प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन
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सप्तभंगी- जैन दर्श न का अनेकान्त दर्श न रूप प्रा ण

अब यहा ँ पर जो द्रव्यार् थिक नय और पर्यार् थिक नयों के माध्य म से हर द्रव्य के स्व रूप का यथा र्थ वर्ण न किया था , उसी में द्रव्य की अनेक पर्याय ें जो हमें दिखाई देती हैं और उन अनेक पर्याय ों को हम कि तने अधि कतम भेदों के रूप में या भंगों के रूप में जान सकते हैं, उसको यहा ँ बताया है। इस गाथा को, सप्त भंगी को समझाने वा ली गाथा कहा जाता है। जो जैन दर्श न का अनेकान्त दर्श न रूप प्रा ण है उस अनेकान्त दर्श नमय स्या द्वा द नय के माध्य म से वस्तु की व्यवस्था बनती है और उसी में ये सप्त भंग बनते हैं। ये चीजें यथा र्थ रूप से वस्तु को समझने के लि ए आवश्यक हैं। इसलि ए पहले तो ये जानना चाहि ए कि हर वस्तु अनेक धर्मा त्मक है, इसी को कहते हैं- अनेकान्त धर्म रूप हर पदार्थ। पदार्थ या नी कोई भी पदार्थ चाह े वो जीव रूप हो, अजीव रूप हो, हर पदार्थ अनेक धर् मों के साथ चलता है। इसलि ए अनेकान्त धर्म का मतलब होता है ‘न एकः धर्मः यस्मिन् वि द्यते स अनेकान्त:’ एक धर्म जिस में नहीं है, एक प्रकार का स्व भाव जिसमें नहीं है। धर्म माने क्या आया ? स्व भाव , वस्तु का गुण, धर्म , ये सब एकार्थवा ची होते हैं। धर्म कहने का मतलब यह नहीं समझ लेना जो हम धर्म कर रहे हैं, वह धर्म है। धर्म करने का मतलब वस्तु जो अपने अन्दर स्व भाव को धारण करता है, जो वस्तु अपने अन्दर अनेक गुणों को धारण करता है, वह ी वस्तु का धर्म कहलाता है। जैसे अग् नि उष्णता धारण करती है, तो उष्णता अग् नि का धर्म हो गया । जल तरलता को धारण करता है, तो तरल रूप होना उसका धर्म हो गया । जीव चैतन्य भाव को धारण करता है, जानने-देखने की शक्तिय ों को धारण करता है, तो ये सब उसके धर्म हो गए। ऐसे ही हर पदार्थ अनेक धर्म वा ला है मतलब अनेक स्व भाव वा ला है। उसके गुण धर्म अनेक रूप के होते हैं, यहा ँ तक कि अनन्त धर्मा त्मक भी कहा जाता है। 

पदार्थ के अनेक गुणधर्मों के कहने की पद्धति का नाम स्याद्वाद
हर पदार्थ में कि तने धर्म हैं? अनेक भी हैं और उन अनेकों को अनन्त भी कहा जाता है। एक नहीं है, इसका नाम है- अनेक। अनेक धर्मा त्मक जो पदार्थ हैं, उस पदार्थ को जब हम समझाते हैं या जानते हैं और उसी को जब हम कहने की चेष्टा करते हैं तो उस पदार्थ को जो कहने की शैली होती है, उसको स्या द्वा द शैली कहा जाता है। अक्सर लोग पूछते हैं, अनेकान्त, स्या द्वा द, सप्त भंगी, ये क्या कहलाता है? अभी क्रम से इसी का वर्ण न सामने आ रहा है। अनेकान्त तो पदार्थ व्यवस्था हो गई; अनेक धर्मा त्मक। प्रत्ये क पदार्थ कैसा है? अनेकान्त स्व रूप है। वस्तु कैसी है? अनेकान्त स्व रूप है। हर धर्म को वह धारण करनेवा ला है और इस अनेकान्तरूप धर्म के साथ में जब हम कि सी एक धर्म को, एक गुण को, कि सी एक