प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन
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वस्तु स्वरूप जानने वाला किसी से डरता नहीं है

अरे इतनी सामर्थ्य रखो, वस्तु स्व रूप कभी भी कि सी से भी भय नहीं पैदा करता है और वस्तु स्व रूप जानने वा ला कभी भी कि सी से डरता नहीं है और कभी दीन-हीन नहीं होता। समझ आ रहा है न? तीर्थं करों के सामने भी प्रश्न करने वा ले आचार्य समन्तभद्र महा राज हुए हैं और वह प्रश्न करते हैं। भले ही उनके सामने तीर्थं कर नहीं थे लेकि न हम जैसे लोगों को समझाने के लि ए उन्हों ने सब प्रश्न उठाए हैं। वह ी प्रश्न कौन कर सकता है? क्योंकि वह अनेकान्त को जानने वा ले हैं, स्या द्वा दी हैं इस तरीके से हम भी भगवा न के सामने प्रश्न कर सकते हैं। आपने हमें जो सि खाया अब जैसे नटखट बच्चा होता है हम उसको कुछ सीखाते हैं। वह कुछ का कुछ सुनता है, कुछ का कुछ फिर समझता है और कुछ तरीके से है वो अपने ऊपर react करता है। हमें तो मालूम है, हम नटखट बच्चे हैं। जैसे कोई बच्चे से कह दिया बेटा, कह दे पापा घर में नहीं है और उसने जा कर वहा ँ बोल दिया कि पापा ने कहा है, पापा घर पर नहीं है। यह उसका नटखटपना है। अब पापा के सामने आया तो वो कहने लगा क्यों मैंने तुझसे कहा था न बोल दे पापा घर पर नहीं है। मैंने यह ी तो बोला था , पापा घर पर नहीं है आप ही ने तो बोला था । जो बोला था आपने वह ी तो मैंने वहा ँ बोला है। मैंने कुछ नया कहा ँ बोला है? जब कोई बात हमारे सामने कही जा रही है, हमें उसकी अपेक्षा मालूम होगी तो उस अपेक्षा से हम कुछ भी कहने को समर्थ होंगे तो वो कथन हमारा गलत नहीं होगा। क्या समझ आ रहा है? संख्या की अपेक्षा से बताओ कौन बड़ा है? संख्या की अपेक्षा से ज्ञा न की संख्या पाँच हैं न, आपने ही बताया था न तीर्थं कर भगवा न, जिसमें ज्या दा संख्या का ज्ञा न होगा वो ही तो ज्या दा बड़ा ज्ञा न वा ला कहलाएगा, संख्या की अपेक्षा से। आप यह बताओ कि तनी संख्या में आपके पास ज्ञा न है? आप के पास एक ही ज्ञा न है और हमारे पास कि तने है, तो हम बड़े हो गए न? बस संख्या की अपेक्षा से कहने में कोई बाधा नहीं। ज्ञा न की संख्या की अपेक्षा से हम भगवा न से अधि क हैं। इन्द्रिय ज्ञा न की अपेक्षा से हमारे अन्दर अधि क इन्द्रिय ज्ञा न है, आप के पास नहीं है भगवा न! आप तो अतीन्द्रिय हो गए। जब भी कभी आपको कि सी भी चीज का यथा र्थ मालूम पड़ेगा तो आपके लि ए कभी भी ऐसा कहते हुए भी अहं नहीं आएगा। कम समझते हुए भी कभी दीनता नहीं आएगी। यथा र्थ स्व रूप है फिर भी हम आपको केवलज्ञा नी मान रहे हैं, आपको तीर्थं कर मान रहे हैं, आपकी पूजा कर रहे हैं क्योंकि हमको मालूम है कि जो हमारे पास है वो तो बहुत क्षुद्र है, छोटा है। लेकि न आप के पास है वो बहुत बड़ा है। लेकि न फिर भी आपका बच्चा है, तो आपसे प्रश्न तो करेगा ही न?
