प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप
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सकलादेशी प्रमाण:
जब हम दोनों से एक साथ जानते हैं तो वह कहलाता है, प्रमाण। यह व्याख्या ओं में कहा गया है। एक प्रमाण और एक नय। प्रमाण का मतलब जो "सकलादेशी प्रमाण:" मतलब जो सकल को ग्रह ण कर रहा है, जो समस्त को ग्रह ण कर रहा है। जब हम द्रव्य, गुण, पर्याय सबको एक साथ जानेंगे, ग्रह ण करेंगे तो वह कहलाय ेगी हमारी प्रमाण दृष्टि । समझ आ रहा है? वह हमारा प्रमाण भाव कहलाय ेगा, प्रमाण ज्ञा न कहलाएगा। जब हम केवल एक द्रव्यार् थिक नय से देख रहे हैं लेकि न पर्याय को हमने झूठा नहीं कहा । अभी हम पर्याय से नहीं देखना चाह ते हैं, अभी हम द्रव्य से देखना चाह ते हैं तब तो हमारे लि ए वह द्रव्यार् थिक नय कहलाय ेगा। वह नय कहलाय ेगा, वह भी सम्यग्ज्ञा न है। जब हमारी इच्छा होगी हम पर्याय दृष्टि से देखने लगे तो भी वह हमारा सम्यग्ज्ञा न कहलाय ेगा। वह हमारा पर्यायार् थिक नय से जानना कहलाय ेगा। एक से जानना, एक को जानना, एक दृष्टि कोण रखना, यह हो गया नय ओर समग्र दृष्टि रखना, यह हो गया प्रमाण।
प्रमाण नयै रधिगम:
'प्रमाण नयै रधिगमः' प्रमाण ओर नयों से अधि गम या ने ज्ञा न रखना चाहि ए । तभी आपका ज्ञा न सम्यग्ज्ञा न होगा। नही मालूम? तत्त्वा र्थसूत्र में लि खा है कि नहीं। तत्त्वा र्थसूत्र तो व्यवहा र परक ग्रन्थ है। यह जो अध्या त्म परक ग्रन्थ हैं बस ये ही सही हैं। बाकी तो सब व्यवहा र परक ग्रन्थ है मतलब सब गलत हो गए । सब में विरोधाभास पैदा कर रखा है। अध्या त्म ग्र न्थों में जो हैं वह कहीं नहीं है। क्या कहीं नहीं है? यह क्या बोल रहे हैं आचार्य महा राज? ये भी तो यह ही कह रहे हैं। सभी द्रव्य द्रव्यार् थिक नय से और पुनः पर्यायार् थिक नय से। ऐसा तो नहीं कहा कि एक ही नय से। द्रव्यार् थिक नय से सभी द्रव्य अनन्य हैं और पर्यायार् थिक नय से सभी द्रव्य अन्य हैं क्योंकि उस समय पर वह उसी मय हो जाता है। जो द्रव्य जिस समय पर जिस मय हो गया , वह पर्याय उसके साथ में उस समय जुड़ी है वह पर्याय उसके साथ अनन्य है। जो पि छली वा ली पर्याय थी वह छोड़ दी तो उसमें तो अन्य हो गया । इस तरह से वह द्रव्य अन्य भी हो गया और अनन्य भी हो गया ।

सरल सी बातें हैं
कितनी सरल सी बातें हैं, जो हम रोजाना अपने जीवन में उपयोग में ला रहे हैं। वह ी मोक्ष मार ्ग में कही गयी हैं। कुछ नया है ही नहीं। केवल शब्दाव ली अलग है। उसको कहने की शैली अलग है। इसी का नाम स्या दवा द शैली है। इसी का नाम अनेकान्त धर्म है। वह ी हमारा सब व्यवहा र उसी से चलता है। दूध आया । आज रखा था । बेटा दूध का दही बना देना। दूसरे दिन देखा तो दूध का दही मि ल गया । अब माँ चिल्ला ने लगी, एक ही दृष्टि वा ली होगी तो, अरे! दूध था , दूध कहा ँ है मेरा? दूध लाकर दे। अब दूध कहा ँ से लाकर दे? तूने ही तो कहा था दही बना देना। अरे! मतलब यह तो नहीं कहा