स्व भाव को, जब हम कहते हैं तो अन्य स्व भाव उसमें नहीं कहे जाते हैं। एक को कहेंगे तो दूसरा कहने में नहीं आएगा। जिसको हम कहेंगे वो होगा मुख्य और जो नहीं कहने में आ रहे वे सब हो गए गौण। अतः ये मुख्य और गौण को बताने के लि ए एक स्या द शब्द आता है। स्या द शब्द जो आप स्या द्वा द में सुनते हैं। स्या द् का मतलब हुआ जो हम कहना चाह रहे हैं वह तो है- मुख्य और जो हमने नही कहा है वह सब है- गौण। स्या द के साथ में जब हम कि सी भी धर्म को कहते हैं तो वह इस बात को बताने वा ला होता है कि इसमें अभी जो बताया जा रहा है, इस धर्म की तो मुख्यता है बाकी और भी हैं, नि षेध नहीं है। समझ आ रहा है न? जैसे अग् नि में उष्णता रूप ही धर्म है, ऐसा एक ही धर्म नहीं है और भी धर्म हैं। अस्तित्व रूप भी है, अग् नि की उष्णता जलाने का ही काम करती है, ऐसा भी नहीं है, पकाने का भी काम करती है। अनेक तरह के उसमें गुण धर्म हैं, वे हम एक साथ नहीं कह सकते हैं। तो हर पदार्थ का जो एक गुण धर्म कहने के लि ए हमें जो पद्धति अपनानी पड़ती है उसको कहते हैं- स्या द्वा द। जब हमने स्या द्वा द कहा तो इसका मतलब क्या हो गया ? स्या द् के साथ हम वा द कर रहे हैं। वा द माने कह रहे हैं, कथन कर रहे हैं। स्या द् के साथ वा द करने का मतलब यह हो गया कि हम कि सी भी पदार्थ को कह रहे हैं तो कि सी अपेक्षा से कह रहे हैं। उसके गुणधर्म को हम कि सी अपेक्षा से बता रहे हैं। ये स्या द् शब्द अपने आप में कथञ्चि त् का प्रतीक हो जाता है। स्या द् माने क्या हो गया ? कथञ्चि त्; वस्तु कथञ्चि त् ऐसी भी है और कथञ्चि त् ऐसी भी है। इस तरह से जो वस्तु की व्यवस्था को नि रूपि त किया जाता है, कहा जाता है, उसको स्या द्वा द शैली कहा जाता है। दिमाग में यह बात रहनी चाहि ए की हर पदार्थ अनेक धर् मों वा ला है और एक-एक धर्म को कहने के लि ए हम जो शैली अपनाते हैं उसका नाम है- स्या द्वा द शैली। स्या द्वा द तो हो गई धर्म को कहने की पद्धति और वस्तु हो गई अनेक धर्म रूप। इसलि ए अनेकान्त दर्श न कहा जाता है, जैन दर्श न को क्या कहते हैं? अनेकान्त दर्श न क्योंकि जैन दर्श न की ये पहचान है कि अनेक धर् मों वा ले पदार्थ को वो बताता है। एकान्त रूप से वस्तु को एक रूप ही नहीं मानता है अनेक धर्म रूप मानता है, अनेक स्व भाव रूप मानता है।

पर्या य बदलती चली जाती है, द्रव्य एक ही बना रहता है
जैसे पि छले दिनों में आपको बताया , वह एक भी है और अनेक भी है। है भी है और नहीं भी है। द्रव्य से वह ी है और पर्याय से भि न्न हो गया , फिर भि न्न हो गया , फिर भि न्न हो गया , फिर भि न्न हो गया , फिर अलग-अलग हो गया । पर्याय बदलती चली जा रही हैं और द्रव्य एक ही बना है। एक भी रहता है, अनेक भी रहता है, एक के साथ भि न्नता आ गई। ये जो विपरीतता का वर्ण न करने वा ली हमारी जो स्या द्वा द पद्धति है, इसी को यहा ँ पर बताया जा रहा है कि पर्याय ें या कोई भी धर्म जब हम कि सी