इन्द्रि य ज्ञा न का महत्
खुश होने के लि ए ये विचार भी काफी है, आखि र खुश तो रहना हैं न। आप कि सी भी तरीके से रह सकते हो और विचार ही हमको खुश रखते हैं। अब केवलज्ञा न नहीं हो रहा , केवलज्ञा न नहीं हो रहा , पंचम काल है, तो रोते रहे क्या ? अरे जो है उसमें खुश रहो। यह श्रुतज्ञा न क्या कम है? जो हमें सात-सात भंग बताए जा रहे हैं, इन अनेकान्त के विचारों का हम अपने-आप में ज्ञा न रखे हैं और इस तरीके का फाय दा उठाए तो यह क्या कम है। यह हमको सुनने को मि ल रहा है। जिनवा णी हमारे कान अभी हमारे पास अच्छे हैं, हम सुन सकते है, देख सकते हैं। मति ज्ञा न क्या कम है हमारे पास? जब तक हम हर एक चीज की महत्ता नहीं समझते तब तक हमारे लि ए अपने पास में कि तनी भी अच्छी चीजें हो हम उनको कोई भी है जो important नहीं समझते और दूसरे की एक बात को ध्या न में रखकर सब अपने लि ए समझते हैं, हमारे पास कुछ है ही नहीं।
अपेक्षा एँ दु:ख का कारण हैं
इसलि ए दुनिया में कोई भी इन्सा न दुःखी होने के लि ए पैदा नहीं हुआ है। अनेकान्त को समझे, हर इन्सा न तो हर इन्सा न सुखी है और अगर सुखी रह सकता है, तो ऐसी ही अपेक्षाओं से सुखी रहता है। आखि र आपके मन में दुःख आता है, तो कि ससे आता है? अपेक्षाओं से ही तो आता है। यह भी तो अपेक्षा ही है। आपने कि सी से कोई अपेक्षा रखी उसने पूरी नहीं की दुःख हो गया । अब उसी समय पर यह समझ लो, यह हमारी अपनी केवल इसकी अपेक्षा से दुःख है जो हमने इससे अपेक्षा रखी थी। यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई इसलि ए दुःख हुआ बाकी कुछ नहीं, बाकी हमारे बहुत अन्दर सारी अपेक्षाएँ हैं दूसरों से। दूसरों से अपेक्षाओं से हम हमारे अन्दर और सुख प्राप्त कर सकते हैं। एक की अपेक्षा न हुआ तो क्या हो गया ? बच्चा एक अपेक्षा में ही suicide कर लेता है। उसके 95% आए, 99% क्यों नहीं आए? समझ आ रहा है न? बस 95% की rank बनी, मैं third रह गया , suicide कर दिया । एक ही तो चीज जानी उसने, एक ही तो अपेक्षा से वो सोचता रहा हमने कभी दूसरी अपेक्षाएँ बताई नहीं, कि तू केवल इस अपेक्षा से बड़ा नहीं हो रहा है कि तेरे 95% आ रहे हैं इसीलि ए तू अच्छा नहीं है, तू और भी कारणों से अच्छा है। तेरा स्व भाव कि तना अच्छा है, तू मेरा एक इकलौता बेटा है इसलि ए बहुत अच्छा है। तेरे प्रति हमारे प्रति और अपेक्षाएँ हैं। यह तो चलो ठीक है, यह स्कू स्कू ल की अपेक्षा से कॉलेज की अपेक्षा से हो गई, बाकी तू बहुत कुछ कर सकता है। तुझे समग्र ता का ज्ञा न उसको होता तो वो suicide कैसे करता। क्या सुन रहे हो, आज जैनी लोग दुःखी हैं इसी अनेकान्त को नहीं जानने के कारण से।

विचारों के साथ क्रा न्ति लाने वाला है अनेकान्त धर्म -

