प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप
#3

पर्या य दृष्टि की गलत व्याख्या
पर्याय दृष्टि का मतलब लोगों ने इतना अफवाह में फैला रखा है, इतना गलत भाव बना रखा है कि द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि रखो। अरे! द्रव्य दृष्टि क्या रखो? द्रव्य दृष्टि से तो द्रव्य था , है और रहेगा ही। आपको मुक्ति की भाव ना कब पैदा होगी? जब पर्याय दृष्टि में आएगी तभी तो मुक्ति की भाव ना होगी? फिर तो हम सि द्ध भगवा न का ध्या न ही क्यों करेंगे? अरिह न्त भगवा न का ध्या न ही क्यों करना? यदि पर्याय दृष्टि है ही नहीं या पर्याय दृष्टि मि थ्या ही है, तो अरिह न्त भगवा न भी तो अपनी एक पर्याय के साथ ही है न। तीर्थं कर महाव ीर भगवा न या आदिनाथ भगवा न अपनी तीर्थं कर पर्याय के साथ कुछ समय तक अरिह न्त अवस्था में रहे। वह एक पर्याय थी, छूट गई सि द्ध बन गए। अब हम उनका ध्या न क्या करें? अरिहन्तों का ध्या न क्या करना? यदि हम उन का ध्या न करेंगे तो हमें उनका शरीर दिखाई देगा, शरीर तो उनकी पर्याय है। पर्याय को क्यों ध्या न में ला रहे हो? मतलब अरिहन्तों का ध्या न करने की भी फिर कोई आवश्यकता नहीं है। पर्याय दृष्टि मूढ़ है, ऐसा लोग व्याख्या न करते हैं। द्रव्य दृष्टि रखो, द्रव्य दृष्टि रखो। पहले समझो तो कि पर्याय द्रव्य से अलग नहीं है। यदि हम एकान्त रूप से यह ी कहेंगे कि केवल पर्याय दृष्टि गलत है, तो फिर हमारा द्रव्य के साथ जो परि णमन हो रहा है, उस परि णमन को हम अलग-अलग रूप से कैसे कहेंगे? देखो! यहा ँ सि द्ध शब्द आया कि नहीं? वह ी जीव देव हो गया , वह ी जीव मनुष्य हो गया , वह ी सि द्ध हो गया । आचार्य क्या कह रहे हैं?

सिद्ध भी एक पर्या य
आचार्य कहते हैं कि सि द्ध भी तो एक पर्याय है। जीव तो वह ी था । जीव जब मनुष्य में था तो मनुष्य रूप था , देव में था तो देव रूप हो गया , सि द्ध हो गया तो सि द्ध रूप हो गया । सि द्धत्व भी एक पर्याय हो गई। यदि हम णमो सिद्धा णं कहे तो वह भी कहने की क्या जरूरत है? जब तुम्हें द्रव्य दृष्टि ही रखना है, तो बस अपने ही द्रव्य को देखना है। दूसरे के द्रव्य को तो हमें स्वी कार करना ही नहीं है। स्वी कार कर लोगे तो फिर तुम्हा रा एकान्तवा द नष्ट हो जाएगा। मतलब जो केवल द्रव्य दृष्टि रखने वा ले हैं वे अरिह न्त और सि द्ध का ध्या न भी नहीं कर सकते हैं। लोग पढ़ -पढ़ कर कुछ ज्या दा ही पण्डित हो गए हैं। इन्हीं प्रवचनसार और समयसार से उनकी द्रव्य दृष्टि ऐसी बन गई है कि पर्याय की बात करना तो उन्हें पर्याय मूढ़ ता समझ में आती है लेकि न उन्हें यह नहीं मालूम की पर्याय मूढ़ ता का मतलब क्या है। अभी तक जो केवल पर्याय को जान रहा था , अनादि काल से जीव ने द्रव्य को तो जाना ही नहीं, छ: द्रव्यों का विवेचन तो अब सुन रहा है। इसलि ए जब सुनेगा तब उसे द्रव्य का ज्ञा न होगा। अन्यथा अभी तक तो पर्याय को ही जानता था । मैं मनुष्य था , मैं मनुष्य हूँ। कभी यह जाना कि यह मनुष्य भी मेरी आत्मा की ही पर्याय है? अभी तक क्या जाना कि मैं मनुष्य हूँ और मैं मनुष्य में भी अभी बच्चा हूँ, युवा हो गया हूँ, बूढ़ा हो गया हूँ और मर गया तो मैं मर गया हूँ। कौन मर गया ?
