द्वादशांग (Dwadashang) :-
#1

द्वादशांग:-

समस्त द्र्व्य और प्रयायों के जानने की अपेक्षा श्रुत ज्ञान और केवल ज्ञान दोनों समान हैं किन्तु उनमें अन्तर इतना ही है कि केवल ज्ञान ज्ञेयों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है और श्रुत ज्ञान परोक्ष रूप से जानता है l वीतराग,सर्वज्ञ,हितोपदेशी अर्हंत तीर्थन्कर के मुखारविन्द सेसुना हुआ ज्ञान श्रुत ज्ञान कहलाता है।उस श्रुत के दो भेद है।द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत। गणधर उन बीजपदों का और उनके अर्थ का अवधारण करके उनका यथार्थ रूप में व्याख्यान करते हैं ।आप्त की उपदेश रूप द्वादशांग वाणी को द्रव्य श्रुत कहा जाता है।और उससे होने वाले ज्ञान को भाव श्रुत कहते है।
द्रव्य श्रुत के दो भेद हैं, अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य।
आचारांग आदि १२ प्रकार का ज्ञान अंग प्रविष्ट कहलाता है।गणधर देव के शिष्यों-प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु -बुद्धि बल वाले प्राणियों के अनुग्रह के लीये अंगो के आधार से रचे गयेसंक्षिप्त ग्रन्थ अंग बाह्य है।
अंग प्रविष्ट श्रुत के बारह भेद हैं l

अंग प्रविष्ट के १२ अंगो के लक्षणः-

१.आचारांग ः- इसमें चर्या का विधान आठ शुद्धि,पांच समिति, तीन गुप्ति आदि रूप मेंवर्णित है ।
२.सूत्रकृतांगः- इसमें ज्ञान -विनय, क्या कल्प है, क्या अकल्प है,छेदोपस्थापनादि, व्यवहार धर्म की क्रियाऔं का निरुपण है ।
३.स्थानांग ः- एक-एक, दो-दो आदि के रूप से अर्थों का वर्णन है जैसेकि यह जीव द्रव्य अपने चैतन्य धर्म की अपेक्षा एक है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है ।कर्म फल चेतना ,कर्म चेतना और ज्ञान चेतना की अपेक्षा तीन प्रकार का है ।
४.समवायांग ः- इसमें सब पदार्थों की समानता रूप से समवाय का विचार किया गया है धर्म अधर्म लोकाकाश और एक जीव के तुल्य असंख्यात प्रदेश होने से इनका द्रव्य रूप से समवाय कहा जाता है।(इसी प्रकार यथायोग्य क्षेत्र, काल ,व भाव का समवाय जानना)
५.व्याख्याप्रज्ञप्तिः- इसमें 'जीव है कि नहीं' आदि साठ हजार प्रश्नों के उतर हैं।
६.ज्ञातृधर्म कथा ः- इसमे अनेक आख्यान और उपाख्यानों का निरुपण है।
७.उपासकाध्ययन ः-इसमे श्रावक धर्म का विशेष विवरण किया गया है।
८.अन्तकृद्दशांग ः-इसमे प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दश-दश अन्तकृत केवलियों का वर्णन है जिनने भयंकर उपसर्गों को सहकर मुक्ति प्राप्त की ।
९. अनुतरोपपादिकदशांगः- इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वले उन दश-दश मुनियों का वर्णन है जिनके दारुण उपसर्गों को सह्कर पांच अनुतर विमानों में जन्म लिया।
१०.प्रश्न व्याकरण ः- इसमे युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप और विशेष रुप से प्रश्नों का उत्तर दिया गया है।
११. विपाक सुत्र ः- इसमें पाप पुण्य के विवादों का, अच्छे बुरे कर्मों के फलों का वर्णन है।
१२.दृष्टिप्रवाद अंगः- इसमें तीन सौ त्रेसठ मतों का –क्रियावादियों अक्रियावादियों, अज्ञानदृष्टियों और वैनयिक दृष्टियों का- वर्णन और निराकरण किया गया है।

हमारी जिनवाणी, (भगवान के उपदेशों ),को आचार्य समंतभद्र महाराज ने चार अनुयोगो
में विभाजित करी है :-
१ -प्रथमानुयोग-जिसमे ६३ श्लाखा पुरषों के चरित्र का वर्णन है ,
२- करुयोणानुग- इसके अंतर्गत लोक,काल,गति आदि का,वर्णन है
  ३-चरणानुयोग- इसमें मुनियों और श्रावकों के आचरण का वर्णन है और 
४- द्रव्यानुयोग - जीवादि सात तत्वों आस्रव,बंध,संवर,निर्जरा,मोक्ष का वर्णन है ,
Reply


Messages In This Thread
द्वादशांग (Dwadashang) :- - by scjain - 08-04-2014, 06:15 AM
RE: Dwadashang (द्वादशांग) - by sumit patni - 08-22-2014, 04:01 PM

Forum Jump:


Users browsing this thread: 2 Guest(s)