प्रवचनसारः गाथा -89 स्वरुप अस्तित्व का वर्णन
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -89 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -96 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं /
जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि // 89 //


अब स्वपरभेदके विज्ञानकी सिद्धिसे ही मोहका नाश होता है, इसलिये स्व तथा परके भेदकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं-[यः] जो जीव [ यदि] यदि [निश्चयतः] निश्चयसे [ ज्ञानात्मकं] ज्ञानस्वरूप [आत्मानं] परमात्माको [द्रव्यत्वेन ] अपने द्रव्य स्वरूपसे [अभिसंबद्धं ] संयुक्त [जानाति ] जानता है, [च] और [परं] पर अर्थात् पुद्गलादि अचेतनको जड़ स्वरूप कर आत्मासे भिन्न अपने अचेतन द्रव्य स्वरूप संयुक्त जानता है, [सः] वह जीव [मोहक्षयं] मोहका क्षय [करोति] करता है / 

भावार्थ-जो जीव अपने चैतन्य स्वभावकर आपको परस्वभावसे भिन्न जानते हैं, और परको जड़ स्वभावसे पर (अन्य ) जानते हैं, वे जीव स्वपरविवेकी हैं, और वे ही भेदविज्ञानी मोहका क्षय करते हैं / इसलिये मैं स्वपर विवेकके निमित्त प्रयत्न (उद्योग) करता हूँ 

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा 89
अन्वयार्थ - (जो ) जो (णिच्छ्यदो) निश्चय से (णाणप्पगमप्पाणं) ज्ञानात्मक ऐसे अपने को (च) और ( परं) पर को (दव्वत्तणाहिसंबद्धं) निज निज द्रव्यत्व से संबद्ध (जदि जाणदि) जानता है, (सो) वह (मोहक्खयं कुणदि) मोह का क्षय करता है।


Manish Jain Luhadia 
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#2

The man who knows, with certainty, that he (his soul) is a substance (dravya) established in own knowledge-nature, and
all external substances are similarly established in their own nature, destroys delusion (moha).

Explanatory Note: Consciousness (cetanatva) characterizes the substance (dravya) of the soul (jīva) and non-consciousness (acetanatva) characterizes the other substances (dravya), like the matter (pudgala). Those who have firm belief that, being of the nature of consciousness (cetanatva), the soul is different from the other substances that are of the nature of non-consciousness (acetanatva), have the power of discernment, which destroys delusion (moha). I, therefore, make effort to acquire this power-of discernment – svaparaviveka or bhedavijñāna – that enables me to distinguish between the self and the non-self.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -89,90

है निजदेह प्रमाण आत्मद्रव्य  चेतनायुक्त अहा ।
इतर द्रव्य अचेतन ऐसे समझे मोहाभाव कहा ॥

जो निर्मोही होना चाहे जैनागमसे ठीक करे

अतः ज्ञानयुत जीव और वह देहादिक जगके सगरे॥ 45



सारांश:- जैनागममें बताया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों ही जानने योग्य हैं। इनमें परस्पर दात्म्य नामक अभिभाव सम्बन्ध बना हुआ है। गुणको कभी भी नहीं छोड़नेवाला द्रव्य होता है गुणोंमें विकार (परिणमन) होते रहनेका नाम पर्याय है। हर एक द्रव्य अपने अपने गुणोंको सदा अपने साथमें रखते हुए परस्पर एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसेन होता है। आत्मद्रव्य अपने अन्य गुणोंके साथ साथ चेतना गुणवाला है। शेष सब द्रव्य चेतना रहित (जड़) होते हैं। आत्मा समुद्घात के सिवाय इतर समय में अपने प्राप्त हुए शरीरप्रमाण रहनेवाला है।


इस प्रकार का जैनागम विहित पदार्थोंका स्वरूप युक्ति और अनुभव के द्वारा भी विचार करने पर सही सिद्ध होता है। अतः जो मनुष्य अपने विश्वास को जैनागमके अनुकूल बना लेता है, वह भूलरहित हो जाता है। जो सुमार्ग में लगना चाहता हो उसे चाहिए कि वह जैनागम का अभ्यास करे। अन्यथा वह गृहस्थ ही क्या किन्तु साधु सन्यासी बन करके भी धर्मात्मा नहीं हो सकता है।
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