पर्या य दृष्टि के बि ना समाधि मरण भी नहीं
मनुष्य मर गया कि मनुष्य को धारण करने वा ला जो आत्म द्रव्य था वह मर गया ? पर्याय ही तो मर गई? मतलब मनुष्य की पर्याय ही तो छूट गई? यह जो अब हमें ज्ञा न हो गया हमारे लि ए यह ज्ञा न जो पहले था और अब जो ज्ञा न हो रहा है, उसमें कि तना अन्तर आ गया ? जब तक हमने यह नहीं जाना कि यह आत्म द्रव्य है, उसकी यह मनुष्य पर्याय है, उससे पहले हम जो ज्ञा न रखते थे तो हम समझते थे कि मनुष्य मर गया माने हमारी पर्याय मि ट गई तो हम ही मि ट गए। हमारे ज्ञा न में क्या आ गया ? हम नहीं मि ट गए, हम तो अभी रहेंगे, आगे भी रहेंगे, पहले भी थे क्योंकि हम कभी भी मि ट नहीं सकते। मेरा आत्मा तो अजर-अमर है, अविनाशी है। मनुष्य की पर्याय छूट रही है। इसीलि ए वह सहजता से आसानी से उसको मरण के समय छोड़ देता है। क्यों छोड़ देता है? क्योंकि अब उसको ज्ञा न आ गया । अब पर्याय को ध्या न में रखते हुए, पर्याय को छोड़ ते हुए, दुःखी नहीं होता। यह उसके लि ए पर्याय की मूढ़ ता नहीं है। यदि पर्याय की मूढ़ ता कहे तो फिर समाधि मरण और सामान्य मरण में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। उस में अन्तर क्या है? पर्याय तो आपकी दृष्टि में कुछ है ही नहीं। पर्याय कभी मरती है ही नहीं। पर्याय आपकी दृष्टि में मि थ्या है। पर्याय आपकी दृष्टि में मान लो मर भी गई तो पर्याय मि थ्या थी तो मि थ्या छूट गया तो फाय दा क्या हुआ? वह तो होना ही है, पर्याय तो छूटना ही है चाह े अकाल मरण मरो, चाह े समाधि मरण मरो, चाह े अपने समय से मरो, क्या फर्क पड़ ता है? क्योंकि सब मरना तो केवल पर्याय है। पर्याय द्रव्य का स्व भाव नहीं या पर्याय है, वह केवल पर्यायार् थिक दृष्टि से, व्यवहा र दृष्टि से कहने को है। वस्तु तः त्रैकालि क ध्रौ व्य जो है वह द्रव्य है उस पर दृष्टि रखो। उस पर दृष्टि रखने वा ला समाधि मरण कैसे करेगा? "समाधि मरण" यह भी तो एक पर्याय का भाव आ गया । तभी तो आप मरण को सम्भा ल रहे हो। अच्छा ! बताओ मरण की क्या चीज है? मरण भी तो पर्याय है न? जब जन्म एक पर्याय है, तो मरण भी तो एक पर्याय ही है? पर्याय की भी एक विशेष पर्याय हो गई- समाधि मरण की पर्याय , अकाल मरण की पर्याय । ये सब उसकी और विशेष पर्याय हो गई। यदि हम उस पर्याय को नहीं सम्भा लेंगे तो कभी भी हमारे द्रव्य की सम्भा ल नहीं हो सकती है। हमेशा पर्याय ों को ही ध्या न में रखकर आप को वैराग्य होगा।
पर्या य दृष्टि बहुत कीमती है
पर्याय ों की कि तनी बड़ी कीमत है? कि सी की मृत्यु देखी और मृत्यु को देख कर कि सी को वैराग्य हो गया । कि स को देखकर वैराग्य हो गया ? मरना भी तो एक पर्याय ही है न? उसकी परि णति है? जीव द्रव्य को देखकर तो कि सी को वैराग्य नहीं होगा। पर्याय को देख कर ही तो होगा? तीर्थं कर को भी वैराग्य हुआ है, तो नीलाञ्जना की मृत्यु देखकर ही हुआ न? आपकी द्रव्य दृष्टि तो तीर्थं करों से भी ज्या दा बड़ी हो गई। कि नसे? तीर्थं करों से। आप तो इतने द्रव्य दृष्टि वा ले हो गए कि उन्हीं पर आरोप लगा दोगे कि पर्याय को देखकर मूढ़ बन गए तभी तो इन्हें वैराग्य हो गया । नीलाञ्जना की ही तो मृत्यु हुई थी, उसकी आत्मा तो नहीं मर गई थी? वह तो तुरन्त दूसरी पर्याय