भी रूप में कहते हैं तो उसके सात तरीके हो जाते हैं। अब जैसे अनेक धर्म हैं लेकि न एक धर्म को हम सात तरीके से समझ सकते हैं। या यूँ कहे कि जब हम एक धर्म की बात कहेंगे कि वस्तु ऐसी है माने हमने कहा वस्तु है, तो उसको कहेंगे ‘स्या द अस्ति एव’ माने वस्तु है ही। क्या कहा हमने? ‘स्या द अस्ति एव’ माने वस्तु अस्ति है। अस्ति माने है- उसका existence है। जैसे ही हमने कहा कि पदार्थ है, तो है। कहते ही आपके सामने सात तरह के question आ सकते हैं, इससे ज्या दा नहीं आएँगे। सात तरह के आपके मन में विचार आ सकते हैं, इससे ज्या दा नहीं आएँगे। उन सब विचारों को पकड़कर जो हमें कहने की पद्धति बताई जाती है कि आप सात तरीके से सोच सकते हो, सात तरीके से आपका ज्ञा न काम कर सकता है, उसी का नाम है- सप्त भंग। समझ आ रहा है? उसको क्या बोलते हैं? सप्त भंग माने सात प्रकार के उसके भंग बन जाते हैं। वह ी सात भंग यहा ँ पर इस गाथा में लि खे हुए हैं।


सप्तभंग- कथन की सात पद्धति
‘अत्थित् ति य’ माने अस्ति है। द्रव्य कैसा है? अस्ति रूपी है। नीचे जो शब्द लि खा है ‘पज्जा एण दु केण वि ’ माने कि सी भी पर्याय से वह अस्ति रूप है। ‘णत्थि त् ति य’ वह ी नास्ति रूप भी है, ‘य हवदि अवत्त व्वमिदि ’ और वह ी अवक्तव्य रूप भी है। अवक्तव्य कहते हैं- जो कहने में न आए। जब हम दोनों धर् मों को एक साथ कहना चाह ेंगे तो एक साथ कहने में नहीं आता, इसको बोलते हैं- अवक्तव्य। जो अस्ति है, वह नास्ति भी है और जो अस्ति-नास्ति दोनों को एक साथ कहने में नहीं आना, इसलि ए वो क्या है? अवक्तव्य, अनिर्व चनीय, अवाच्य। जिसको हम कह नहीं सकते कि वस्तु आखि र है कैसी? ये भी उसमें विचार आ जाता है, तीसरा भंग ये हो जाता है। फिर तदुभयम माने वो दोनों रूप भी है, जो अन्त के पद में लि खा है अस्ति भी है, नास्ति भी है, तो जब क्रम-क्रम से इसका वर्ण न करते हैं तो अस्ति और नास्ति दोनों रूप भी हो गया है। तदुभय ये चौथा भंग हो गया । फिर इसी के साथ में आदिष्ट कर लेना अन्य भंगों को। माने अस्ति के साथ में अवक्तव्य जोड़ करके एक भंग बनाना अस्ति अवक्तव्य हो जाएगा। नास्ति के साथ में अवक्तव्य जोड़ना तो नास्ति अवक्तव्य हो जाएगा और फिर उवय के साथ में अवक्तव्य जोड़ना तो अस्ति नास्ति अवक्तव्य हो जाएगा। तो सात भंग पहले लि खना और सुनना सीख लो। हमने कहा वस्तु है, अस्ति रूप अगर हम कि सी धर्म की व्याख्या कर रहे हैं तो उसको हम सात तरीके से कह सकते हैं और सात तरीके से ही सोच सकते हैं। स्या द-अस्ति, स्या द-नास्ति, स्या द-अवक्तव्य और स्या द-अस्ति-नास्ति ये चार हो गए और तीन जो हैं अस्ति, नास्ति और अस्ति-नास्ति को अवक्तव्य के साथ में मि लाने से बन जाते हैं। माने स्या द-अस्ति-अवक्तव्य ये हो गया पाँचवा । स्या द-नास्ति-अवक्तव्य ये हो गए छटवा ँ और स्या द-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य ये हो गया सातवा ँ। क्रम से समझने के लि ए हमें