एक जमाना होता था जब इस अनेकान्त दर्श न की मतलब व्याख्या एँ हर जैनिय ों के मुँह पर रहती थी। हर व्यक्ति जो है इस अनेकान्त धर्म के मर्म को समझता था और इसी के अनुसार जो है हर चीज की कथनी होती थी, व्याख्या एँ होती थी। एक समय था लेकि न अब ये अनेकान्त दर्श न का नाम जो है, बि लकुल शून्य हो गया है। कोई भी कुछ नहीं बोलता, न जानता न कोई बताता। जब कि धर्म कोई भी रूप में हो आखि र जितने भी धर्म हैं वो सब जैसे हमने कहा , ‘अहिंसा परमो धर्म ’ यह तो हमारे चलो अहि ंसा की, हमारी जीने की एक पद्धति हो गई। ‘वत्थु सहाओ धम्मो ’ जो वस्तु का स्व भाव ही धर्म है, अरे भाई हम जो हैं सो हैं उसके लि ए हम कुछ कर ही नहीं सकते हैं। सबसे बड़ा धर्म तो वो होता है जो विचारों के साथ हमारे अन्दर क्रा न्ति लाए और वो धर्म क्या है? वह धर्म यह ी है ‘अनेकान्तात्म क धर्म :’ हर पदार्थ को अनेकान्त रूप देखो, अनेकान्त के साथ हर पदार्थ का दर्श न करो और अनेकान्त रूप हर पदार्थ को जानकर इस अपेक्षा से देखो कि हम कि स अपेक्षा से क्या जान रहे, क्या देख रहे हैं। जब आप अपने को अनेक अपेक्षाओं से जानने लगोगे, दूसरों को अनेक अपेक्षाओं से जानने लगोगे तो एक अपेक्षा से होने वा ला दुःख आपको नहीं मि लेगा और जितना भी दुःख है दुनिया में वो सब एक ही अपेक्षा से होता है।
जब भी लड़ाई-झगड़े का कारण बनेगा तो एकान्त
मान लो घर में पत्नी है। जब से विवाह हुआ तब से चलो बड़ा अच्छा जीवन चल रहा था । सब सुख ही था , सब चल रहा था । क्या हुआ? एक बार पत्नी ने कोई माँग रखी पति ने न सुनी कर दी, ठीक है! एक बार न सुनी हो गई। चलो, उसने भी कुछ मन बना लिया चलो। फिर दूसरी बार उसने फिर न कहा । वह ी बात उसने फिर कह दी पति ने फिर न सुनी कर दी। बाकी सब अच्छा चल रहा है, अच्छा खि ला रही है, अच्छा खा रही है, अच्छा घूम रही है, अच्छा सब कुछ अच्छा चल रहा है। पूरे घर में सुख है लेकि न अब उसके दिमाग में क्या बैठता जा रहा है? मैंने इससे कुछ कहा था , इनसे कुछ कहा था और ये हमारी उस demand को बार-बार न सुनी कर देते हैं, सुनकर भी उस पर ध्या न नहीं दे रहे हैं। ये जैसे ही बात उसके मन में घर करेगी तो क्या होगा? अपने पति के प्रति अब उसके अन्दर जो प्रे म है उसमें धीरे-धीरे कमी आने लगेगी। बाकी हजार चीजें हैं सब अच्छी हैं लेकि न एक अपेक्षा की पूर्ति र्ति नहीं हो रही है। आप हमारी तरफ ध्या न नहीं देते हो, मैं आप की हर बात पर ध्या न देती हूँ। आप जो कहते हैं वो सब करती हूँ और मैं जो कुछ कहती हूँ आप सुनते नहीं हो। मुझे अपने लि ए यह चाहि ए मैं दो बार कह चुकी, तीन बार कह चुकी आप सुन ही नहीं रहे हो। एक अपेक्षा के कारण से पूरा का पूरा, उसका सारा का सारा जो अच्छा पारिवारि क व्यवहा र चल रहा था , सम्बन्ध चल रहा था वो सारा का सारा बि गड़ सकता है और बि गड़ जाता है। पति यह सोच रहा है, अरे! इस बात के लि ए क्या नाराज होगी कोई बात नहीं, अभी हमारे लि ए इसकी बात को सोचने का time नहीं है, इतना अब यह सोचने का हमारे पास वो सामर्थ्य नहीं, जो इस बात की पूर्ति र्ति कर सके। चलो बाद में देखेंगे, कहने