प्रवचनसारः गाथा -69 शुभोपयोग के लक्षण
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -69 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -73 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु।
उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा // 69 //

इस अधिकारमें इंद्रियजनित सुखका विचार किया जावेगा, उसमें भी पहले इंद्रियसुखका कारण शुभोपयोगका स्वरूप कहते हैं-
[यः] जो आत्मा [ देवतायतिगुरुपूजासु] देव, यति, तथा गुरुकी पूजामें [च ] और [ दाने दानों [वा] अथवा [सुशीलेषु ] गुणवत, महाव्रत, आदि उत्तम शीलों (स्वभावों ) में, [ उपवासादिषु ] आहार आदिके त्यागोंमें [एव] निश्चयसे [रक्तः] लवलीन है, [ 'स' आत्मा] वह जीव [शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगी अर्थात् शुभ परिणामवाला है।
भावार्थ-जो जीव धर्ममें अनुराग (प्रीति) रखते हैं, उन्हें इंद्रियसुखकी साधनेवाली शुभोपयोगरूपी भूमिमें प्रवर्तमान कहते हैं // 69 //


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 69

अन्वयार्थ - (देवदजदिगुरुपूजासु) देव, गुरु और यति की पूजा में (दाणम्मि चेव) तथा दान में (सुसीलेसुवा) एवं सुशीलों में (उववासादिसु) और उपवासादिक में (रत्तो अप्पा) लीन आत्मा (सुहोवजोगप्पगो) शुभोपयोगात्मक हैं।

जो इंद्रिय सुख प्राप्त होता हैं ,उस सुख में अंतरंग आत्मा में एक उपयोग साधन बनता हैं ,वही शुभोपयोग हैं।यहाँ उसी के बारे में बताया जा रहा हैं ।

उपयोग तीन प्रकार के होते हैं। अशुभोपयोग,शुभोपयोग,औऱ शुद्धोपयोग

जो देवपूजा व गुरुपूजा में अनुरक्त हैं ,तथा जो व्रतों की रक्षा में लगे हुए शील से सुशोभित मुनियो को दान देने मे रत हैं ,जो उपवास आदि विषयो में अनुरक्त हैं ,इस प्रकार का आत्मा शुभोपयोग स्वभाव वाला होता है।



Manish Jain Luhadia 
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#2

The soul that performs the worship of these three – the stainless and all-knowing pure-soul (sarvajña-deva), the ascetic (yati), and the preceptor (guru), offers gifts (dāna), observes the major as well as the supplementary vows (vrata), and follows
austerities (tapa) like fasting (upavāsa), is certainly engaged in auspicious-cognition (śubhopayoga).

Explanatory Note: 
The souls engaged in auspicious-cognition (śubhopayoga) tread the path of righteousness (dharma). Auspicious-cognition (śubhopayoga) provides to the souls worldly happiness and glory. Since the path leading to pure-cognition
(śuddhopayoga) necessarily passes through auspicious-cognition (śubhopayoga), there is the necessity of first engaging in
auspicious-cognition (śubhopayoga).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -69
स्वार्थमयाशय से  हटकर धर्मानुरागयुत जब होवे |
शुभोपयोगात्मकताको गुरुपूजादिकमें तब  जोवे
शुभोपयोग सहित जो नर सुर तिर्यक् होता है भाई।
सांसारिक सुख वह पाता यह बात जिनागममें गाई ॥ ३५ ॥

सारांश :- जब यह आत्मा अनादिकालसे चली आई हुई शरीरके प्रति अहङ्कार वृत्तिरूप अशुभोपयोग परिणतिको छोड़कर शुभोपयोगी बनता है अर्थात् शरीरको ही आत्मा माननेरूप विचारधारासे दूर हटकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको स्वीकार करता है। उस समय अपने विशिष्ट शक्तिशाली आत्मसंयमी लोगोंके प्रति आदर भाव प्राणिमात्रको लक्ष्यमें रखकर सेवाभाव, कुमार्गसे निरन्तर बचनेरूप सद्भाव और पर्वादिके समय पूजा, दान, शील और उपवास आदि शुभकार्यों में तत्परता जागृत होती है। इससे इस नश्वर शरीरके प्रति उदासीन होकर आत्मबल प्राप्त करता है ऐसे विचारको शुभोपयोग तथा उस विचारवालेको शुभोपयोगी कहा जाता है।

कभी कभी शरीर के प्रति दासता स्वीकार करने वाला जीव भी उक्त शुभकायों में प्रवृत्त होजाता है परन्तु वह इन सबको भी लौकिक लाभों की इच्छा से ही किया करता है अतः वह अशुभोपयोगी ही कहा जाता है। इसी बात को स्पष्ट करनेके लिए मूल ग्रन्थकार ने 'रत्तो' शब्द दिया है। ग्रन्थकारका कहना है कि सांसारिक विषय वासना के लिए नहीं किन्तु आत्मोत्थान के लिए बलदायक समझकर उपर्युक्त कार्यों को तात्कालिक कर्तव्य मानते हुए जो उनका सम्पादन करता है, ऐसा चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती जीव ही शुभोपयोगी कहा जाता है। ऐसा ही टीकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है

" यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूत शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत"

यह शुभोपयोगी जीव जब शुभ दैवबलयुक्त एवं शुभ लेश्याबलयुक्त होता है उस समय इन्द्रिय सुखका अनुभव करनेवाला होता है। यदि शुभलेश्याका और शुभ कर्मोदयका अभाव हो तो ऐसी दशामें बद्धायुष्कतादिके कारण शुभोपयोगी ( सम्यकदृष्टि) जीव भी नारकी बनकर नरकमें मारण ताडनादिरूप घोर दुःखको ही भोगनेवाला हो जाता है।

अशुभोपयोगी (मिध्यादृष्टि) जीव बाह्य समुचित सामग्री होने पर भी उसके द्वारा सदा दुःखका ही अनुभव किया करता है। जैसे पित्तज्वरवाला मनुष्य दूधमें भी कड़वापन ही मानता है। इसप्रकार शुभोपयोगी और अशुभोपयोगी में परस्पर किंचित् विशेषता है। लौकिक दृष्टिमें शुभोपयोगी सुखी और अशुभोपयोगी दुःखी होता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टिमें दोनों ही परतंत्रता जकड़े हुए होते हैं अतः दोनों ही दुखी हैं
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