इसका क्रम इस रूप से बनाना चाहि ए यूँ कि ये गाथा है इसलि ए गाथा में अवक्तव्य को पहले लि ख दिया है बाकी पहले हम अगर ऐसे लें स्या द-अस्ति, स्या द-नास्ति, स्या द-अस्ति-नास्ति। ठीक है न। ये तीन ले लि ए पहले, फिर स्या द-अवक्तव्य ये चौथा हो गया ,अब अवक्तव्य के साथ ऊपर वा ले तीनों भंगों को मि ला दो। स्या द-अस्ति-अवक्तव्य, स्या द-नास्ति-अवक्तव्य, स्या द-अस्ति नास्ति-अवक्तव्य तो ये सात भेद आसानी से समझ में आ जाते हैं। ये कहलाता है- सप्त भंग।


सप्तभंग की वि शेषताएँ
(1) द्रव्य अस्ति स्वरूप है- यानि स्या द अस्ति
इस सप्त भंगी की बड़ी विशेषताएँ हैं। क्या विशेषताएँ हैं? कोई भी पदार्थ को कहने के लि ए जब हम तैया र होते हैं तो उसके सामने सात प्रकार के प्रश्न खड़े हो सकते हैं आपको पता नहीं रहता है। हमने कहा , वस्तु कथञ्चि त् है, तो वह है, हमने कथञ्चि त् लगाया तो कथञ्चि त् कि स अपेक्षा से है? तो वहा ँ पर आपको अपेक्षा बतानी पड़ेगी। वस्तु कि स अपेक्षा से है? आचार्य कहते हैं वस्तु स्व रूप की अपेक्षा से है। क्या कहा ? अपने स्व रूप की अपेक्षा से है। माने अपना स्व -रूप का मतलब हो गया स्व -द्रव्य, स्व -क्षेत्र , स्व -काल, स्व -भाव की अपेक्षा से पदार्थ है, वस्तु है। इसको क्या कहा ? स्या द अस्ति। अस्ति क्यों हो गई? स्व -रूप की अपेक्षा से हर पदार्थ है।

(2) द्रव्य का नास्ति रूप धर्म
फिर कहा स्या द नास्ति। वह ी वस्तु नहीं है, तो कि स अपेक्षा से नहीं है? पर द्रव्य की अपेक्षा, पर-क्षेत्र , पर-काल, पर-भाव यानि पर-स्व रूप की अपेक्षा से नहीं है। हर पदार्थ स्व -रूप की अपेक्षा से होता है और पर-रूप की अपेक्षा से नहीं होता। अब आप कहोगे इसमें क्या बात हो गई? अब देखो इसमें कि तनी बड़ी विशेषता आ गई। जब हमने कह दिया कि हर पदार्थ जैसे कि मान लो ये पुस्त क है। य ग्रन्थ है, इसका अस्तित्व है यह अस्ति रूप है। अपने स्व -रूप की अपेक्षा से यह ग्रन्थ है। फिर हमने कहा यह ग्रन्थ नहीं है- दूसरे ग्रन्थ की अपेक्षा से, इस घड़ी की अपेक्षा से, इस माइक की अपेक्षा से, इस कपड़े की अपेक्षा से, इस द्रव्य की अपेक्षा से यह नहीं है। इसने क्या किया ? नास्ति धर्म ने अन्य द्रव्यों को इसमें मि लने से रोका है नहीं तो सब घटपट हो जाता, यह सब एक ही हो जाता। क्या समझ आ रहा है? अस्ति कहने से वस्तु का स्व रूप बना और नास्ति कहने से वो दूसरों को अपने में नहीं रखेगा, दूसरों को नकारेगा, मैं यह नहीं हूँ। जैसे मैं हूँ, मैं तो मैं हूँ लेकि न तुम मैं नहीं हूँ, तुम भी मैं नहीं हूँ। ये क्यों नहीं हूँ मैं, ये भी हमारे अन्दर एक धर्म है, एक स्व भाव है, इसको कहा जाता है- नास्ति स्व भाव । यूँ ही नहीं है ये भी है, तो अपनी अपेक्षा से हर कोई द्रव्य होता है। आप बोलते हैं न अपने लि ए मैं हूँ, तुम्हा री तुम जानो। मतलब मैं अपने स्व रूप से हूँ, अपने ज्ञा न से हूँ, अपने द्रव्य-क्षेत्र -काल-भाव से हूँ तो वह हो गया अपने स्व रूप की अपेक्षा हर पदार्थ का अस्तित्व होता है और फिर जब मैं अपने अस्तित्व को धारण कर रहा हूँ तो मेरा अस्तित्व जो है वह दूसरे में मि ला हुआ नहीं है। मेरा अस्तित्व मेरा ही है, दूसरे से भि न्न है, तो दूसरे से भि न्न कि स कारण हो रहा है? मेरे अन्दर जो नास्ति धर्म है, वह आपको मुझसे अलग ही रखेगा, कभी नहीं मि लाएगा।