दो उसको जो कहती है। सुन रहे हो, दो बार कह दिया , तीन बार कह दिया अब तो उसकी, हा ँ, अब उसका patience जाने लगा। अब वो warning देने की तैया री करती है। अब मैं आप से last कह रही हूँ उसके बाद मैं बोलूँगी नहीं, इसके बाद मैं कहूँगी नहीं आपसे, अब आप सुन लो अन्ति म बार। सुन लो, इसके बाद में इस बात की जिक्र नहीं करूँरूँगी अगर आपने नहीं सुना। समझ आ रहा है न? और कहीं पति ने उस बार भी उसकी बात पर ध्या न नहीं दिया , यह सोचते हुए कि मेरी पत्नी है, प्या री पत्नी है, कहा ँ जाएगी। मुझसे इतना प्रे म करती आई है, इतना अच्छा घर चला रही है, वैसे ही कहती रहती है, कोई बात नहीं। वह उसको mind नहीं कर रहा है। क्या होगा? महा भारत। उस पत्नी को समझाने के लि ए कह रहा हूँ मैं कि देख, जितना कुछ भी अच्छा चल रहा था वह सब कि स कारण से बि गड़ता जा रहा है? अन्य अनेक भी अपेक्षाएँ हैं जो तेरी पति पूर्ति र्ति कर रहा है। एक अपेक्षा को ही अगर हम सामने रख लेते हैं, उसी को हम मुख्य बना लेते हैं, तो जितना भी है हमारे सामने है अच्छा वो सारा का सारा बि गड़ जाता है।
वस्तु में धर्म अनेक हैं

मेशा ये सोचना चाहि ए कि कि सी अपेक्षा से कुछ अच्छा है, ये भी हमारे लि ए अच्छा है, ये भी हमारे लि ए अच्छा है, ये भी हमारे लिय े अच्छा है, ये भी हमारे लिय े अच्छा है। अब पति का पत्नी , पत्नी का पति । अरे भाई! बड़ी ही समस्या है दिल्ली के अन्दर। मेरे मुँह से हमेशा पत्नी के ही बारे में नि कलता है और पत्निया ँ कहती है, उलटा भी हो सकता है। हा ँ! हो सकता है न, उसमें कोई मैं मना नहीं कर रहा हूँ। पति भी जो है पत्नी की साथ , पत्नी जो है पति के साथ , कि तनी तरीके के व्यवहा र में कि सी की कि सी भी एक अपेक्षा से कुछ भी जो है बि गड़ सकता है। यह सब क्या है? nature है, human nature है। कि सी के अन्दर हो सकता है, स्त्री के अन्दर, पुरुष के अन्दर, पति भी ऐसे nature वा ला होता है कि वो, पत्नी उसके लि ए सब कुछ अच्छा कर रही है लेकि न एक चीज अच्छी नहीं कर पाती तो उसी के कारण परेशान हो जाता है। छोटी सी बात पर परेशान हो जाता है। आज तक बीस साल हो गए शादी कि ए हुए एक भी दिन ऐसा भोजन नहीं बना जिस दिन बराबर नमक होता है भोजन में। बस एक अपेक्षा से भी जो है वो पूरी अपनी पत्नी के जितने भी काम है जितना उसका घर का प्रे म है, वह सब नष्ट हो जाता है। हमें ये समझना है कि वस्तु में धर्म अनेक है; पति में भी अनेक गुण है और पत्नी में भी अनेक गुण है। सब के लि ए कह रहा हूँ यह मैं। स्त्रिय ों में भी अनेक गुण धर्म हैं क्योंकि वो भी एक पदार्थ है, वो भी उनकी एक आत्मा है, वो भी एक अनन्त धर्मात्मा है और पुरुषों में भी, उनकी भी आत्मा अनेक धर्मा त्मक है। कि सी में भी, कि सी की आत्मा में भी एक गुण भी कम-ज्या दा नहीं है। यह बात आपको स्त्री और पुरुष की अभी तो ख्या ल आती है, जब हम बोलते हैं तब तो स्त्री हमें