था कि उसी दूध का दही बना देना। कि सका दही बनता है पानी का? कि सका दही बनता है? दूध का ही तो दही बनता है। इतना ज्ञा न होगा तभी तो व्यवहा र चलेगा? नहीं तो माँ चिल्ला ती रहेगी। एकान्त दृष्टि वा ली होगी तो। हर व्यवहा र उसी तरह से चल रहा है। दूध ही तो दही बनेगा। जब दूध दही बन गया । दूध कहा ँ गया ? दूध तो रखा है। यह तो दही है। तूने ही तो कहा था दही बना दे। दही लाना। कल हमें दही लेना है। दूध को हटा कर, दूध को नष्ट कर तूने दही बना दिया ? दूध से ही तो दही बनता है। अब यह ी ज्ञा न नहीं होगा तो क्या होगा? लड़ाई होगी और क्या होगा? यह ी ज्ञा न होगा कि दूध ही तो दही बनेगा। यह ी तय नहीं होगा तो क्या होगा? अब यह दही ही तेरा दूध है।

समझो तो कहीं वि रोध नहीं
समझो तो कहीं विरोध नहीं है और नहीं समझो तो विरोध ही विरोध है। क्या समझ आया ? द्रव्या र् थिक नय से, अब बोलना सीखो। अरे! आगे तो बोलो क्या है? दूध है। दही भी क्या है? दूध है? कि स नय से? द्रव्यार् थिक नय से और दही है, कि स नय से? पर्यायार् थिक नय से। अब द्रव्यार् थिक नय से दूध है और पर्यायार् थिक नय से दही हो गया । समझाओ सब बच्चों को। पढ़ाओ द्रव्यार् थिक नय, पर्यायार् थिक नय। हर व्यवहा र उसी से तो चल रहा है । उसके बि ना कहा ँ कुछ है? वह ी प्रवचनसार ग्रन्थ का स्वा ध्याय करते रहो। जो कल किया था न, वह ी आज कर रहे हो। नया क्या कर रहे हो ? वह ी-वह ी पढ़ ते रहते हो, रोजाना। कल भी यह ी पुस्त क रखे बैठे थे। आज भी यह ी पुस्त क रखे बैठे हो। अभी तक पढ़ नहीं पाय े पुस्त क को, पूरे ग्रन्थ को? कल भी वह ी पढ़ रहे थे। चार दिन पहले भी वह ी पढ़ रहे थे। महीना भर पहले भी वह ी पढ़ रहे थे। अरे भले आदमी! द्रव्यार् थिक नय से हम वह ी प्रवचनसार पढ़ रहे हैं। वह ी-वह ी तो पढ़ रहे हो। नया क्या पढ़ रहे हो? अरे! भले आदमी पर्यायार् थिक नय से रोजाना नया -नया पढ़ते हैं। रोजाना नई-नई गाथा पढ़ ते हैं। कि तना सरल व्याख्या न है। लोग कुछ जानते ही नहीं है। कुछ भी बोले जा रहे हैं। पहले भी मैंने कहा था कि भगवा न ने कुछ नया नहीं बताया । जो जैसा है, उसको उन्हों ने देख कर हमें बताया । जो जैसा था वो वैसा ही। हमें वैसा नहीं दिख रहा है। हमें कभी दिखता है? द्रव्य है, पर्याय है। उन्हों ने देख कर हमें बताया लेकि न है, तो सब द्रव्य ओर पर्याय ही। द्रव्य, गुण, पर्याय के अलावा दुनिया में कुछ और है ही नहीं। वह ी तो आचार्य लि ख रहे हैं कि जो द्रव्य जिस समय पर जिस रूप में हो गया , वह उसमें उस समय पर उसी मय हो जाता है। समझ आ रहा है न? साधु है, तो साधु रूप में ही अनुभव करेगा। साधु अरिह न्त रूप में नहीं अनुभव कर लेगा अपने को। न सि द्ध रूप में अनुभव कर लेगा, न आचार्य रूप में कर लेगा। साधु माने साधु। आचार्य है, तो आचार्य रूप अनुभव करेगा। इसलि ए तो आचार्य पना छोड़ कर साधु बनना पड़ता है। क्योंकि समाधि लेना है, तो आचार्य पना छोड़ना है। उपाधिया ँ छोड़ना