में कहीं न कहीं चली गई? उसी समय उन के सामने दूसरी पर्याय भी लाकर इन्द्र ने खड़ी कर दी थी। इतनी जल्दी कि उनको पता भी नहीं पड़ पाय े। बिल्कुवबकिुल क्ष ण भी नहीं लगा। जैसे ही एक नीलाञ्जना गई, दूसरी नीलाञ्जना वहा ँ प्रकट हो गई। उन्हों ने भेद किया तो कि समें किया ? इसकी पर्याय और इसकी पर्याय दोनों अलग-अलग पर्याय ें हैं क्योंकि अलग-अलग आत्म द्रव्य की हैं। पर्याय में भेद दृष्टि गई तभी तो वैराग्य हुआ? नीलाञ्जना मर गई। अरे! ऐसे पर्याय छूट जाती है? ऐसे मरण हो जाता है और जीव इन पर्याय ों में इतना व्यस्त बना रहता है कि उसे कुछ भी होश नहीं रहता है? वह तो नाच रही थी। अचानक से नाचते-नाचते मर गई? पर्याय देखकर वैराग्य हो रहा है कि जीव को देखकर वैराग्य हो रहा है? हमें यह तो बताओ। आप कहते हो कि पर्याय दृष्टि रखने वा ला मि थ्या दृष्टि होता है। हम कि तना गलत पढ़ ते हैं, कि तना गलत व्याख्या न करते हैं, कि तना गलत लोगों को बताते हैं?

जिन वचन की गलत व्याख्या पाप बन्ध का कारण
यह सोचना चाहि ए कि हमें कि तने पाप का बन्ध होगा यदि हम ऐसे व्याख्या न करते हैं तो? मान लो कि सी को वैराग्य आया तो उसकी पर्याय दृष्टि झूठी थी, इसका मतलब यह हुआ कि उसका वैराग्य भी झूठा कहलाया क्योंकि उसे वैराग्य कि से देखकर हुआ? पर्याय देखकर हुआ। पर्याय झूठी है क्योंकि पर्याय व्यवहा र नय का विषय है, पर्यायार् थिक नय का विषय है। द्रव्य दृष्टि रखो। द्रव्य दृष्टि रखने से वैराग्य होता क्या ? वैराग्य कौन सी दृष्टि रखने से होगा? कि सी के जन्म-मरण देख कर वैराग्य होगा तो कौन सी दृष्टि से होगा? आज तक कि सी को द्रव्य दृष्टि रखने से वैराग्य हुआ? संसार और मुक्ति का भेद भी पर्याय दृष्टि से ही है। राग और वैराग्य की दृष्टि भी पर्याय दृष्टि से ही आएगी। संसार से वैराग्य होगा तो पर्याय दृष्टि के माध्य म से ही होगा। द्रव्य दृष्टि का लेना-देना क्या है? द्रव्य दृष्टि तो बहुत अन्त की दृष्टि है। जब आपको कुछ भी नहीं करना हो, जब आपको कि सी से कुछ भी प्रयोजन न हो तब अन्त में शुद्ध आत्मा की दृष्टि द्रव्य-दृष्टि होगी। यह बहुत बाद की बात है। पहले वैराग्य तो लाओ। राग और वैराग्य में अन्तर करना यह द्रव्य दृष्टि है कि
पर्याय दृष्टि ? हमें यह बताओ! पढ़ेढ़े-लि खे लोगों। राग भी एक पर्याय है और वैराग्य भी एक पर्याय है। यदि हम पर्याय दृष्टि को गलत मानेंगे तो राग और वैराग्य में अन्तर ही नहीं रह जाएगा। तीर्थं कर भगवा न को नीलाञ्जना की मृत्यु देखकर वैराग्य हुआ तो सही हुआ कि गलत हुआ? क्या गलत हो गया ? वैराग्य नहीं होना चाहि ए था ? उन्हों ने गलती कर ली? उनकी पर्याय दृष्टि थी तभी तो उन्हें वैराग्य हो गया । द्रव्य दृष्टि वा ले को क्या वैराग्य होता है? द्रव्य तो न मरता है, न जीता है। द्रव्य तो त्रैकालि क ध्रुव सत्य है। कुछ समझ आ रहा है? आपके कुछ समझ में नहीं आता क्योंकि दिमाग जाम हो गया है। एक cassette दिमाग में भर ली है वह ी चलती रहती है। आज आदमी के अन्दर सोचने-विचारने की भी क्ष मता नहीं रही है। बादल थे, विघटित हो गए। क्या विघटित हो गया देखते ही देखते। अरे! अभी यहा ँ बादल थे। कि तने अच्छे दिख रहे थे और अभी जाने कहा ँ चले गए, लुप्त हो गए? क्या हो गया ?