टोक देती है। जब आपकी शादी होती है और उस समय जो गुण मि लाए जाते हैं तब वे गुण बराबर के मि लते हैं या थोड़े कम मि लते हैं? कि तने होते हैं बोलो? कि सके? बोलो! बोलो! जल्दी बोलो! स्त्रिय ों के कि तने गुण होने चाहि ए? ऐसा कुछ नहीं। फिर भी जब भी उनका विवाह होता है तब पुरुष की अपेक्षा उनके गुण कम ही रहते कि नहीं रहते हैं? अरे होता ही है, ऐसा कुछ नहीं है, बराबर रहते हैं? फिर तो आजकल के पण्डित भी बदल गए मतलब ऐसा हो गया । देखो! पहले जन्मपत्री मि लती थी तो उसमें ऐसा ही होता था । अब आजकल स्त्री -पुरुष के साथ होने लगा हो तो बराबर तो पण्डित भी बदल गए हो तो बात अलग है कि इनका भी दिल रखना पड़ेगा अपने को। पण्डित भी computer हो गए अब तो। कहने का मतलब यह है कि गुणों की कमी-वेशी होते हुए भी हमें यह ध्या न रखना है कि हर कि सी के अन्दर बराबर के ही गुण होते हैं। एक गुण अगर कभी कि सी में कम हो गया या एक गुण की हमें कोई कमी दिखाई दे रही है, तो हम उसको पूरा का पूरा बेकार न समझे। यह बात अगर हमारे दिमाग में रहेगी तो कभी भी हमारे छोटी सी बात पर लड़ाई-झगड़े नहीं होंगे। जब भी लड़ाई-झगड़े का कारण बनेगा तो इसी एकान्त, एक अपेक्षा के सोचने के कारण से होता है। अभी तक सब अच्छा चल रहा था , आपस में, पति -पत्नी के सम्बन्ध में, घरवा लों में भी सब अच्छे सम्बन्ध बने हुए थे। हर कि सी के माता-पि ता, चलना-बैठना सब हो रहा था और धीरे-धीरे एक छोटी सी बात के कारण से अब वह अपने माता-पि ता के घर नहीं जाती। वो उनके माता-पि ता के घर नहीं जाता। समझ आ रहा है? सब कुछ एक छोटी सी बात पर गड़बड़ हो जाता है। क्यों होता है? हमने एक अपेक्षा को ही सारे वस्तु समझ लिया , सारा पदार्थ समझ लिया जब कि वो एक angle से ही वो चीज थी, एक कि सी अपेक्षा से ही वो चीज थी, सर्वथा नहीं थी। वह ी यहा ँ समझना है। आचार्य कहते हैं यहा ँ कि सी पर्याय से सात भंग बन जाते हैं और पर्याय तो अस्थि र होती है। पर्याय तो नष्ट स्व भाव वा ली होती है। इसलि ए आप को यह समझना है कि यह कोई न कोई पर्याय की अपेक्षा से कथन है और यह पर्याय का गुणधर्म उसके अन्दर इस पर्याय की अपेक्षा से आ रहा है, सर्वथा ऐसा नहीं है। इस तरह से यह अनेकान्त का, स्या द्वा द और स्या द्वा द के हर धर्म के साथ घटने वा ली सप्त भंगी की व्यवस्था यह अपने आप में बड़ी अनमोल चीजें हैं। इनका हर जैन व्यक्ति उपयोग करे, इसका व्याख्या न करे। समझे, समझाएँ तो हमारे मन बड़े अच्छे हो सकते हैं क्योंकि विचारों से ही हमारा मन चलता है और मन अच्छा होने पर ही सब कुछ अच्छा होता है। नीचे का पद्यानुवाद पढ़ते हैं:–


पर्या य के वश किसी वह द्रव्य भी है, है न, है उभय, शब्द अतीत भी है।
औ शेष भंग मय भी वह है कहाता, ऐसा कथञ्चित् वही सब में सुहाता।l

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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