है। फिर से साधु बनना है। क्यों बनना है? पर्याय तो पर्याय ही थी। पर्याय में ही तो आचार्य पना है, पर्याय में ही साधु पना है। तुम तो द्रव्य की ओर देखो। क्या छोड़ना? क्या ग्रह ण करना? अरे भाई! पर्याय ही छोड़ना है, पर्याय को ही ग्रह ण करना है। पर्याय में ही आचार्य पना है, पर्याय में ही साधु पना है, पर्याय में ही अरिह न्तपना है और पर्याय में ही सि द्धपना है। नहीं तो फिर कुछ मतलब ही नहीं रहेगा, कुछ भी छोड़ने का, ग्रह ण करने का, कुछ बदलने का, कुछ त्या ग करने का। समझ आ रहा है? ये सब चीजें इतनी स्पष्ट हैं कि तभी पूरा का पूरा धर्म चरणानुयोग के साथ चलेगा जब हम द्रव्य, गुण, पर्याय सब को मानेंगे और सबको जानेंगे तभी धर्म चलता है। 


एकान्तवाद से धर्म नहीं चलता
एकान्तवा द से कभी धर्म चलने वा ला नहीं है। उससे तो लोग धर्म को बि गाड़ रहे हैं। द्रव्य दृष्टि , द्रव्य दृष्टि कह-कह कर इतना बवा ल खड़ा कर रखा है कि हर चीज जो है द्रव्य के अलावा सब पर्याय , सब मि थ्या बना रखी है। ऐसे-ऐसे statement आते हैं कि अरिह न्त भगवा न की वा णी भी व्यवहा र नय से होने के कारण से मि थ्या है। उसको क्या कहेंगे? अरे! यह तो मैंने कभी सुना ही नहीं था । यह ी तो रहस्य की बात है। जैसे ही उल्टा कथन करेंगे तो लोग कहेंगे अरे! आप ऐसा क्यों कह रहे हो? सत्य तो सत्य है। यह ी तो सत्य है जो आज तक आपने सुना ही नहीं। पर्याय , पर्याय है, द्रव्य, द्रव्य है। पर्याय है, सो मि थ्या है। ऐसे लोग रह्स्य और बना लेते हैं, उसको। जो भोले-भाले होते हैं उनमें से दो चार में से एकाध तो टपक ही जाते हैं, उधर की तरफ। समझ आ रहा है न। बस ऐसे धीरे-धीरे gang सी बनती चली जाती है। gang ही कहेंगे और क्या कहेंगे? जो धर्म विरूद्ध चल रहे हैं। एक नई gang तैया र हो गई। अब यह क्या है? ‘तम्मयत्ता दो’। समझने की कोशि श करो। हर द्रव्य हमेशा अपनी पर्याय से तन्मय है। सि द्ध बनने के बाद ही सि द्ध पर्याय की तन्मयता बनेगी। अरिह न्त पर्याय में अरिह न्त पर्याय के साथ ही वो तन्मय है। साधु, साधु के साथ तन्मय है। साधु में साधु की अनुभूति आएगी। वह कि तना ही सिद्धोह ं, सिद्धोह ं कर ले तो भी उसको सि द्ध की अनुभूति नहीं आ जाय ेगी क्योंकि वह अनुभूति द्रव्य की उस रूप परि णमन होने पर ही आएगी। जब वो अनन्त सुख रूप, अनन्तज्ञा न रूप शरीर से रहि त होकर जब परि णमन करेगा तभी उसको वह अनुभूति आएगी। उससे पहले तो ध्या न, ध्येय , ध्या ता सब अलग-अलग ही होते हैं। एक नहीं हो जाते हैं। उसी को आचार्य महा राज देखो क्या लि खते हैं:-

द्रव्यार्थि व्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता, पर्या य अर्थि र्थिवश पर्य य रूप पाता।
ऐसा कथञ्चित अनन्य व अन्य होता, तत्का ल क्यों कि वह तन्मय द्रव्य होता।।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप - by sumit patni - 12-17-2022, 08:55 AM
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