 
केवल द्रव्य दृष्टि से वैराग्य नहीं
द्रव्य को देखकर वैराग्य होता है कि पर्याय को देखकर? बादल पर्याय है कि द्रव्य है? क्या है? आपको द्रव्य दिख रहा है कि पर्याय दिख रही है? सोचने की बात तो है। कुछ भी बोलते जाते हैं, यह लोग। पर्याय दृष्टि सो हेय दृष्टि । पर्याय दृष्टि सो मूढ़ दृष्टि । पर्याय दृष्टि रखने वा ला मि थ्या दृष्टि । ऐसी-ऐसी बातें करते हैं। अरे! द्रव्य दृष्टि वा लों! कौन सा ऐसा द्रव्य है जिसकी पर्याय न हो? द्रव्य के बि ना पर्याय को जानने वा ला होगा तो मि थ्या दृष्टि है। जो द्रव्य, गुण, पर्याय सबको जान रहा है, उसे मि थ्या दृष्टि कैसे कह सकते हैं? ज्ञा न और श्रद्धा न तो उसे भगवा न की वा णी से ही हो रहा है न। द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों को जानने वा ला पर्याय को भी देखता है तो वह कि तने अच्छे ढंग से देखता है कि उसे पर्याय का परिवर्त न देखते ही वैराग्य हो जाता है। जिन्हें पर्याय देखना ही नहीं है वे द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि करते हुए जीवन नि काल रहे हैं। न तो समाधि मरण की भाव ना है, न ही व्रत लेने की भाव ना है, न वैराग्य आ रहा है। बस राग अलग है, वैराग्य अलग है, ऐसा कहते रहते हैं। सोचने की बात है कि इतनी द्रव्य दृष्टि रखने वा लों को वैराग्य क्यों नहीं हो रहा ? उसका यह ी कारण है कि वैराग्य कभी भी द्रव्य दृष्टि से होता ही नहीं है, पर्याय दृष्टि से ही होता है। वैराग्य होना भी एक पर्याय ही है। द्रव्य में क्या वैराग्य होना है? राग था । राग की कमी हो गई। एकदम से राग का अभाव तो नहीं हो जाएगा? राग की अधि कता होना या कमी होना भी तो एक पर्याय है। जैसे काला रंग है जो बड़ा तीव्र काला दिख रहा है, चमकदार है। कुछ दिनों के बाद में जब यह थोड़ा सा घि स जाएगा, फीका पड़ जाएगा तो यह ी काला, हल्का काला दिखने लगेगा। बीच-बीच में सफेद भी पड़ जाएगा। यह क्या है? यह भी तो उसकी पर्याय ही है। द्रव्य तो वैसा का वैसा ही बना हुआ है। राग में कमी आना या राग की अधि कता होना इसमें कहीं कुछ धर्म है कि नहीं और धर्म है, तो पर्याय में हो रहा है कि द्रव्य में हो रहा है? पर्याय देखकर हो रहा है कि द्रव्य देखकर हो रहा है? फिर पर्याय की मूढ़ ता, पर्याय को मत देखो, पर्याय को मत जानो, पर्याय तो असत्य है व्यवहा र नय का विषय है, ऐसे-ऐसे व्याख्या न चलते रहते हैं। जिनवाणिय ॉं भरी पड़ी हैं इनसे।

उसे जि नवाणी कैसे कहें?
