नहीं जानेंगे, दोनों दृष्टिय ों से वस्तु को नहीं समझेंगे, हम वस्तु को समूचा, पूरा का पूरा जान ही नहीं सकते हैं। कुछ लोग समझने की गलती कर जाते हैं। वे कहते हैं कि देखो पहले इसी ग्रन्थ में आया था न 'पज्जयमूढा ही परसमया' जो पर्याय में मूढ़ होते है वह मि थ्या दृष्टि होते हैं माने परसमय होते है। इसलि ए अपने को द्रव्य में दृष्टि रखना है। उस समय भी आपको स्पष्टी करण दिया था कि यह उन ही लोगों के लि ए है जो केवल पर्याय को ही जानते हैं, द्रव्य को जानते ही नहीं हैं। उनके लि ए कहा गया है कि तुम केवल पर्याय ों को ही जानते रहते हो, पर्याय ों का ही तुम्हें ज्ञा न है, द्रव्यों का ज्ञा न तुम्हें है ही नहीं। जिसको द्रव्य, गुण, पर्याय का ज्ञा न नहीं उसका जो पर्याय में ही ज्ञा न बना रहता है कि मैं मनुष्य हूँ, मैं बालक हूँ, मैं अमीर हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं छोटा हूँ, मैं बड़ा हूँ, हर आदमी इसी रूप में तो जानता रहता है। मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ। मैं अज्ञा नी हूँ, मैं ज्ञा नी हो गया हूँ। यह जो आदमी अपने साथ केवल पर्याय ों को जानता रहता है उसके लि ए कहा गया है कि तुम पर्याय ों में मूढ़ मत बनो। द्रव्य को भी जानो। जो द्रव्य को जान कर पर्याय ों को जानेगा उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। उसे ही सम्यग्ज्ञानि कहा जाता है क्योंकि वह दोनों चीजों को जान रहा है। द्रव्य को भी जान रहा है, पर्याय को भी जान रहा है। द्रव्य को जाने बि ना जो केवल पर्याय को जानता रहा उसको पर्याय मूढ़ या मि थ्या दृष्टि कहा जाता है। इसलि ए यहा ँ पर आचार्य महा राज द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय दोनों का क्रम-क्रम से व्याख्या न कर रहे हैं। कोई भी नय झूठा है, ऐसा कहीं भी आचार्य कुन्द कुन्द देव ने कहा ही नहीं है।


पर्या य दृष्टि मूढ़ ता नहीं केवल पर्या य दृष्टि मूढ़ ता
कुछ लोग जो व्यवहा र को झूठ कहते हैं या पर्याय दृष्टि को मि थ्या कहते हैं उन्हें यह तो सोचना चाहि ए कि पर्याय को दृष्टि में नहीं रखेंगे तो द्रव्य की दृष्टि भी हमें कैसे पता पड़ेगी कि यह द्रव्य इस पर्याय के साथ में है। पर्याय दृष्टि मूढ़ हो जाएगी, झूठ हो जाएगी तो हम कभी यह ही नहीं कह पाएँगे कि सि द्ध भगवा न को केवलज्ञा न के साथ हम जानते हैं या देखते हैं। सि द्ध भगवा न में अनन्त सुख उत्प न्न हुआ है। यह केवलज्ञा न है, अनन्त सुख है, सम्यक्त्व है, यह सब क्या है? ये सब पर्याय ही तो हैं। ज्ञा न गुण था । ज्ञा न गुण की पर्याय केवल ज्ञा न के रूप में प्रकट हुई। आत्मा का सुख था - सुख गुण, वह अनन्त सुख के रूप में प्रकट हुआ। हम यदि यह कहेंगे कि सि द्ध भगवा न अनन्त सुख से सम्पन्न हैं, सि द्ध भगवा न केवल ज्ञा न से सम्पन्न हैं, सि द्ध भगवा न सम्यकत्व के साथ हैं, अनन्त शक्ति के साथ हैं, अनन्त दर्श न के साथ हैं, यह सब कहना मि थ्या हो जाएगा क्योंकि यह सब क्या है? यह सब पर्याय दृष्टि ही तो है। केवल द्रव्य दृष्टि से देखोगे तो द्रव्यार् थिक नय से द्रव्य का कुछ होता ही नहीं है। फिर तो न कोई जीव संसारी सि द्ध होगा, न कोई जीव मुक्त सि द्ध होगा क्योंकि जीव तो जीव है बस। जीव था , जीव है। अब वह चाह े संसार में रह रहा हो, चाह े मुक्त हो गया हो। जीव तो जीव था , सो है। जीव द्रव्य तो कुछ नष्ट नहीं हुआ? केवल जीव द्रव्य की ओर ही हमने देखा तो संसार और मुक्ति की व्यवस्था ही नहीं बनेगी। केवल द्रव्ययार् थिक नय से ही जानेंगे तो तत्त्वा र्थ सूत्र में जो ‘संसारिणो मुक्ता श्च’ जीव दो प्रकार के होते हैं ऐसा कहा गया है कि नहीं। एक संसारी जीव होते हैं और एक मुक्त जीव होते हैं, यह कथन ही गलत हो जाएगा। ऐसा मानना पड़ेड़ेगा कि नहीं कि संसारी जीव होते हैं और मुक्त जीव होते हैं। यदि हमने यह भी देखा कि ये संसारी जीव हैं और ये मुक्त जीव हैं तो यह भी तो हमारी पर्याय दृष्टि हो गई। जो पर्याय दृष्टि को गलत कहते हैं उन्हें इतना तो सोचना चाहि ए कि जीवों में यह भेद करना कि हम संसारी हैं और ये मुक्त जीव हैं, यह कहना भी फिर हमारे लि ए गलत हो जाएगा और यदि इसको हम गलत मान लेंगे तो फिर संसार और मुक्ति के बीच का कोई विभाजन ही नहीं रहेगा। द्रव्य है, तो है। था सो था । रहेगा सो रहेगा। केवल अगर हम द्रव्य दृष्टि ही माने, द्रव्यार् थिक नय को ही जाने तो द्रव्य तो कभी भी नष्ट होता ही नहीं है। फिर उसको हम संसार से मुक्ति की ओर ले जाने का प्रया स ही क्यों करें? जो पर्याय चल रही है, चल रही है। जब उसकी जो पर्याय होनी होगी, हो जाएगी। जीवों का दो प्रकार से विभाजन करना, जीव के लि ए यह कहना कि यह इसका मति ज्ञा न है, यह इसका श्रुत ज्ञा न है, यह इसका केवल ज्ञा न है, यह सब पर्याय दृष्टि हो जाएगी। ज्ञा न मात्र कहो बस। जीव क्या है? ज्ञा न गुण से सम्पन्न है, ज्ञा न मात्र है। यदि हम ने यह कहा कि हम मति ज्ञा न, श्रुत ज्ञा न वा ले हैं और अरिह न्त, सि द्ध भगवा न केवल ज्ञा न वा ले हैं तो यह तो पर्याय दृष्टि हो गई। क्या समझ आ रहा है? कहा ँ तक बचोगे पर्याय दृष्टि से?

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by Manish Jain - 12-17-2022, 08:49 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by sumit patni - 12-17-2022, 08:55 AM
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