स्वरूप की अपेक्षा से हर द्रव्य है और पर स्वरूप की अपेक्षा से वह द्रव्य नहीं है
इसीलि ए एक पदार्थ में कभी दूसरा पदार्थ मि ल नहीं सकता। परमाणु मि ल जाएँगे, स्कन्ध बन जाएगा लेकि न फिर भी परमाणु तो परमाणु ही कहलाएँगे। एक जीव में दूसरा जीव कभी मि ल नहीं सकता है। जो पदार्थ जिस रूप में अस्ति के साथ में है वह उस रूप में अस्ति के साथ है, अन्य पदार्थों के साथ वह नास्ति रूप है इसलि ए पर-द्रव्य की अपेक्षा से हर पदार्थ नास्ति रूप होता है और स्व -स्व रूप की अपेक्षा से हर पदार्थ अस्ति रूप होता है। पर-रूप की अपेक्षा से नास्ति रूप। मैं हूँ, कि स अपेक्षा से? अपने स्व -स्व रूप की अपेक्षा से। आप हैं, कि स की अपेक्षा से? आप अपने स्व -स्व रूप की अपेक्षा से। आप देखो! इसमें कि तनी अच्छी व्यवस्था बनती है। आपका अपना द्रव्य है- स्व -द्रव्य इसको स्व -चतुष्टय कहते हैं, स्व -द्रव्य, स्व -क्षेत्र , स्व -काल और स्व -भाव । इसी को स्व -स्व रूप कहते हैं, स्व रूप कहते हैं। इन चारों के मि लने को क्या बोलते हैं? स्व रूप। अपने स्व -स्व रूप की अपेक्षा से हर द्रव्य है और पर-स्व रूप की अपेक्षा से वह द्रव्य नहीं है। कि तनी भी धातु की प्रति मा बना लो, प्रति मा में धातुएँ भी अगर आप अलग-अलग देखोगे। आपने पूछा है कि अष्ट धातु की प्रति मा है, तो वह एक कही जाएगी कि अनेक कही जाएगी? स्व -स्व रूप उनका भी देखो तो क्या हो गया ? अनेक चीजें मि लकर एक पर्याय बन गई। अब एक पर्याय बनी तो हमने क्या कहा ? यह एक प्रति मा बन गई। अब वह प्रति मा अपने स्व रूप की अपेक्षा से है, अन्य प्रति मा की अपेक्षा से नहीं है। जब हमने एक पर्याय की दृष्टि से दूसरी पर्याय को भि न्न रूप देखा तो अभी हम कि सको अस्तित्व स्वी कार कर रहे हैं? आप दोनों बातें एक साथ मत बोलो। आपको धातु का अस्तित्व मानना है कि प्रति मा का? धातु में अस्ति-नास्ति घटित करना है कि प्रति मा में? पहले प्रश्न स्पष्ट रखो। समझ आ रहा है? तो धातु में है, तो प्रति मा की बात मत करो। हा ँ, अष्टधातु हैं तो आपको अष्टधातु में जो प्रति मा है, उसमें हर एक धातु आपको अस्ति रूप में मि लेगी। जो भी उसमें आठ धातुएँ मि ली हैं वो हर एक धातु उसमें अस्ति रूप में है। और एक धातु दूसरी धातु में मि ली तो है लेकि न एक धातु का जो अस्तित्व है वो उसका अपना स्व -स्व रूप की अपेक्षा से अस्तित्व उसमें बना हुआ है। अन्य धातु का अस्तित्व उसमें नहीं आया है, वह पर-स्व रूप की अपेक्षा से उसमें नहीं हैं।
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