उसको जिनवा णी कहें तो कैसे कहें? गाथा यह ी आचार्यों की लि खी मि लेगी और व्याख्या न जिनवा णी के विपरीत लि खे मि लेंगे और उसे जिनवा णी की तरह पूजना है। एक धर्म संकट में और डाल दिया । प्रवचनसार, आचार्य कुन्द-कुन्द देव और व्याख्या न है अपना और यह सब मि थ्या बातें भरी पड़ी हैं। कि तने स्पष्ट रूप से यहा ँ आचार्य देव द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय के विषय का वर्ण न कर रहे हैं। समझा रहे हैं कि द्रव्य पर्याय ों से अन्य है और हर एक पर्याय में जो हमें द्रव्य दिखाई दे रहा है वह उसका अनन्य पना है।
अन्य पना और अनन्य पना
एक अनन्य पना और एक अन्यपना इस में अन्तर समझ आ रहा है? ‘अनन्य यानि न अन्य इति अनन्य’ अन्य नहीं है। भि न्न नहीं है। जो था वह ी यह है, वह ी यह है, वह ी यह है, इसे क्या कहते हैं? अनन्या पना। समझ आ रहा है न? दस साल पहले हम यह ी थे, यह ी हमारा नाम था । अब हम बीस साल के हो गए, अब हम तीस साल के हो गए, चालीस साल के हो गए, यह हम वह ी हैं, वह ी हैं, वह ी हैं, यह क्या हो गया ? अनन्यपना और दस साल पहले हम छोटे थे, अब और बड़े हो गए, अब और बड़े हो गए और हो गए, यह क्या हो गया अन्य पना। पहले जैसे थे वैसे तो नहीं रहे, पहले से भि न्न हो गए, पहले से अन्य हो गए। हर द्रव्य और पर्या य के साथ में यह अनन्य पना और अन्य पना है। अनन्य को ही कहते हैं अभिन्नपना और अन्य को कहते हैं भिन्नपना, चलता ही रहेर्फेगा। यह नहीं होगा तो द्रव्य का स्व भाव ही नहीं ठहरेगा। जितनी भी यह पर्याय ें हैं वे सब पर्याय ें अलग-अलग हैं, अन्य-अन्य हैं। ‘अणण्णभावं कथं लहदि ’ ये पर्याय ें अनन्य भाव को कैसे प्राप्त हो सकती हैं? हर पर्याय अपने-आप में अलग-अलग है, भि न्न-भि न्न है। इस भि न्न-भि न्न पर्याय को कहने का नाम है- असत् का उत्पा द। जीव द्रव्य था , वह ी अनन्त ज्ञा न से सम्पन्न हो गया , अनन्त सुख से सम्पन्न हो गया , सि द्ध बन गया । अब सोचो, हम क्या कहने जा रहे हैं? पर्याय का व्याख्या न कर रहे हैं कि द्रव्य का व्याख्या न कर रहे हैं? जीव की विशेषता पर्यायार् थिक नय से बता रहे हैं कि द्रव्यार् थिक नय से बता रहे हैं। पर्यायार् थिक नय से ही विशेषता आती है। द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय से तो कोई वि शेषता है ही नहीं क्यों कि द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय सामान्य को पकड़ ता है। पर्या यार्थि र्थिक नय वि शेष को ग्रहण करता है। यदि हम सामान्य को ही पकड़े रहेंगे तो सि द्ध में और हम में कोई अन्तर ही नहीं होगा। कोई भी व्यक्ति कि सी भी तरह से यदि धर्म के मार ्ग पर आगे बढ़ ता है, तो उसके अन्दर राग की कमी आना, मि थ्या त्व का अभाव होना, कषाय में कमी आना यह सब भी क्या चीजें हैं? गुण तो कभी मि टता नहीं है। आत्मा का जो श्रद्धा गुण था , वह तो चल ही रहा है। वह मि थ्या त्व हो या सम्यकत्व हो, क्या फर्क पड़ रहा है? मि थ्या त्व पर्याय को हटाओगे तभी तो सम्यकत्व पर्याय आएगी? दो पर्याय ें एक साथ तो नहीं रह सकती। पर्याय ही तो हटाओगे? पर्याय कैसे हटेगी? पर्याय पर तो आपको विश्वा स ही नहीं है कि यह पर्याय सत्य है। सत्य है सो द्रव्य है। ऐसे व्याख्या न करते हैं लोग। उनको समझाने के लि ए है कि इस गाथा में क्या कहा जा रहा है? इसके आगे एक और गाथा आ रही है जिसमें और अच्छी तरह से आचार्य स्पष्टी करण करते हैं:-

हो देव मानव ना या नर देव ना हो, किं वा मनुष्य शि व भी स्वयमेव ना हो।
ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता, कैसे अनन्यपन को वह धार पाता।l

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
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प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by Manish Jain - 12-17-2022, 06:51 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by Manish Jain - 12-17-2022, 08:47 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by Manish Jain - 12-17-2022, 08:49 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by sumit patni - 12-17-2022, 08:55 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by Manish Jain - 12-17-2022, 09:19 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by Manish Jain - 12-17-2022, 09:20 AM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by sandeep jain - 12-17-2022, 09:29 AM

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